आदिवासियों का हर्बल ज्ञान सटीक है

Deepak Acharya | Mar 25, 2017, 12:33 IST
science
कुछ दिनों पहले अहमदाबाद मैनेजमेंट एसोसिएशन में आयोजित एक कार्यशाला में पारंपरिक ज्ञान पर चर्चा हो रही थी। बतौर विषय विशेषज्ञ मैं भी इस कार्यशाला का हिस्सा बना। आधुनिक विज्ञान की पैरवी करने वाले कुछ लोगों ने भी परंपरागत हर्बल ज्ञान और उसके वैज्ञानिकीकरण को लेकर अपनी बातें रखीं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो येन-केन-प्रकारेण अपनी बातें थोपने के लिए आतुर दिखे।

आधुनिक विज्ञान के कर्णधारों का एक तबका पारंपरिक हर्बल ज्ञान का लोहा मानने जरूर लगा है फिर भी इस जमात में ना जाने ऐसे कितने ही लोग हैं जो आज भी पारंपरिक हर्बल ज्ञान को दकियानूसी और बकवास मानते हैं। उनके हिसाब से यह ज्ञान गैर-वैज्ञानिक, पुराना, अप्रमाणित, बेअसर और खतरनाक है। जब भी किसी परिचर्चा या संवाद कार्यक्रम में कोई पारंपरिक हर्बल ज्ञान को बगैर समझे एक सिरे से खारिज़ करता है तो मुझसे रहा नहीं जाता है। आलोचना होना बेहद जरूरी है लेकिन तथ्यों के आधार पर बेतुकी आलोचना करना दूसरे को नीचा दिखाने का एक तरीका होता है। ये बात मेरी समझ से परे है कि यदि परंपरागत हर्बल ज्ञान इतना बेअसर, गैर-वैज्ञानिक और खतरनाक है तो फिर आधुनिक विज्ञान को अपनी दुकान बंद कर देनी चाहिए क्योंकि आधे से ज्यादा आधुनिक औषधियों को पौधे से प्राप्त किया जा रहा है और इन सब औषधियों के पीछे पारंपरिक ज्ञान ही वजहें रही हैं। यदि हल्दी का उपयोग कर शरीर के 10 से ज्यादा विकारों पर विजय पाई जा सकती है और कोई मुझसे ये पूछे कि इस बात की गैरंटी क्या है कि हल्दी शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाएगी, तो मुझे हंसी के अलावा क्या आएगी?

सदियों से हल्दी हमारे खान-पान के हर दिन का हिस्सा है, सदियों से सर्दी खांसी के लिए दादीओं और माताओं ने बच्चों को हल्दी का दूध ही पिलाया है, अब भला कौन सा खतरा? रही बात क्लीनिकल प्रमाण की, तो क्या वाकई इसकी जरूरत है? क्या हल्दी को एक बार फिर चूहों, फिर बंदरों और फिर मनुष्यों को खिलाकर विज्ञान का स्टाम्प लिया जाए और बताया जाए कि इसके सेवन से कोई शारीरिक खतरे नहीं हैं? सोच बदलने की जरूरत है, सच्चाई को समझने की जरूरत है। बजाय इसके कि हम पारंपरिक हर्बल ज्ञान को एक झटके में नकार दें, या इसे भला-बुरा कहें, बेहतर है हम पारंपरिक दावों की परख कर लें। पारंपरिक ज्ञान में दम ना होता तो माइक्रोबॉलोजी जैसे विषय में पीएच डी और पोस्टडॉक करने के बाद भी इस विषय में यूं ही हाथ ना आजमाता। पारंपरिक ज्ञान को प्रमाणन की बेहद जरूरत है ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए।

वैसे तो सैकड़ों ऐसे रसायन हैं जिन्हें पौधों से प्राप्त किया गया है और जो आज भी आधुनिक औषधियों के नाम से जाने जाते हैं और मजे की बात ये भी है कि बहुत ही कम लोग हैं जानते हैं कि ये सभी किसी ना किसी देश के आदिवासियों या पारंपरिक हर्बल ज्ञान पर आधरित हैं। एजमालिसाईन रसायन जिसका इस्तमाल ब्लड प्रेशर नियंत्रण के लिए किया जाता है उसे सर्पगंधा से प्राप्त किया गया है, एट्रोपाईन जो तंत्रिका तंत्र विकारों में इस्तमाल में लाया जाता है, बेलाडोना से प्राप्त किया गया है। सूजन, त्वचा पर लालपन के लिए ब्रोमेलैन रसायन अन्नानस से प्राप्त किया जाता है तो मलेरिया के लिए कारगर क्वीनाईन को सिनकोना की छाल से।

कैंसर, ट्यूमर जैसी समस्याओं के लिए विनब्लास्टीन, विन्क्रिस्टीन जैसे रसायन सदाबहार नामक पौधे से प्राप्त किए जाते हैं। ऐसे ना जाने कितने पादपरसायन हैं जिन्हें तमाम रोगोपचारों के लिए आधुनिक औषधि विज्ञान आजमा रहा है और ये सब पारंपरिक ज्ञान पर आधारित हैं। पारंपरिक ज्ञान की पैरवी करके मैं यह नहीं जताना चाहता कि लोग किसी भी पौधे को उठाकर खुद घर के वैद्य बन जाएं, पौधे भी जहरीले होते हैं लेकिन कोई सही जानकार किसी खास रोग के लिए एक खास पैमाने पर इन जहरीले पौधों के हिस्सों का उपयोग अपने नुस्खों में करता है तो होने वाले असर को लेकर हमारी आंखे खुली रहना जरूरी है। पौधों के असरकारक गुणों और आदिवासियों के सटीक ज्ञान को समझे बिना कोई इसे प्राचीन या खतरनाक कह दे तो सिवाय मुस्कुराहट के मेरे चेहरे पर आपको कुछ और नहीं दिखेगा और मुझे उस व्यक्ति की नासमझी पर सिर्फ हँसी ही आएगी।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं, हर्बल मेडिसिन एक्सपर्ट और पेशे से वैज्ञानिक हैं)

Tags:
  • science
  • Deepak Acharya
  • आधुनिक विज्ञान
  • herbal treatment
  • Ayurvedic treatment
  • Modern farming
  • हर्बल ज्ञान
  • वैज्ञानिकीकरण
  • Modern Medicine
  • daily Science

Follow us
Contact
  • Gomti Nagar, Lucknow, Uttar Pradesh 226010
  • neelesh@gaonconnection.com

© 2025 All Rights Reserved.