दिमाग़ी सुकून और अच्छी सेहत के लिए ज़रूरी है हर रोज़ योग

शरीर के भिन्न-भिन्न भागों के लिए अलग-अलग आसन हैं जिनका उचित मार्गदर्शन में प्रयोग किया जाना चाहिए और आश्चर्य की बात यह है कि सभी अस्पतालों और विद्यालयों में योगासन सीखने सिखाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती? जब अनुकूल वातावरण नहीं था तब की बात अलग थी, लेकिन अब तो अनुकूल वातावरण उपलब्ध है, इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों को विभिन्न समस्याओं के लिए योगासन बताए जाने चाहिए।

Update: 2024-06-21 06:47 GMT

योग का अर्थ है जोड़ अर्थात तन और मन का एक रूप होना। यह एकरूपता स्वस्थ जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है। वैसे तो भगवान श्री कृष्ण को योगीराज कहा जाता है और उनसे भी पहले भगवान शंकर को भी इस सन्दर्भ में याद किया जाता है, लेकिन योग विद्या को व्यवस्थित ढँग से प्रस्तुत करने और इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए महर्षि पतञ्जलि को याद किया जाता है।

माना जाता है, कि महर्षि पतञ्जलि लगभग 4000 साल पहले हुए थे, जब दुनिया को साधारण बातों का भी ज्ञान नहीं था, तब भारत में दर्शन, वेदान्त आदि बातों पर चर्चा होने लगी थी। लम्बे समय तक योग दर्शन को हमारे देश के लोग भूले रहे, चाहे फिर पराधीन भारत में और स्वाधीन भारत में भी योग के महत्व को, ना समझा गया और ना समझाया गया। योग के प्रचार प्रसार में वर्तमान सरकार और बाबा रामदेव का बड़ा योगदान है, जिसके फल स्वरूप आज सारी दुनिया में 21 जून को योग दिवस मनाया जाता है। विश्व ने योग को समझा है और इसके विविध आयाम से परिचित हो रहे है। चिकित्सा विज्ञान में भी इसका बहुत बड़ा योगदान सामने आ रहा है।

योग से मेरा सम्पर्क 1957 में तब हुआ जब मुझे योगेश्वर मठ सहादतगंज में रहने के लिए जगह मिली, मैं जुबली इंटर कॉलेज में पढ़ता था। मठ में सवेरे और शाम को प्रार्थना के साथ योगाभ्यास भी करना होता था, उसी दरमियान मैंने अनेक आसन सीखे थे। बाद के वर्षों में 1961 में जब मुझे लम्बेगो और साइन व्हाइटिस की दिक्कतें हुई और मैं मेडिकल कॉलेज में 38 दिन तक भर्ती रहा तब होम्योपैथिक के साथ योगाभ्यास किया और ठीक हो गया।

पहले मुझे योग के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी, बस एक्सरसाइज जैसा ही लगता था, लेकिन बाद में एक्सरसाइज और योग में अन्तर समझ में आने लगा। मुख्य अन्तर जो बाद के वर्षों में समझ में आया वह यह है, कि जिम या कसरत के द्वारा केवल शरीर के बाहरी अंगों का व्यायाम होता है जबकि योगाभ्यास में शरीर के आन्तरिक अंगों जैसे लिवर, किडनी, फेफड़े और ह्रदय आदि का भी अभ्यास होता है और उस पर प्रभाव पड़ता है।

योग विद्या के प्रणेता और विस्तारक लोगों ने पशु पक्षियों का गहन अध्ययन किया था और उनका अभ्यास करने का तरीका भी देखा था। इसलिए उन्ही के नाम से बहुत से आसन बनाए हैं, जैसे मयूर आसन, कुक्कुट आसान, मंडूकासन और अन्य चीजों के नाम से भी बनाए हैं जैसे धनुरासन, हलासन आदि। अब यदि हमारी रीढ़ की हड्डी में तकलीफ है और ऊपरी भाग में, है तो हम सर्पासन का अभ्यास करेंगे और यदि रीढ़ के मध्य भाग में तकलीफ है, तो धनुराशन और कमर में कष्ट होने पर हलासन उपयोगी होता है।

आज़ादी के 70 साल बाद ही सही, लेकिन योग को मान्यता मिली, तो इसके पहले जो शासक देश में थे उन्हें न तो योग में कोई रुचि थी और ना उसका ज्ञान था इसलिए इसके प्रचार प्रसार के विषय में सोचा ही नहीं होगा। यदि हमारे सभी स्कूलों में योग की कक्षाएं आरम्भ की जाएं तो अपने आप बच्चों का स्वास्थ्य ठीक हो सकता है। इतना ही नहीं योग तो हर व्यक्ति को यदि करना सिखाया जाए, तो निरोग शरीर प्राप्त करना बहुत कठिन नहीं है। मैं नियमित रूप से तो नहीं लेकिन जब कभी भी कोई जोड़ों की या अन्य तकलीफें होती हैं तो योग की शरण में जाता हूँ और सदैव लाभ मिलता है। यदि अस्पतालों की जगह पर हमारे आयुर्वेदिक औषधालय और साथ में योगाभ्यास की व्यवस्था की जा सके तो दवाई इलाज का खर्च तो घटेगा ही और रिएक्शन का ख़तरा भी नहीं रहेगा।


बहुत से ऐसे क्रियाकलाप हैं, जिनके कारण सारे शरीर को प्राण मिलते हैं, इसे प्राणायाम कहते हैं। जब हम वायुमण्डल से हवा को फेफड़े के अन्दर लेते हैं और वहाँ पर हृदय से अशुद्ध खून आता है और ऑक्सीजन के साथ मिलकर शुद्ध हो जाता है अगर ऐसा ना हो पाए तो जीवन असम्भव हो जाएगा। जब यह श्वसन की क्रिया असम्भव होने लगती है तो मरीज को ऑक्सीजन चढ़ाई जाती है, ताकि रक्त शुद्ध हो सके। खून को फेफड़ों में शुद्ध करना और हृदय में फिर भेजना इसमें ना तो कोई धर्म है और ना कोई धार्मिक क्रिया है, फिर भी स्वार्थी लोग इसमें भी धार्मिक क्रियाएं ढूँढेंगे। इतना ज़रूर है कि चाहे वह श्वास की क्रियाएं हो या शरीर की, सबको यदि जानकार व्यक्ति की देखरेख में किया जाए तो ही पूरा लाभ मिल पाता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो कभी-कभी हानि होने की भी सम्भावना रहती है।

कई बार मैंने देखा है कि पढ़ने लिखने वाले लोगों के मेरुदण्ड यानी रीढ़ में कठिनाई पैदा हो जाती है। यदि रीढ़ की कठिनाई को दूर करने के लिए आवश्यकता अनुसार सर्पासन, हलासन और धनुरासन का प्रयोग किया जाए, तो निश्चित लाभ मिलता है। शरीर के भिन्न-भिन्न भागों के लि अलग-अलग आसन हैं जिनका उचित मार्गदर्शन में प्रयोग किया जाना चाहिए और आश्चर्य की बात यह है कि सभी अस्पतालों और विद्यालयों में योगासन सीखने सिखाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती? जब अनुकूल वातावरण नहीं था तब की बात अलग थी, लेकिन अब तो अनुकूल वातावरण उपलब्ध है, इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों को विभिन्न समस्याओं के लिए योगासन बताए जाने चाहिए। इसकी जिम्मेदारी किसी एक सन्यासी के ऊपर छोड़ देना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि शासन व्यवस्था को बिना चिंता किए हुए कि इसका सम्बन्ध सनातन व्यवस्था से है या किसी धर्म से है, किया जाना चाहिए।

स्थूल शरीर की समस्याएँ ही नहीं बल्कि मन मस्तिष्क की समस्याओं का समाधान भी योगाभ्यास के द्वारा किया जाता है। ध्यान धारणा और समाधि जैसे अनेक तकनीक का इस्तेमाल करके मनुष्य के मस्तिष्क को स्थिर और एकाग्रता प्रदान की जा सकती है। दिमागी काम करने वाल चाहे विद्यार्थी या दूसरे लोग हों, कई बार मानसिक थकान तथा एकाग्रता की कमी आदि का अनुभव करते हैं और तब उन्हें ध्यान धारणा समाधि ऐसी विधाओं का सहारा लेकर अथवा शवासन करके मन मस्तिष्क को स्वस्थ और सफल बनाया जा सकता है। हमारे स्कूल कॉलेज में एनसीसी जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जाते हैं जो राष्ट्र के लिए समर्पित नागरिक पैदा करते हैं।

इसी तरह यदि योग आधारित कक्षाएं आरम्भ की जाएं और स्वस्थ शरीर वाले छात्र-छात्राएं उससे निकलें और वह राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत हों तो कहीं अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यदि बड़े पैमाने पर ऐसे कार्यक्रम चलाए गए तो राजनीति प्रेरित आलोचनाएं संभव हैं, लेकिन इन्हें शैक्षिक आधार पर चलाई जाने में कोई कठिनाई नहीं आनी चाहिए।

केवल योग पर व्याख्यान देने अथवा उसके महत्व को बताने मात्र से काम नहीं चलेगा बल्कि उसे व्यवहार में लाना होगा और तब इसका लाभ दिखाई पड़ेगा। आश्चर्य तो तब होता है जब हम सोचते हैं कि 70 साल के बाद यह समय आया कि कम से कम साल में एक बार योग का ध्यान आ जाता है। मैं नहीं जानता कि केवल 21 जून को योग कर लेने और इसका प्रचार प्रसार कर देने से कितना लाभ मिल पाएगा और मैं यह भी नहीं जानता कि आखिर 21 जून ही क्यों चुना गया। वैसे 21 जून का दिन साल भर में सबसे बड़ा होता है शायद इसलिए इसको महत्व दिया गया हो। जब तक योग विद्या को स्कूल कॉलेजों, गाँवों, पंचायतों में घर- घर पहुंचाया नहीं जाएगा, इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं दी जाएगी, तब तक समाज को इस महान ज्ञान से वंचित रहना पड़ेगा। दुखद यह है कि हम में से अनेक लोग यह कहते हैं कि हमें किसी के आगे झुकना नहीं है, लेकिन कोई सामान उठाना होता है तब तो झुकना ही पड़ता है, इसलिए इस तरह की छोटी-छोटी बातें लेकर योग विद्या के प्रचार प्रसार में बाधा नहीं खड़ी की जानी चाहिए।

हमारे देश में ज्ञान को भी धर्म से जोड़ दिया जाता है, जैसे आयुर्वेद हिंदुओं का, यूनानी इस्लाम का और एलोपैथी अंग्रेजों का ज्ञान हो। वे यह नहीं जानते कि यूनान का अर्थ है ग्रीस देश, और भारत की तरह ही ग्रीस ने प्रारंभिक दिनों में बहुत ज्ञान अर्जन किया था, और संसार को ज्ञान दिया था।

हमारे देश के ऋषि सुश्रुत को सर्जरी का पितामह माना जाता है इसमें कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार योग साधना को हिन्दू धर्म से जोड़ना और यह कहना के इसमें झुकना पड़ता है वगैरा-वगैरा यह नासमझी का नतीजा है। हमारे देश को जरूरत है, आयुर्वेद और योगाभ्यास के मिले-जुले प्रयास को आगे बढ़ाकर आयु भी बढ़ाने की व्यवस्था जिसके अन्तर्गत कहते थे “जीवेम शरदः शतम” और यह कल्पना लेकर चलने वाले लोग किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हो सकते। आज जिस प्रकार की दवाओं के रिएक्शन और उनकी कीमत हमें झेलनी पड़ रही है उससे छुटकारा मिलना ही चाहिए। लेकिन सरकारों को आयुर्वेद और योग विद्या के खुलकर प्रचार प्रसार में संकोच क्यों हो रहा है यह आश्चर्य की बात है।

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