विजय माल्या, मोहुल चोकसी और नीरव मोदी के घोटलों की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि रोटोमैक पेन बनाने वाली कम्पनी के मालिक विक्रम कोठारी का तीन हजार सात सौ करोड़ का तथाकथित घोटाला सामने आ गया है । हीरे के व्यापारी नीरव मोदी द्वारा पंजाब नेशनल बैंक से वर्षों तक हजारों करोड़ का कर्जा लेकर 11500 करोड़ का चूना लगा दिया और अब खुले आम कर्जा न चुकाने की धमकी दे रहा है। उसका दर्द यह है कि घोटाले को सार्वजनिक कर दिया गया जिसे इतने दिनों तक दबाकर रखा था। प्रजातंत्र में यही एक रास्ता है अपराध और घोटालेबाजों को नंगा करने का। इसके बाद पश्चिमी देशों में घोटालेबाज भीख मांगने लायक भी नहीं रहते ।
भारतीय बैंकों में भ्रष्टाचार और कर्जा लेकर न चुकाने की परम्परा बैंकों के राष्ट्रीयकरण से आरम्भ हुई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी की तथाकथित फोनकाल पर बैंक से बिना किसी लिखा पढ़ी के 60 लाख रुपया निकाला गया था । आज तक कोई माई की लाल सरकार यह नहीं पता लगा पाई कि इन्दिरा गांधी की आवाज में किसने फोन किया था,उस बैंक के कैशियर का क्या हुआ और वह रुपया था किसका । चूंकि चुनाव निकट थे इसलिए विरोधियों ने मान लिया कि पैसा चुनाव के लिए निकाला गया था ।
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जब इंन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, राजा महाराजाओं की प्रिवी पर्स समाप्त किए, बीमा व्यापार को सरकार ने अपने हाथों मे ले लिया, आर्थिक संस्थाओं पर सीधा सरकारी नियंत्रण हो गया तो अर्थ नीति पर राजनीति हावी हो गई। रजवाड़ों को प्रिवी पर्स वल्लभ भाई पटेल ने दिया था जब उन्होंने रियासतों का भारत में विलय किया था। उनकी बात का सम्मान नहीं किया गया। जो भी हो, अर्थ व्यवस्था तबाही की डगर पर चल पड़ी जिसे मोरारजी देसाई जैसा पूंजी का पक्षधर भी संभाल नहीं पाया । यह सब इतिहास है।
यह सब इसलिए किया गया था कि गरीबों और किसानों को बैंक से आसानी से कर्जा मिल सके और उनको महाजनों पर निर्भर नं होना पड़े । कुछ हद तक कर्जा मिला भी जिसे सुरक्षित कर्जा कहा जाएगा। लेकिन गरीबों से अधिक सुविधा हो गई धन्ना सेठों को जिन्हें भी उतनी ही आसानी से बैंक अधिकारियों की मिली भगत से असुरक्षित कर्जा मिलने लगा। कर्ज की सीमा, कर्जदार की आर्थिक क्षमता, कर्ज चुकाने की अवधि आदि को परिभाषित नहीं किया गया अन्यथा बैंक अधिकारियों को विवेकाधीन अधिकार न मिलते ।
किसान को कर्ज देते समय उसकी जमीन या मकान, सावधि जमा पत्र या दूसरी सम्पत्ति को बंधक बनाया जाता है जिसे जरूरत पड़ने पर नीलाम करके कर्जा वसूला जा सकता है। इसके साथ ही दो गारेन्टर लाने होते हैं जिनको भी जिम्मेदार माना जाता है कर्जा वसूल कराने में। जब बैंक अधिकारियों को असुरक्षित कर्जा बांटने का अधिकार दे दिया गया और बैंक व्यवस्था को लचर और अपंगु कर दिया गया तो बैंक अधिकारी निरंकुश हो गए, भ्रष्ट हो गए बड़े व्यापारियों से रिश्वत खाई होगी तभी जाली दस्तावेज बनाकर कर्जा दिलाया और अब गिरफ्तार हो रहे हैं । एनपीए अथवा बट्टे खाते में गया धन निरन्तर बढ़ता गया, कोई नहीं मानेगा कि हमारी रिज़र्व बैंक को जानकारी नहीं थी कि अरबों रुपए का असुरक्षित कर्जा बांटा जा रहा है, वह भी सरकारी बैंकों द्वारा।
कुछ लोग प्रधानमंत्री मोदी को इस बात के लिए दोषी मान रहे हैं कि उनके समय में विजय माल्या औ नीरव मोदी कर्जा लेकर विदेश भाग गए। हमें ध्यान रखना चाहिए कि भागने वाले को कोई रोक नहीं सकता। इन्दिरा गांधी के आपातकाल में वारन्ट के बावजूद सुब्रमण्यम स्वामी अमेरिका भाग गए थे और जार्ज फर्नांडीज़ नेपाल चले गए थे, क्या इन्दिरा जी को जिम्मेदार माना जाएगा ? इसलिए गुनाह इस बात का नहीं है कि मोदी जी भागने वाले को रोक नहीं पाए। गुनाह इस बात का है कि बैंक व्यवस्था में मौजूद पुराने नियमों को समय रहते बदल नहीं पाए और उन्हीं के तहत कर्जा मंजूर होता रहा।
बैंकों की विदेशी शाखाओं के माध्यम से बहुत घोटाले होते हैं इसलिए इनकी विशेष निगरानी की आवश्यकता है। सरकारी बैंकों के 49 प्रतिशत शेयर प्राइवेट लोगों को बेच दिए जाएं जिससे सरकार का 51 प्रतिशत से नियंत्रण भी रहेगा और प्राइवेट पूंजी निवेशक कड़ी निगरानी भी रखेंगे, बैंकों की हड़तालें घटेंगी, दक्षता आएगी। अटल जी की सरकार में एक डिसइन्वेस्टमेन्ट विभाग बना था जिसका काम था घाटे में चल रहे प्रतिष्ठानों को बेचना । हमारी सरकारों को अपने अनुभव से सीखना चाहिए और पुराने निर्णयों का मूल्यांकन करना चाहिए ।
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