बहरा होने से बचना है तो धर्मस्थानों से आगे बढ़ें 

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कितने डेसिबल की आवाज लगातार सुनने से आदमी बहरा हो जाता है ये तो पता नहीं लेकिन देश की जनता ने नेताओं को सुनना बन्द कर दिया है, जिस नेता की जितनी बड़ी सभा उतने ही अधिक घ्वनि विस्तारक और उतना ही अधिक ध्वनि प्रदूषण इस पर विवाद नहीं हो सकता।

सोनू निगम ने अजान की आवाज के खिलाफ तो बात कही थी, लेकिन नेताओं के भोंपुओं के खिलाफ भी आवाज उठनी चाहिए। सभ्य देशों में न तो इतनी बड़ी सभाएं होती है और न इतना ध्वनि प्रदूषण । जहां तक इबादत और आराधना का सवाल है वहां भोंपू बजाने की आवश्यकता ही नहीं। सनातन धर्म में तो ध्यान, धारणा और समाधि के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति होती है और इस्लाम के मानने वालों पर कटाक्ष करते हुए कबीर ने कहा था “क्या बहरा हुआ खुदाय”।

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किसी धर्म में यह नहीं कहा गया कि तुम जितना शोर करोगे परमेश्वर उतनी जल्दी दौड़ा चला आएगा। अन्ततः मौजूदा सरकार का आदेश आया कि 20 जनवरी 2018 तक मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च पर लाउडस्पीकर लगाने की या तो जिलाधिकारी से अनुमति प्राप्त कर लें अथवा उन्हें हटा लें।

कभी आप ने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सभाओं में लाउडस्पीकरों की संख्या गिनी है? लाखों की संख्या में छोटे बड़े नेता नुक्कड़ सभाएं करते हैं और लाउडस्पीकर लगातें हैं क्या उनसे ध्वनि प्रदूषण नहीं होता? देवी जागरण, अखंड, कीर्तन, कव्वाली, शब्बे बरात, डीजे और बाजारों में चूहा मार, दाद, खुजली की दवाएं बेचने वाले चीखते हैं उसका क्या होगा?

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अस्पतालों के पास पड़ोस में जहां मरीजों को कई बार दवाईं देकर सुलाया जाता है वहां भी तेज आवाज में लाउडस्पीकरों की आवाज सुनाई पड़ती हैं। पुराने जमाने में लाउडस्पीकर तो नहीं होते थे मस्जिद पर जोर आवाज में अजान दी जाती थी। कबीर दास को वह भी मंजूर नहीं था। स्वामी विवेकानन्द ने कहा हैं सच्ची भक्ति तो एकाग्र मन से होती है भीड़ में नहीं ।

वैसे ध्वनि प्रदूषण से तो मनुष्य बहरा ही होगा मरेगा नहीं लेकिन अन्न, जल, वायु, मिट्टी, दवाइयां सब तो प्रदूषित हैं लेकिन इनके लिए समाज और सरकार को चिन्ता नहीं प्रतीत होती। हमें निहित स्वार्थों से आगे बढ़कर पूरे समाज के हिताहित को ध्यान में रखना चाहिए।

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यदि ध्वनि विस्तारक यंत्रों की बात हो तो इनके निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है अथवा ध्वनि की डेसिबल सीमा निश्चित की जा सकती है। यदि धर्म पर अंकुश लगाना है तो बात दूसरी है।

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