मौजूदा हालात को देखते हुए लगता नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई बड़ी चुनौती है। फिर भी यदि स्वयं मोदी वही गलती दुहरा दें जो इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर की थी, अथवा यदि बजरंग दल, किसान संघ, भारतीय मजदूर सेघ, राम सेना, गोरक्षक और दूसरे ऐसे ही लोग मिलकर अपना अपना एजेंडा लेकर आक्रामक हो जाएं अथवा यदि देश की सभी छोटी बड़ी पार्टियां एकजुट हो जाएं और उन्हें जयप्रकाश नारायण जैसा नेता मिल जाय तब हालात बदल सकते हैं, अन्यथा नहीं।
राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को करप्शन कहा, जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताया और नोटबन्दी को तबाही लाने वाला कदम कहा, उसके बावजूद वह उत्तर प्रदेश और गुजरात की जनता को सन्तुष्ट नही करं पाए। पता नहीं पूरे देश की जनता इस आक्रामकता को कैसे लेगी। गम्भीर मुद्दों पर देश की गरीब और अनपढ़ वोटर सामूहिक सोच से हमेशा निर्णायक वोट करता रहा है। ऐसा भी हुआ है कि कांग्रेस ने 35 प्रतिशत वोट पाकर शासन किया है। तब गलती जनता की नहीं नेताओं की थी जो विकल्प नहीं प्रस्तुत कर पाते। यदि जनता ने राहुल गांधी पर भरोण करके मोदी को भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति मान लिया तो सरकार जाएगी और यदि जनता ने इल्जामों को झूठ और निराधार पाया तो देश कांग्रेस मुक्त होकर रहेगा।
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अगला चुनाव देश के इतिहास में दूरगामी परिणाम लाएगा इसलिए बहुत ही महत्वपूर्ण होने वाला है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करीब 100 साल थपेड़े खाते हुए अपने अनुभव के आघार पर जानता है कि मोदी के कदम धीरे धीरे मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं और कोई भी जल्दबाजी काम बिगाड़ देगी। असली चिन्ता मुस्लिम समाज की थी लेकिन वह एक सीमा तक संयमित हो रहा है, उसका एक वर्ग मोदी शासन बर्दाश्त करने को तैयार है। उधर राहुल गांधी, ममता बनर्जी और जेल में बन्द लालू प्रसाद यादव मोदी की अति आलोचना करते रहे हैं जो बूमरैंग कर सकती है।
पिछले चुनावों की तरह इस बार भी सम्भव है कि सभी विपक्षी पार्टियों के वोट मिलाकर भाजपा से अधिक हो जायं लेकिन सर्वमान्यं नेतृत्व के अभाव में कुछ अन्तर नहीं पड़ेगा। जब 1967 में अनेक प्रान्तों में संविद सरकारें बनी थी तो विपक्ष ने मौके का लाभ उठाने के लिए ग्रैंड अलाएंस तो बनाया लेकिन सर्वमान्य नेता के अभाव में काम नहीं आया।
इन्दिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने के बाद युवा तुर्कों को साथ लेकर समाजवाद की हुंकार भर दी। प्रचंड बहुमत से जीतीं लेकिन महंगाई के कारण देश की हालत संभल नहीं रही थी। विरोधियों को मौका तब मिला जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण सर्वमान्य नेता बन गए। उन्होंने शर्त लगा दी कि सब अपनी अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी के रूप में करें। सबने मान लिया और आन्दोलन उग्र होता चला गया, इसी बीच इन्दिरा गांधी का चुनाव अदालत से निरस्त हुआ, उन्होंने अदालत का फैसला मानने के बजाय आपातकाल लगा दिया।
अब सवाल है क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी ने उन्हें नेता विपक्ष न बनाकर दावे केा कमजोर कर दिया। तब दूसरे विरोधी दल राहुल गांधी को अपना नेता कैसे मानेंगे। यदि राहुल गांधी नहीं तो दर्जनों दलों का नेता कौन होगा। पता नहीं उत्तर प्रदेश के अनुभव के बाद अखिलेश यादव उन्हें अपना नेता मानेंगे या नहीं। बिहार के पुख्यमंत्री नीतीशकुमार एक सीमा तक मान्य हो सकते थे लेकिन उन्होंने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ कर अंग्रेजी कहावत ‘यदि आप उन्हें जीत नहीं सकते तो उनमें शामिल हो जाओ’ को चरितार्थ कर दिया है।
एनडीए और स्वयं भारतीय जनता पार्टी के अन्दर से सरकार विरोधी आवाजें जरूर उठ रही हैं। इनमें प्रमुख हैं यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, महेश्वरी जैसे लोग जो संघ की संस्कृति में नहीं ढले हैं। अडवाणी और जोशी संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक रहे हैं उन्होंने देशहित में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को त्याग दिया है ऐसा लगता है। भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठन मोदी की नीतियों से असन्तुष्ट तो हैं परन्तु कितना नुकसान करना चाहेंगे जब स्वयं संघ कोई विरोध नहीं कर रहा है। शिव सेना ने अपने को एनडीए से अलग कर लिया है और चन्द्रबाबू नाएडू अलग होने के लिए तैयार है लेकिन इनसे कोई बड़ा अन्तर नहीं पड़ेगा।
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यदि मान भी लिया जाय कि थोड़े समय के लिए सभी पार्टियां मिलकर एकजुट हो जाएंगी तो भी वे मोरारजी की जनता पार्टी से बेहतर नहीं होगी। अटल जी ने अपने अनोखे अन्दाज में जनता पार्टी के विषय में कहा था, ”हमने अपना दीप बुझाकर एक मशाल जलाई थी जिसमें रोशनी कम धुआं ज्यादा है।” भारतीय जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था, जिसका विलय जनता पार्टी में हुआ था। आज के विपक्ष के लिए अटल जी का अनुभव उपयोगी होगा।