अकादमिक और ग़ैर राजनीतिक कुलपति ही करेंगे विवि का भला

शिक्षक

उच्च शिक्षा में छात्र और अध्यापकों के साथ ही प्रधानाचार्यों और कुलपतियों की बड़ी भूमिका है। उनका नैतिक बल संस्था की शक्ति होता है, फिर चाहे हड़तालों पर जाने से हतोत्साहित करने की बात हो या छात्रों और अध्यापकों को अन्य दिशा-निर्देश। लेकिन आजकल अच्छे बुद्धिजीवी कुलपति बनना ही नहीं चाहते। अब तो कुलपतियों के रूप में डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. मुखर्जी, आचार्य नरेन्द्र देव और जाकिर हुसैन के चित्र ही सजा सकते हैं, उस स्तर के कुलपति नहीं ढूंढ सकते।

वही लोग कुलपति बनते हैं जिनकी राजनैतिक पहुंच होती है, और जो भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर हटाए भी जाते हैं। वो अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं। एक भी उपकुलपति ऐसा नहीं जो पुलिस के बिना विश्वविद्यालय चला सके। शैक्षिक वातावरण की हालत यह है कि अनेक अध्यापक तो प्रवेश समितियों और परीक्षा निरीक्षकों के रूप में काम नहीं करना चाहते।

छात्रों की आयु सीमा निर्धारित करके और छात्रसंघों की सदस्यता स्वैच्छिक करके वातावरण सुधारा जा सकता है। छात्रावासों के कमरे राजनैतिक दलों के कार्यालय न बनें और अराजक तत्वों के अड्डे न बनने पाएं, इसका भी उपाय खोजना चाहिए। पुराने समय में विश्वविद्यालय में वर्दीधारी पुलिस वाले प्रवेश नहीं कर सकते थे। उच्च शिक्षा में सुधार के लिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह ने कुछ सुझाव दिए थे जिन्हें माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी ठीक माना था।

वस्तुतः बड़ी संख्या में ऐसे छात्रों का प्रवेश हो जाता है, जो ज्ञानार्जन के लिए गंभीर नहीं होते। इनमें से बहुत से छात्र राजनैतिक दलों से संबद्ध होते हैं और उनका लक्ष्य दलगत राजनीति होता है। छात्रसंघों की सदस्यता अनिवार्य होने के कारण उनका बजट भी काफी रहता है, इसलिए छात्र नेताओं के लिए विश्वविद्यालय अथवा कॉलेज परिसर राजनीतिक प्रशिक्षण का अच्छा केन्द्र बन गए हैं, और उनमें से बहुत से छात्र नेता बाद में एमपी, एमएलए और मंत्री बनते हैं।

विश्वविद्यालयों को आर्थिक संसाधनों के लिए सरकारों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता है इसलिए उनकी स्वायत्तता समाप्त हो चुकी है, वहां रिसर्च केवल स्वान्तः सुखाय होती है जिसका व्यावहारिक उपयोग नहीं होता। इसलिए उद्योग जगत से बहुत कम समर्थन मिल पाता है। विश्वविद्यालयों के पास जो संसाधन हैं भी, उनका सदुपयोग नहीं होता और भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगते रहते हैं।

औद्योगिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में तालमेल बनाकर सैद्धांतिक रिसर्च के साथ औद्योगिक रिसर्च भी हो और उसके बदले विश्वविद्यालयों को इंडस्ट्री से आर्थिक मदद मिलती रहे। हमारी सरकारें एक्सेलेंस यानी विशेषज्ञता और उत्कृष्टता के लिए आईआईटी, आईआईएम, कृषि विश्वविद्यालय खोलती रहती हैं। इनमें प्रवेश पाने वालों में देश की 70 प्रतिशत आबादी वाले गाँवों के बहुत कम छात्र-छात्राएं होती हैं। देश में मौलिक चिंतन और प्रासंगिक शोध की कमी का प्रमुख कारण है उच्च शिक्षा की पढ़ाई का अंग्रेजी में होना और मातृ भाषा का तिरस्कार।

निहित स्वार्थ के कारण हमारे नेताओं और नौकरशाहों ने क्षेत्रीय भाषाओं को पास नहीं फटकने दिया वरना देश के दलित, किसान सब प्रशासनिक कुर्सी के दावेदार बन जाते। गाँव वालों के सामने अंग्रेजी की बाधा खड़ी कर दी गई। देश के नेताओं ने अपने बच्चों को विदेशों में अंग्रेजी पढ़ाकर देश में अंग्रेजी का दबदबा जारी रखा।

उच्च शिक्षा तक अनुमानतः 10 प्रतिशत लोगों की पहुंच है जिसमें ग्रामीण आबादी का अंश तो चार प्रतिशत से भी कम है। इस विसंगति को दूर करने का तरीका है कि सुदूर गाँवों में महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खोले जाएं, कम से कम कृषि विश्वविद्यालय तो गाँवों में खुलें ही। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अनेक सुझाव लागू किए हैं जिनका सुधारात्मक प्रभाव होगा। आशा है जुलाई से आरंभ होने वाले सत्र में कुछ अन्य सुझाव भी लागू किए जाएंगे।

Recent Posts



More Posts

popular Posts