कश्मीर में हज़ारों पत्थरबाजों को रिहा करने की तैयारी है, जिनके कारण आतंकवादी सुरक्षित भाग गए थे और सैनिकों की जान जोखिम में पड़ी थी। तकलीफ़ तब होती है जब सैनिकों पर इस बात के लिए मुकदमे चलाए जाते हैं कि उन्होंने आत्मरक्षा में गोली चलाई और नागरिक मारे गए। कश्मीर की अशान्ति के लिए अपने ही देश में मौजूद अलगाववादी और उनके समर्थक हैं। अशान्ति का पौधा नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने लगाया था जो हमें विरासत में मिला है। धन्य थे डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी जिन्होंने समस्या की जड़ पर चोट करने की कोशिश में अपनी ही जान गवां बैठे थे।
आजादी के समय कश्मीर एक रियासत थी और कर्णसिंह के पिता हरिसिंह वहां के राजा थे। ऐसी रियासतें भारत में मिलेंगी या पाकिस्तान में अथवा स्वतंत्र रहेंगी। पाकिस्तान ने अपने सैनिक और अर्धसैनिक बलों की घुसपैठ कराई और वे श्रीनगर हवाई अड्डे के पास तक पहुंच गए थे। तब जाकर राजा हरिसिंह ने भारत सरकार से सैनिक मदद मांगी तो वल्लभ भाई पटेल ने समझाया कि जब तक कश्मीर भारत का अंग नहीं बनता हम सेनाएं वहां नहीं भेज सकते। कश्मीर का भारत में विलय पटेल की दृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम था। हमारी सेना घुसपैठियों को पीछे खदेड़ ही रही थी और कश्मीर सही अर्थों में भारत का अभिन्न अंग बन रहा था। उसी समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में फरियाद कर दी और यथास्थिति बनाए रखने का वादा कर आए।
यह अजीब मामला था जब विजयी होता पक्ष फरियादी बन गया था। इतना ही नहीं जवाहर लाल नेहरू ने वहां जनमत संग्रह कराने का भी वादा कर दिया जिस पर पटेल खिन्न हुए थे। नेहरू सरकार ने धारा 370 का अस्थायी प्रावधान बनाया, जिसकी विलय के बाद कोई आवश्यकता नहीं थी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कश्मीर समस्या शेख अब्दुल्ला और नेहरू की देन है अन्यथा पटेल ने इसे हल कर ही लिया होता।
जब 1957 में कश्मीर की संविधान सभा ने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना तो भी कश्मीर का मसला गृह मंत्रालय को न सौंप कर प्रंधानमंत्री नेहरू ने अपने पास रक्खा। इतना ही नहीं नेहरू की गलत विदेश नीति के कारण राष्ट्रसंघ में कश्मीर का मसला बहुत कमजोर रहा और पाकिस्तान को अमेरिका का साथ मिलता गया। बाबा साहब अम्बेडकर ने नेहरू की विदेश नीति का खुलकर विरोध किया था। वास्तव में कश्मीर का मसला 1948 में ही हल हो गया होता यदि कश्मीर का प्रशासन गृहमंत्री सरदार पटेल के पास होता।
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पाकिस्तान के शासक अयूब खां ने 1965 में भारत पर हमला किया, लेकिन पहली बार शास्त्री के हाथों अच्छा जवाब मिला उन्हें। मुझे याद है लाल बहादुर शास्त्री का लखनऊ में अमीनाबाद के झंडे वाला पार्क में दिया गया भाषण जब उन्होंने कहा था, ”अयूब खां ने कहा था अमृतसर में नाश्ता करेंगे और दिल्ली में डिनर, मैने सोचा लाहौर में लंच कर लेते है।” सचमुच ऐसा हुआ भी था जब लाहौर से बाहर इछोगिल कैनाल के एक तरफ भारतीय और दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेनाएं खड़ी थीं। चाहते तो लाहौर में घुस सकते थे। लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि शास्त्री जी समझौता वार्ता के लिए रूस के ताशकंद गए और जो भूभाग जीता था वह भी रूस के दबाव में वापस करना पड़ा।
(कल पढ़ें भाग दो – बातचीत से कभी हल नहीं होगा कश्मीर का मसला)