भारत में पिछले कुछ वर्षों में अस्थमा के मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु प्रदूषण डेटाबेस के मुताबिक, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 13 शहर शामिल हैं। हवा में कई सारे छोटे-छोटे कण होते हैं, जो फेफड़ों में घुस कर काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
अगर आकड़ों की बात करें तो भारत में अस्थमा के कुल रोगी 15 से 20 करोड़ हैं। बदलते लाइफस्टाइल के चलते ये बीमारी बच्चों में भी फैल रही है। मौजूदा वक्त में कुल 12 प्रतिशत शिशु अस्थमा से पीड़ित हैं।
ग्लोबल बर्डन ऑफ़ अस्थमा के अनुसार विश्व में लगभग 30 करोड़ लोग अस्थमा से ग्रसित हैं। जिसका 10 प्रतिशत अर्थात 3 करोड़ हिस्सा केवल भारत में ही है। अस्थमा को बढ़ावा देने वाले एलर्जी के तत्वों को ट्रिगर्स या कारक भी कहते हैं।
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेस्पाइरेटरी मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष डॉ सूर्यकान्त बताते हैं, “जब अस्थमा के कारक मरीज के संपर्क में आते हैं तो शरीर में मौजूद विभिन्न रसायनिक पदार्थ (जैसे हिस्टामीन) स्रावित होते हैं जिनसे श्वास नलिकाएं संकुचित हो जाती है। श्वास नलिकाओं की भीतरी दीवार में लाली और सूजन आ जाती है और उसमें बलगम बनने लगता है। इन सभी से अस्थमा के लक्षण पैदा होते है तथा बार-बार कारकों के सम्पर्क में आने से श्वास की नलिकाओं में स्थायी रूप से बदलाव हो जाते हैं। भारतवर्ष में कारक तत्व के रूप में 49 प्रतिशत प्रदूषण, 29 प्रतिशत ठण्डे पेय पदार्थ, 24 प्रतिशत रसायन तथा 11 प्रतिशत तनाव प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
ग्लोबल इनिसेटिव ऑफ़ अस्थमा (जिना) के अनुसार 40 प्रतिशत लोगों में अस्थमा अनियन्त्रित व 60 प्रतिशत लोगों में आंशिक रूप से नियन्त्रित है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि अस्थमा से पीड़ित व्यक्ति सही तरीके से दवा नहीं लेता, इन्हेलर का प्रयोग नहीं करता, इस लिए नियन्त्रित अस्थमा का प्रतिशत शून्य है। गोल्ड स्टेन्ड्र्ड के अनुसार इनहेल चिकित्सा नियमित रूप से करनी चाहिए। किन्तु दुर्भाग्यवश 30 प्रतिशत लोग ही इन्हेलर का प्रयोग करते हैं जबकि 70 प्रतिशत लोग ओरल मेडिकेशन लेते हैं। दमा के इलाज में इन्हेलर चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ है क्योकि इसमें दवा की मात्रा का कम इस्तेमाल होता है, असर सीधा एवं शीघ्र होता है एवं दवा के कुप्रभाव बहुत ही कम होते हैं। इस वर्ष अस्थमा दिवस की थीम है आप अपना अस्थमा नियंत्रित कर सकते है
पहचान
नलिकाओं की भीतरी दीवार में सूजन हो जाती है। यह सूजन नलिकाओं को बेहद संवेदनशील बना देता है जो किसी भी एलर्जन के सम्पर्क में तीखी प्रतिक्रिया करता है। इस स्थिति में फेफडों में हवा की मात्रा कम हो जाती है, जिससे खांसी, छाती में कसाव, सीटी की ध्वनि, सांस लेने में परेशानी और घबराहट जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं। ज्यादातर अस्थमा का रोग बचपन में ही शुरू हो जाता है। जिसमें बच्चे की पसली चलना, खांसी आना तथा सांस फूलना जैसे लक्षण होते हैं।
अस्थमा का निदान-
अस्थमा का निदान, अधिकतर लक्षणों के आधार पर एवं कुछ परीक्षण करके जैसे सीने में आला लगाकर, म्यूजिकल साउण्ड (रॉन्काई) सुनकर, तथा फेफड़े की कार्यक्षमता की जांच (पी0ई0एफ0आर0 व स्पाइरोमेट्री) द्वारा की जाती है।
अन्य जांचे- खून की जांच, छाती एवं पैरानेसल साइनस का एक्सरे इत्यादि।
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अस्थमा का उपचार-
अस्थमा के इलाज के लिए निम्न तरीके की दवाइयां है।
- वायुमार्ग खोलने के लिए
- एलर्जी कारकों के प्रति आपके शरीर की प्रतिक्रिया कम करने के लिए।
- वायुमार्ग की सूजन कम करने के लिए।
- इसके लिए इन्हेलर होते है जिससे कि सांस के जरिए दवा सीधे फेफड़े में पहुचंती है और उसका शरीर के अन्य अंगों पर न्यूनतम प्रभाव पड़ता है। इस के लिए दो प्रमुख तरीके के इन्हेलर है।
- रिलीवर इन्हेलर- ये जल्दी से काम करके श्वांस की नलिकाओं की मांसपेशियों का तनाव ढीला करते है और तुरन्त असर करते है। इनको सांस फूलने पर लेना होता है।
- कंट्रोलर इन्हेलर- ये श्वास नलियों में उत्तेजना और सूजन घटाकर उनको अधिक संवेदनशील बनने से रोकते है और गम्भीर दौरे का खतरा कम करते है। इनको लक्षण न होने पर भी लगातार लेना चाहिए।
अस्थमा के दौरे को रोकने के लिए-क्या करें
- दमें की दवा हमेशा अपने पास रखे और कंट्रोलर इन्हेलर हमेशा समय से ले।
- सिगरेट, सिगार के धुए से बचे, तथा प्रमुख एलर्जन से बचें।
- अपने फेफड़े को मजबूत बनाने के लिए सांस का व्यायाम करें।
- ठंड से अपने को बचाकर रखें।
- यदि बलगम गाढ़ा हो गया है, खांसी, घरघराहट और सांस लेने में तकलीफ बढ़ जाये या रिलीवर इन्हेलर की जरूरत बढ़ गई हो तो तुरन्त अपने चिकित्सक से मिले ।
क्या न करें:
- प्रमुख एलर्जन के सम्पर्क में न आयें।
- घर में जानवरों को न पालें।
- घर में धूल को न जमने दें व गंदा न रखें।
- कोल्डड्रिंक्स, आइसक्रीम व फास्ट फूड न लें।
ऐसे करें बचाव:
- मौसम बदलने से सांस की तकलीफ बढ़ती है तो मौसम बदलने के 4 से 6 सप्ताह पहले ही सजग हो जाना चाहिए और उचित चिकित्सा परामर्श लेना चाहिए।
- इन्हेलर व दवाएं विशेषज्ञ की सलाह के अनुसार ही लेनी चाहिए। समुचित इलाज होने पर आने वाले दिनों में या तो सांस का दौरा पड़ता ही नहीं है या बहुत कम पड़ता है व इसकी दर भी कम हो जाती है।
- ऐसे कारक जिनकी वजह से सांस की तकलीफ बढ़ती है या जो सांस के दोरे को जन्म देते हैं उनसे बचाव करना चाहिए। जैसे- धूल, धूंआ , नमी, सर्दी व धूम्रपान आदि। ऐसे खाद्य पदार्थ, जो रोगी के संज्ञान में स्वयं आ जाते है कि वे नुकसान कर रहे है, का परहेज करना चाहिए। साधारणतः शीतलपेय, फास्टफुड तथा केमिकल व प्रिजरवेटिव युक्त खाद्य पदार्थो (चाकलेट, टाफी, पेप्सी आदि) का परहेज करना चाहिए
- सर्दी, जुकाम, गले की खरास या फ्लू जैसी बीमारी का तुरन्त इलाज कराना चाहिए, क्योंकि इससे बीमारी के बिगड़ने का खतरा रहता है।
- सेमल की रूई युक्त बिस्तरों का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा कारपेट, बिस्तर व चादरों की नियमित तथा सोने से पूर्व अवश्य सफाई करनी चाहिए।
- व्यायाम या मेहनत का कार्य करने से पहले इन्हेलर अवश्य लेना चाहिए। यदि रात में साँस फूलती है तो रात में सोने से पहले ही इन्हेलर तथा अन्य दवाएं उचित चिकित्सकीय सलाह से लेने चाहिए।
- घर हवादार होना चाहिए, सीलन युक्त न हो तथा खुली धूप आनी चाहिए।
- रोगी को तेज व ठंडी हवा से बचायें, यात्रा के दौरान बच्चों को लेकर वाहन की खिड़की के पास न बैठें।