सोनभद्र (यूपी)। दिवाली पर शहर से लेकर गांव तक की बाजारें सज गईं हैं। दिवाली पर अच्छी आमदनी के इंतजार में कुम्हारों ने कई महीनें पहले से दिए बनाने भी शुरु कर दिये थे। कुम्हारों के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में मिट्टी के बर्तनों और दियों की मांग तो बढ़ी है लेकिन आदमनी उतनी नहीं हो पाती है।
दीपावली में कुम्हारों द्वारा बनाये गए दियों को टमटमाते हुए देखने का एक अलग ही अनुभव होता है। कुछ वर्ष पहले तक शहर तो दूर गांव से भी मिट्टी के दिए गायब होने लगे थे। चायनीज झालर, मोमबत्ती और दूसरे रौशनी की चीजें लोगों को अच्छी लगने लगी थीं, जिसके चलते परंपरागत दियों की मांग भी कम हो गई थी। लेकिन इस सोच में थोड़ा बदलाव आया है। लोग फिर से दिए खरीदने लगे हैं। हालांकि महंगाई को देखते हुए कुम्हारों की इतनी कमाई नहीं हो पाती।
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के मलदेवा गांव में बड़े पैमाने पर मिट्टी के बर्तन, दीपक, पूजा के बर्तन, कुल्हड़, घड़ा, मटका, कटोरी और गुल्लक आदि बनाने का काम होता है। ये लोग सीजन के हिसाब से बर्तन बनाते हैं। लेकिन दिवाली पर इन्हें सबसे ज्यादा उम्मीदें होती है। मलदेवा गांव के मिट्टी के कलाकार हरिहर प्रजापति (60 वर्ष) बताते हैं, “पिछले 40 वर्षों से मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। दीपावली व छठ पर्व के पूजा सामग्री के साथ साथ सीजन के हिसाब से मिट्टी के बर्तन बनाते हैं। लेकिन जिस हिसाब से महंगाई बढ़ गई है हम लोगों की मजदूरी भी नही निकलती है। दूर से मिट्टी लाकर लकड़ी खरीदकर 10-15 दिनों में मिट्टी के बर्तन व पूजा सामग्री बनाते हैं। लेकिन किसी तरह से जीवकोपार्जन हो रहा है।’
वहीं इसी गांव के एक मिट्टी के बर्तन काम करने वाले कुम्हार राजू प्रजापति (42 वर्ष) के मुताबिक उनका पूरा परिवार यही काम करता है। वो कहते हैं, “यह काम हमारे पूर्वजों से चला आ रहा है। इस महंगाई में जितना लागत हमारी लगती है। वही निकल रहा है। कमाई तो पता ही नही चलता है।”
राजू आगे कहते हैं, “वर्तमान समय में दीये की बिक्री तो होती है, लेकिन उतनी नही हो पाती हैं जितनी होनी चाहिए।” नंदलाल भी राजू की हां में हा मिलाते हैं। उनके मुताबिक महंगाई के अनुसार मिट्टी के बर्तनों की वो कीमत नहीं मिलती है।
नंदलाल प्रजापति (50 वर्ष) गांव कनेक्शन से कहते हैं, “पिछले कई वर्ष से 40-50 रुपये सैकड़ा के हिसाब से बाजार में दिए कि बिक्री हो रही है। जबकि महंगाई लगातार दो गुनी बढ़ गई है। मिट्टी के दीया व वर्तन तथा खिलौनों के वर्तमान समय में पूंजी भी निकालना मुश्किल हो गया है। अब खा-पीकर हिसाब बराबर हो जा रहा है।”
प्लास्टिक, फाइबर के सस्ते आइटम, चाइनीय उत्पादों की भरमार के चलते मिट्टी के बर्तनों की महक कम होने लगी थी। कई जगहों पर कुम्हारों को मिट्टी के लिए परेशान होना पड़ रहा था, इसके अलावा बाजार भी उनके लिए एक बड़ी समस्या थी।
उत्तर प्रदेश में मिट्टी के काम को आगे बढ़ाने और कुम्हारों की आजीविका को बढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने माटी कला बोर्ड की स्थापना की थी। प्रदेश में पॉलिथीन पर बैन लगाने के बाद इस दिशा में सरकार ने कई प्रयास किए थे। 2018 में माटी कला बोर्ड की स्थापना के बाद कुम्हारों को तालाबों से मिट्टी निकालने की परिमिशन के अलावा पट्टे तक देने की बात कही गई थी।
सरकार ने बनाया है माटी कला बोर्ड
28 अक्टूबर को लखनऊ में उत्तर प्रदेश जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 2021 को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मिट्टी और गाय के गोबर आधारित उत्पादों का जिक्र खासतौर से किया। सीएम ने कहा कि यूपी पॉलिथीन पर पाबंदी लगाने वाला पहला राज्य था। लेकिन हमने से सिर्फ पाबंदी नहीं लगाई थी लोगों को उसका विकल्प भी दिया था। हमने माटी कला बोर्ड की स्थापना की। एक बैठक में कुम्हारों से पूछा तुम्हारी दिक्कत क्या है उन्होंने कहा माटी की समस्या है हमने उन्हें मुफ्त माटी देने की और तकनीकी देने की बात की। हमने कहा कि आप जून अप्रैल से लेकर मई तक गांव के तालाब की मिट्टी मुफ्त खोदकर ले लाइए, स्टोर करिए। उन्हें सोलर और बिजली से चलने वाले चॉक दिए। इससे क्या हुआ कि उनका उत्पादन बढ़ा, मिटटी निकाले जाने से गांव का तालाब साफ हुआ, वहां पानी रुका। कुम्हारों को मुफ्त मिट्टी मिली तो उन्होंने पॉलिथीन थर्माकोल से सस्ते उत्पाद बना दिए।
इससे पहले एक कार्यक्रम में सीएम ने कहा कि एक जनपद एक उत्पाद और विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना और साथ माटीकला बोर्ड से जुड़ी योजनाएं प्रदेश में ब्रांड के रुप में उभरी हैं। आज प्रजापति समाज के पास काम है। चीन से भगवानों की मूर्तियां आनी बंद हो गई हैं। घर-घर में दीपक और मूर्ति बन रही हैं। सरकार भी इस दिशा में काम कर रही है। इस बार अयोध्या में ही 9 लाख दिए जलाए जाएंगे।
ऐसे बनाए और पकाए जाते हैं बर्तन
दीये, घड़ा, कोसी, ढकनी, कुल्हड़, कटोरी, गुल्लक बनाने के लिए कुम्हार सबसे पहले लाल मिट्टी, काली मिट्टी, चिकनी मिट्टी को दूर से अपने घर पर मंगवाते हैं। उस मिट्टी को दो दिनों तक पानी में भिगोकर रखते हैं। मिट्टी को अच्छी तरह से साफ सफाई करने के बाद उसे आटे की तरह गूथते हैं। उसके बाद मिट्टी का छोटी लोई बनाकर चलते हुए चाक पर बैठाते हैं। फिर उसे आकार देते हैं।
कच्ची बर्तनों को पकाने के लिए एक घर के पास ही एक बड़ा गढ्ढा खोदते हैं। जिसमें लकड़ियां, पुवाल या उपले आदि रखते हैं, उसके ऊपर सावधानी के साथ मिट्टी के बर्तन रखते हैं, फिर उसे पुवाल और मिट्टी का लेप लगाकर पैक कर देते हैं। एक होल से उसमें आग लगा दी जाती है। अमूमन बर्तनों को आराम-आराम से दो दिनों तक पकने के बाद बाहर निकाला जाता है। उसके बाद उन्हें कई बार गेरुए या दूसरे रंग से रंगने के बाद बाजार ले जाया जाता है।