कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि क्या जलवायु बावली हो गई है?

हमारे देश के ऋषियों ने यह बताया था कि जेठ के महीने में तपन और आषाढ़ के महीने में वर्षा होगी। शायद यही कारण था कि अंग्रेजों ने जून के महीने में स्कूल कॉलेजों में अवकाश रखा था। वह क्रम लगभग वैसा ही चल रहा है, लेकिन बदलाव अगर है, तो जलवायु और तापमान में है, जो जेठ की तपन थी, वह महातपन हो गई है।

Update: 2024-06-29 12:14 GMT

आमतौर से दो शब्द सुनने में आते हैं एक तो जलवायु परिवर्तन और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग। दोनों का परस्पर सम्बन्ध भी हो सकता है और कारण अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से होता है और ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों मनुष्य के क्रियाकलापों से प्रभावित होती है। यदि हम पेड़ के तने को काटें तो उसमें गोल रिंग दिखाई पड़ेंगे और उनका ध्यान से देखने पर हर 11वीं रिंग थोड़ी मोटी होती है। ऐसा माना जाता है की सूर्य में चुम्बकीय क्षेत्र परिवर्तन अथवा इसी प्रकार के किन्हीं परिवर्तनों के कारण प्रत्येक 11 वर्ष पर जलवायु में परिवर्तन आता है उसी के फल स्वरुप 11 साल बाद वाली रिंग मोटी होती है। इस पर तो हमारा कोई नियंत्रण नहीं हो सकता, लेकिन जब बात मनुष्य के क्रियाकलापों पर आएगी तो उनमें सुधार सम्भव है।

पचास के दशक और उसके पहले हमारे यहाँ की जलवायु काफी भिन्न हुआ करती थी। लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर जिलों की सरहद के इलाके में वर्षा आज की अपेक्षा कम होती थी और खेती आज से बिल्कुल भिन्न रहती थी। तब खेतों में मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का आदि और इनके अलावा छोटी फसल वाले अनाज जैसे कोदो, साँवा, मडुवा और काकुन पैदा होते थे। आज कल फिर से मोटे अनाजों पर जोर दिया जा रहा है। यह तापमान और वर्षा में अन्तर क्यों आया इसका अच्छा रहस्य तो नहीं पता है लेकिन जो अंतर आया वह सब आँखों देखा हुआ है।

मौसमों का चक्र चलता रहता है इसको लेकर कहा गया है “दिनमपि रजनी सायं प्रातः, शिशिर वसन्तौ पुनरायातः” अर्थात दिन और रात शिशिर और बसन्त यह बार-बार आते रहते हैं। जलवायु परिवर्तन का चक्र भी शायद इसी तरह चलता रहता है। इन प्राकृतिक चक्रों को मनुष्य प्रभावित कर पाएगा अथवा नहीं, हम कह नहीं सकते। इतना ज़रूर है कि जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं, वह सीधे-सीधे औद्योगिक क्रान्ति के बाद की घटना है और इसके लिए मनुष्य के क्रियाकलाप जिम्मेदार हैं।

हमारे देश के ऋषियों ने यह बताया था कि जेठ के महीने में तपन और आषाढ़ के महीने में वर्षा होगी। शायद यही कारण था कि अंग्रेजों ने जून के महीने में स्कूल कॉलेजों में अवकाश रखा था। वह क्रम लगभग वैसा ही चल रहा है, लेकिन बदलाव अगर है, तो जलवायु और तापमान में है, जो जेठ की तपन थी, वह महातपन हो गई है। मेरे विद्यार्थी जीवन में यही करीब 60 साल पहले हमारे यहाँ का तापमान गर्मियों में 40 से ऊपर नहीं जाता था। धीरे-धीरे बढ़ता गया और अब तो 45-46 और और तक कि 48 डिग्री हो जा रहा है। इस तरह ग्लोबल वार्मिंग अनुभव किया जा सकता है और इसके अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन स्वयं मनुष्य इसके लिए अधिक जिम्मेदार है।

आखिर इस प्रकार तापमान बढ़ने का कारण क्या हो सकता है? इसके विषय में सोचने के लिए हमें मानव सभ्यता के विकास को ध्यान में रखना होगा, पहले मौसम इस तरह नहीं बदलता था। औद्योगिक उद्यमों से लगातार कार्बन डाइऑक्साइड के निकलते रहने से वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा अपेक्षाकृत घटती गई। इस तरह उद्योग धंधों से कार्बन डाइऑक्साइड निकलती रही और ऑक्सीजन की मात्रा घटती रही, उससे हमारे वायुमण्डल के ऊपर का रक्षा कवच प्रभावित होता गया, जो प्रकृति ने बना रखा है, वह ओजोन नाम की गैस का होता है। ओजोन वास्तव में ऑक्सीजन का भंडार है, आवश्यकता पड़ने सूर्य से आने वाली पराबैंगनी (हानिकारक) किरणों को रोकने के लिए कवच है।

हानिकारक किरणों में अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) किरणें मुख्य होती है, जिन से इस कवच के बिना मनुष्य की रक्षा करना कठिन हो जाएगा। यह ओजोन ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से बनता है और ऑक्सीजन के एक अणु में दो परमाणु होते हैं, यानी ओजोन के दो अणु यदि टूटे तो ऑक्सीजन के तीन अणु बन सकते हैं। इसलिए ओजोन की परत एक तरफ पराबैंगनी किरणों से हमें बचाती है तो दूसरी तरफ ऑक्सीजन का भंडार भी है ।

वैज्ञानिकों ने बताया है कि कुछ गैसें ओजोन के साथ क्रिया करके इसे नष्ट कर देती हैं, जिससे ओजोन परत में छिद्र हो जाते हैं। इन गैसों में सम्मिलित हैं, कार्बन मोनोऑक्साइड और एयर कंडीशनर से निकलने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस। देखने में आता है हरियाणा पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपने खेतों की पराली खेत में ही जला देते हैं और वह यह नहीं समझते कि उन्होंने वायुमंडल में कितनी कार्बन डाइऑक्साइड पहुँचा दी, जो अन्ततः हानिकारक सिद्ध होगी। इसी प्रकार किसान के अलावा लकड़ी के व्यापारी जब पेड़ों को काटते हैं, तो यह नहीं समझते कि यह पेड़ शंकर का रूप है, समाज की रक्षा के लिए जो जहर पी गए थे। इस तरह यह पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल से लेकर पत्तियों में अपना भोजन बनाते हैं और बदले में हमें ऑक्सीजन देते हैं।

पंद्रहवीं शताब्दी में पुर्तगाल, स्पेन जैसे देशों ने जहाजी बेड़ा की नावें बनाने के लिए तमाम पेड़ काट डाले। हमारे देश में भी लकड़ी के लिए तमाम पेड़ कट रहे हैं और बदले में वृक्षारोपण किया तो जाता है लेकिन वह पेड़ जो लगाए गए कहाँ चले जाते हैं यह पता नहीं चलता । सड़कों पर करोड़ों की संख्या में वाहन चलते रहते हैं, जो डीजल और पेट्रोल जलाकर वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। हमारे देश में रेल गाड़ियाँ भी कोयले से चला करती थी, अब वह बन्द हो गई हैं, मगर कोयला का प्रयोग अन्य अनेक स्थानों पर होता है जिनसे हानिकारक कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में जुड़ती रहती है। अब डीजल से रेल गाड़ियाँ चल रही हैं, लेकिन वह भी अपेक्षाकृत कम मात्रा में सही, फिरभी कार्बन डाइऑक्साइड निकालती तो है। इसके बदले अब बैटरी से चलने वाली या सौर ऊर्जा से चलने वाली गाड़ियाँ, मशीन, घरेलू उपकरण बनाए जा रहे हैं, जो काफी हद तक विषैली गैसों को वायुमंडल में नहीं छोड़ेंगे। हानिकारक गैसों द्वारा ओजोन परत क्षतिग्रस्त होने के कारण सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें अब वायुमण्डल तक पहुँचने लगेंगी।

तापमान लगातार बढ़ने के अनेक परिणाम सामने दिखाई पड़ते हैं, लेकिन पहाड़ों पर यह परिणाम बहुत स्पष्ट होते हैं। मैं 20 वर्ष तक नैनीताल और पर्वतीय भागों में रहा और मैंने देखा के जाड़े के दिनों में बर्फ ऊँची पहाड़ियों पर लदी रहती थी, लेकिन समय के साथ अधिक ऊँचाई पर रहने लगी वह बर्फ पीछे को हटती गई। बर्फ का सबसे निचला भाग स्नो लाइन कहलाता है और स्नो लाइन पर्वतों पर जाड़े और गर्मी में अलग-अलग होती है, परन्तु यदि यह ऊपर की तरफ खिसकना शुरू कर दे तो समझना चाहिए की गर्मी बढ़ रही है। इससे होता यह है की छोटे-छोटे स्प्रिंग झरने नाले सब सूखने लगते हैं और पहाड़ों के निचले भाग में पानी की कमी दिखाई पड़ने लगती है। यह बढ़ती हुई गर्मी यानी ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ा हुआ एक छोटा सा नमूना है जो स्पष्ट देखा जा सकता है ।

हम संगम स्नान के लिए प्रयागराज जाते हैं, जहाँ पर माना जाता है गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों का मिलन होता है। लेकिन गंगा और यमुना तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है परन्तु सरस्वती कहाँ है? सरस्वती नदी ईसा मसीह से 4000 साल पहले शिवालिक पहाड़ियों से निकलकर पश्चिम भारत होते हुए और प्रयागराज तक आती थी। महाभारत काल के लोगों ने सरस्वती में प्रवाह-मय जल को देखा होगा। वर्तमान के भू-वैज्ञानिकों ने सरस्वती का मार्ग चिन्हित किया है और उसके प्रमाण इकट्ठा किए हैं। यह कोई क्रमशः घटने वाली घटना नहीं रही होगी, बल्कि शायद भूकम्प या ऐसे प्राकृतिक कारणों से इसका पानी यमुना में डाइवर्ट हो गया होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है और बाकी का सरस्वती का मार्ग सूख गया। यह तो नहीं कहा जा सकता रेगिस्तान का मरुस्थलीकरण सरस्वती के सूखने से हुआ होगा लेकिन इतना जरूर है कि इसके किनारे कुछ बस्तियाँ अवश्य रही होंगी जिनका वर्णन महाभारत काल के साथ किया जाता है।

सरस्वती के विलुप्त होने के कारण जो भी हों, लेकिन इसका जल चाहे दूसरी नदी में चला गया अथवा सूख गया या रास्ते में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं ने रोका परन्तु सच्चाई यह है, कि अब नदी का मार्ग तो है मगर पानी नहीं है। इस घटना का सम्बन्ध ग्लोबल वार्मिंग से भले ही ना हो, लेकिन जलाभाव का कारण तो यह अवश्य बना है और इसने सभ्यता को प्रभावित किया।

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से निपटने के उपाय तो सोचने ही होंगे। यदि हम रेफ्रिजरेटर, ए.सी. आदि का विकल्प न सोच पाए और कार्बन डाई र्ऑक्साइड की मात्रा वायुमंडल में बढ़ाते रहे, तो यह वैसे ही होगा, जैसे हम जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। हमें सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा ,गोबर गैस जैसे वैकल्पिक श्रोतों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। बिना सोचे समझे पराली जलना, पेड़ काटना, कोयले का उपयोग आदि नियन्त्रित करना ही होगा। हमें कुछ सुख सुविधाएँ जैसे .सी. और फ्रिज के विकल्प खोजने होंगे। यदि कुछ भी प्रयास नहीं किये गए और सब कुछ यथावत चलता रहा तो इस दुनिया की रक्षा भगवान भरोसे हो जाएगी।

( ये लेखक के अपने विचार हैं )

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