सेहत कनेक्शन: कभी-कभी तीखा भी खाएं, सेहत बनाएं

अक्सर बुजुर्गों से सुनने मिलता है कि तीखे भोज्य पदार्थों का हर व्यक्ति को सप्ताह दो सप्ताह में एक बार जरूर करना चाहिए
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मसालों का इस्तेमाल रसोई में व्यंजनों के स्वाद में चार चाँद लगाने के लिए किया जाता है। मसालों के स्वाद के बगैर खाने का मज़ा अधूरा रहता है, दरअसल मसाले खाने को चटपटा बनाते तो हैं लेकिन इनके कई औषधीय गुण भी होते हैं, जो हमारी सेहत को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।

हिन्दुस्तान के परंपरागत औषधि ज्ञान के तौर पर अनेक घरों में इन मसालों को कई हर्बल नुस्खों के तौर पर अपनाया जाता है और आदिवासी अंचलों में तो मसालों का इस्तेमाल कर कई घातक बीमारियों का इलाज भी किया जाता है।

मसालों के डाले जाने के बाद व्यजनों की खुश्बू के साथ स्वाद तो बेहतर होता ही है लेकिन ये सेहत बेहतरी में भी जबरदस्त तरीकों से कारगर होते हैं। मसालों के तीखेपन की वजह से अक्सर लोग इन्हें ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करने से हिचकिचाते हैं।

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शरीर का रक्त होगा शुद्ध

अक्सर बुजुर्गों से सुनने मिलता है कि तीखे भोज्य पदार्थों का हर व्यक्ति को सप्ताह दो सप्ताह में एक बार जरूर करना चाहिए। मुझे बचपन से मीठा खाने का शौक बहुत ज्यादा रहा, तीखे से हमेशा आंख बचाते रहा। पिताजी अक्सर कहा करते थे कि तीखा सेवन करोगे तो पेट के कीड़े मर जाएंगे और शरीर का रक्त शुद्ध होगा।

आहिस्ता-आहिस्ता समझ बनते गयी और 90 के अंतिम दशक के अपने रिसर्च कॅरियर से शुरुआती दौर से लेकर अब तक ये बात तो समझ आ गयी कि पेट को बीच-बीच में तीखेपन से भी अवगत कराना चाहिए।

वनवासियों के साथ काम करते-करते अब तक करीब 20 साल हो चले हैं और इस दौरान मैंने शायद ही किसी वनवासी को हृदय रोग से ग्रस्त देखा होगा। पातालकोट में एक बुजुर्ग जानकार से चर्चा करते हुए एक बार पूछ ही बैठा था कि आखिर इनके खानपान में इतना तीखापन क्यों होता है?

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कलेजा और दिल को मज़बूत रखना है तो …

बुजुर्ग से सीधे जवाब आया कि कलेजा और दिल को मजबूत रखना है तो भरपूर मसाले वाला भोजन खाओ। ये तो हुई बात गाँव देहात की… अब पढ़िये आगे की बात, ‘न्युट्रिशन जर्नल’ में 2014 में एक शोध के परिणाम प्रकाशित किए गए जिसमें बताया गया कि खूब सारे मसालों जैसे दालचीनी, हल्दी, लहसुन, जीरा, अजवायन, तेजपान, लौंग, काली मिर्च, अदरक, प्याज, मिर्च आदि से तैयार ‘करी’ या सब्जी और इसका सेवन 45 वर्ष की आयु के आसपास वाले 14 स्वस्थ लोगों को कराया गया, 14 अन्य स्वस्थ लोगों को इसका सेवन नहीं कराया गया और उन्हें मसाला रहित भोज्य पदार्थ दिए गए, इस सब्जी के साथ हर एक व्यक्ति को पका हुआ चावल (200 ग्राम) भी दिया गया।

इस ‘करी’ के सेवन से पहले और बाद में इन लोगों के ब्लड वेसल्स का परिक्षण किया गया। भोजन के बाद वेसल्स की रिपोर्ट्स से पाया गया कि जिन्होंने करी का सेवन किया उन तमाम लोगों के ब्लड वेसल्स से रक्त प्रवाह (ब्लड फ़्लो) की दर तेज (इंक्रीस्ड एफएमडी : फ्लो मीडिएटेड वेसोडिलेशन) हो गयी, जबकि अन्य लोगों में इस दर का घटाव (डिक्रिस्ड एफएमडी) देखा गया।

रिपोर्ट में बताया गया कि मसालों में पाए जाने वाले एंटीऑक्सिडेंट्स की वजह से ऐसा होता है। मुद्दे की बात ये है कि जिन लोगों की धमनियों में कठोरपन की शिकायत होती है, जिसे एथिरोस्क्लोरोसिस कहा जाता है, उन्हें इस तरह के भोज्य पदार्थों का सेवन जरूर करना चाहिए।

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अब पारंपरिक ज्ञान का मानने लगे हैं लोहा

न्युट्रिशन जर्नल में प्रकाशित ये रिपोर्ट भले ही विकसित देशों के लिए नयी हो लेकिन सदियों से तीखे व्यंजनों के खाने की वकालत हिन्दुस्तानी घरों में की जाती रही है। मुझे उत्साहित करने वाली बात ये लगती है कि आधुनिक विज्ञान की पैरवी करने वाले लोग भी अब पारंपरिक ज्ञान का लोहा मानने लगे हैं।

जापान, कोरिया और हिन्दुस्तान के अनेक प्राचीन लेखों और ग्रंथों तक में मसालेदार तीखे व्यंजनों की उपयोगिता और गुणों का बखान देखने को मिलता है। जापान में प्रचलित रेसिपी ‘करी’ भी ऐसा ही व्यंजन है जिसमें भरपूर मसालों के साथ खूब सारा तीखापन होता है।

भले ही इसका सेवन करते करते जापानियों की आंख से पानी निकल आए, लेकिन वे इसे महीने में एक दो बार तो जरूर सेवन में लाते हैं। जापानी करी में लौंग, धनिया, जीरा, लहसुन, लाल और काली मिर्च के अलावा कुछ स्थानीय तीखे मसाले भी मिलाए जाते हैं। मजे की बात ये है कि जापान में मीजी काल (1868-1912) के दौरान ब्रिटिश लोगों ने इसे आम लोगों तक पहुंचाया था।

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धमनियों में रक्त प्रवाह पाया गया सामान्य

इस नयी शोध से ये निष्कर्ष निकाला गया कि मसालेदारी सब्जी या करी के सेवन के बाद लोगों के ब्लड वेसल्स की आंतरिक सतह, जिसे एंडोथीलियम कहते हैं, अपेक्षाकृत थोड़ी फैल गयी जिससे इन लोगों की धमनियों में रक्त प्रवाह सामान्य पाया गया।

लेख में आपने पहले पढ़ा होगा कि किस तरह तीखा व्यंजन एथिरोस्क्लोरोसिस की समस्या का निपटारा करता है। एथिरोस्क्लोरोसिस की समस्या या धमनियों का कठोरपन अचानक नहीं होता है, एंडोथीलियम में कई सालों तक शनै: शनै: सिकुड़न की वजह से एथिरोस्क्लोरोसिस की समस्या का जन्म होता है।

यदि बचपन से ही समय-समय पर तीखा खाने की आदत बच्चों में डाल दी जाए तो एंडोथीलियम का फ़ैलाव बना रहेगा और सिकुड़न की तमाम गुंजाइशें खत्म हो जाएंगी जिसका सकारात्मक परिणाम सालों बाद देखा जा सकता है।


मीठे के साथ तीखे भोजन से करें प्यार

तो अब क्या? बस, सप्ताह में एक बार खूब मसालेदार तीखी करी या सब्जी का सेवन करना शुरू करें, कोशिश करें कि बच्चों को जितना मोह मीठे से हो उतना ही प्यार तीखे भोजन से भी हो और ऐसा करने में माता-पिता अपनी भूमिका निभाने से चूकने नहीं चाहिए। आखिर सेहत आपकी और आपकी पीढ़ी की ही बनेगी…

वैसे चलते-चलते एक सवाल पूछ लूं, आपने कभी मिट्टी के चूल्हे की गर्म आंच पर लाल मिर्च सेंक कर नमक और नींबू रस डालकर खाया है या नहीं? कभी-कभी तीखा भी खाएं, सेहत बनाएं..

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