कानपुर, उत्तर प्रदेश। खुला आसमान और पास से एक एक करके गुजरने वाली ट्रेन का शोर। ब्लैक बोर्ड के लिए शायद यह एक सामान्य जगह न हो। लेकिन रेलवे ट्रैक के नजदीक लगे इस ब्लैक बोर्ड पर एक युवा लड़की ट्रेन की खड़खड़ाहट से बेपरवाह होकर कुछ लिखने में व्यस्त है। यहां बैठे 30 से 40 बच्चों की चमकदार जिज्ञासु आंखें भी उतनी ही तल्लीनता के साथ बोर्ड पर टिकी हुई हैं।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में दादानगर कच्ची बस्ती में बना यह अनोखा स्कूल रेलवे क्रॉसिंग के दोनों ओर भीड़-भाड़ वाली गंदगी में स्थित है। अंजनी जायसवाल, अंजू दुबे, सलोनी यादव और अंजलि पासवान बारी-बारी से यहां पढ़ाने के लिए आती हैं।
26 साल की अंजनी ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम तीनों कॉलेज में पढ़ रहे हैं और शाम को 4 से 5 बजे के बीच रोजाना एक घंटे इन बच्चों को पढ़ाने के लिए आते हैं। हमें ऐसा करके बेहद खुशी मिलती हैं।” अंजनी बीए (बैचलर ऑफ आर्ट्स) की अंतिम वर्ष की छात्रा हैं।
गरीब दिहाड़ी मजदूरों के छह से दस साल की उम्र के बीच के ये बच्चे रेलवे ट्रैक के दोनों ओर अस्थायी ढांचे में रहते हैं जिसे वे अपना घर कहते हैं। उनके माता-पिता बेहद गरीब हैं और स्कूल की फीस दे पाना उनके उनके बस में नहीं है.
अंजनी, सलोनी और अंजलि बच्चों को पढ़ाती हैं, जबकि अंजू झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली बड़ी लड़कियों और महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई का काम सिखाती हैं।
ब्लैक बोर्ड पर लिखते हुए अंजनी बच्चों को नंबर सीखा रही थीं। अचानक से उनकी ओर आने वाले एक स्कूटर की आवाज आई, बच्चे पढ़ते-पढ़ते रुक गए। उनकी नजरें इधर-उधर कुछ ढूंढने लगीं। वह जान गए थे कि मनमोहन सिंह उनके लिए दूध, बिस्कुट और फल लेकर आ रहे हैं!
मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी राजविंदर कौर इस शिक्षा परियोजना के पीछे की प्रेरक शक्ति हैं।
50 वर्षीय मनमोहन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे और मेरी पत्नी दोनों के लिए अशिक्षित और भूखे बच्चों को पढ़ाना और उन्हें खाना मुहैया करना किसी भी धार्मिक स्थल पर पैसा खर्च करने से कहीं ज्यादा है। इन बच्चों का क्या होगा, इसकी किसी को परवाह नहीं है। अगर हम उनके जीवन में बदलाव ला सकते हैं, तो इसके लिए हमें भगवान का शुक्रगुजार होना चाहिए।”
मनमोहन सिंह कानपुर के गुमटी 5 स्थित एक गुरुद्वारे में काम करते हैं। और वहां जो भी पैसा कमाते हैं उसका एक हिस्सा वो अपने इस मिशन पर खर्च करते हैं। बच्चों के लिए पौष्टिक नाश्ते के अलावा मनमोहन और उनकी 46 वर्षीय पत्नी राजविंदर कौर, उन्हें किताबें, नोटबुक, पेंसिल और कागज भी उपलब्ध कराते हैं।
मनमोहन ने मुस्कुराते हुए कहा, “जब बच्चे हमारे साथ होते हैं तो उन्हें खाने के लिए कुछ पौष्टिक भी मिल जाता है। वे हमारे द्वारा दी जाने वाली स्टेशनरी से भी प्यार करते हैं। हमें उम्मीद है कि हमारा ये प्रयास उन्हें क्लास में बनाए रखने में सफल रहेगा।”
उनकी पत्नी राजविंदर भी बच्चों को पढ़ाती हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम पिछले छह सालों से गरीब बच्चों को पढ़ाने में लगे हैं। हमारे पास कानपुर में दादानगर जैसे पांच ऐसे क्लासरूम हैं, जिनमें से ज्यादातर रेलवे ट्रैक के आसपास हैं।” ये क्लासरूम संजय नगर, गोविंद नगर बस्ती, रेलवे लाइन बस्ती और सीटीआई कच्ची बस्ती में हैं। राजविंदर ने बताया कि वे छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए वहां के युवाओं की मदद लेते हैं।
मनमोहन ने कहा, “कुल मिलाकर, हमारे पास लगभग 480 बच्चे हैं जो इन पांच इलाकों में पढ़ रहे हैं। टीचरों की कॉलेज की फीस सहित हर महीने होने वाला हमारा खर्च लगभग 24 हजार रुपये बैठता है।”
झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग
बीए फर्स्ट ईयर की छात्रा सलोनी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मनमोहन जी और राजविंदर जी हमारे गुरु हैं। हमारे लिए उनके प्रोत्साहन और समर्थन के बिना यहां पढ़ा पाना संभव नहीं है।” 22 साल की सलोनी आगे कहती हैं, “बच्चों के साथ-साथ वे हमारे कॉलेज की फीस और हमारे बाकी के कामों का खर्चा भी उठाते हैं।” चारों लड़कियां खुद ऐसे परिवारों से आती हैं जिनकी आर्थिक हालत ज्यादा अच्छी नहीं है।
राजविंदर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली लड़कियों को सिलाई या ब्यूटीशियन का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रोत्साहित करती हैं ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें और आर्थिक रूप से अपने-आपको मजबूत बना सकें।
राजविंदर और मनमोहन ने जिन चार लड़कियों को अपने साथ जोड़ा है, उनमें से एक अंजू दूबे पर, महिलाओं को सिलाई और ब्यूटी पार्लर का काम सिखाने की जिम्मेदारी है। 28 साल की दूबे ने कहा, “मैं टेलरिंग और ब्यूटीशियन कोर्स दोनों सीख रही हूं और मैं दूसरों को भी यही सिखाती हूं। मनमोहन सर और राजविंदर मैम मेरे कॉलेज की फीस और मेरी किसी भी अन्य जरूरत का ध्यान रखते हैं। एक तरह से वे मेरे अभिभावक हैं। ”
गरीब बच्चों को शिक्षित करना
रूबी गुप्ता दूर खड़े होकर अपने बच्चों को निहार रही हैं। उनके चार और सात साल के बेटे यहां पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे पति दिव्यांग हैं। वह काम नहीं कर पाते हैं। मैं भी जैसे-तैसे, यहां-वहां काम करके किसी तरह से अपना गुजारा चला रही हूं।”
वह पास की एक झोपड़ी की ओर इशारा करते हुए बताती है कि वहां उसका परिवार रहता है। उन्होंने कहा, “मेरे पास अपने बच्चों को स्कूल भेजने के साधन नहीं हैं। लेकिन, यहां उन्हें मुफ्त में शिक्षा मिल रही है, साथ ही अच्छा खाना भी।
रूबी की ही कॉलोनी में रहने वाली रानी की चार साल की बेटी भी यहां पढ़ने के लिए आती है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरी बेटी को यहां वह सब कुछ मिलता है जिसकी उसे जरूरत होती है, मन और शरीर का पोषण और ढेर सारा प्यार।”
इन रेल पटरियों से आने वाले बच्चों को पढ़ाने का एक और अमूल्य परिणाम है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। रूबी ने कहा, “मेरा बेटा घर आने के बाद मुझे पढ़ना- लिखना सिखाने का प्रयास करता है।” यह कहने के बाद वह बड़े ही गर्व के साथ मुस्कुराने लगती हैं।