किसान आंदोलन: छह महीने में किसान शक्ति ने काफी कुछ दांव पर लगाकर ये इतिहास रचा है

कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों के आंदोलन के 6 महीने पूरे हो गए हैं। देश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण मामलों के जानकार अरविंद कुमार सिंह बता रहे हैं ये आंदोलन क्यों खास रहा और इसके क्या मायने हैं, 2 पार्ट के लेख का पहला भाग
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चार प्रमुख मुद्दों पर दिल्ली की सरहदों से 26 नवंबर 2020 को आरंभ हुआ किसान आंदोलन छह माह तक चलते हुए इतिहास के अहम मोड़ पर पहुंच गया। बेहद कड़ाके की सर्दी के दौरान शुरू इस आंदोलन ने बारिश, तूफान, गरमी सब कुछ सह लिया। सैकड़ों किसान इस आंदोलन में शहीद हो गए। आंदोलन पर कोरोना महामारी मंडराती रही। लेकिन गाजीपुर, चिल्ला, टीकरी और सिंघु सीमा पर किसान डटे रहे। उनकी आवाज संसद और सुप्रीम कोर्ट ही नहीं दुनिया के तमाम हिस्सों तक पहुंची। इस आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकारी स्तर पर ही नहीं भाजपा और संघ परिवार की ओर से भी तमाम प्रयास चले लेकिन कारवां बढ़ता रहा।

25 नवंबर 2020 को हरियाणा में किसानों पर बल प्रयोग हुआ, लेकिन किसान दिल्ली की ओर बढ़ते रहे। फोटो- अरेंजमेंट

किसानों का यह पहला आंदोलन, जिसे विदेशियों का भी ध्यान खींचा

पिछले सौ सालों में अंग्रेजी राज से लेकर आजादी के बाद जाने कितने आंदोलन हुए। बोट क्लब और लाल किले पर लाखों किसानों का जमावड़ा चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में नब्बे के दशक में देखा गया। तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली में नरमुंडों के साथ सबका ध्यान खींचा। कभी शरद जोशी ने गांव बंद आंदोलन चलाया तो कुछ किसान संगठनों ने फल सब्जियों औऱ दूध की आपूर्ति रोकी।

पंजाब और हरियाणा के किसानों ने तो कई बार रेल रोका आंदोलन किया। 2017 में मंदसौर में किसानो पर गोली कांड के बाद देश के कई हिस्सो में आंदोलन हुए। आजादी के पहले चंपारण से लेकर खेड़ा और बारदोली जैसे आंदोलनों ने अंग्रेजों को हिला दिया। लेकिन इस बार पूरी दुनिया के किसानों तक आंदोलन की गूंज पहुंची। इस लिहाज से इसे भारत का ऐसा किसान आंदोलन कहा जा सकता है जिसने दुनिया के किसानों को जोड़ने का काम किया।

यह सही है कि इस आंदोलन के सूत्रधार पंजाब के किसान संगठन हैं। कृषि अध्यादेशों का पहला बड़ा विरोध जून, 2020 में पंजाब के किसानों और भारतीय किसान यूनियन ने किया। सितंबर 2020 में इस विरोध में हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान गोलबंद हुए। नवंबर में किसानों ने दिल्ली कूच किया तो पहले भारत सरकार ने बहुत हलके में लिया था। फिर पंजाब के किसानों को भाजपा शासित हरियाणा में रास्ते में रोकने की योजना बनी जो विफल रही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और अन्य क्षेत्रों के किसानों के साथ भारतीय किसान यूनियन ने उत्तर प्रदेश की सीमा पर डेरा जमा लिया।

26 नवंबर 2020 से दिल्ली की सीमाओं से आरंभ हुआ यह आंदोलन तीन महीनों के भीतर राजस्थान के साथ उत्तराखंड के तराई के इलाकों से होते हुए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कई दूसरे इलाकों तक विस्तारित हो गया। अलग-अलग धाराओं और विचारों के साथ पुराने मतभेदों के बावजूद इस मुद्दे पर 41 किसान संगठन एकजुट हुए और तमाम तनाव के मौकों के बाद भी उन्होंने इसे बहुत व्यवस्थित तरीके से चलाया। सरकार भले किसानों की ताकत का आंकलन न कर पायी हो लेकिन किसान संगठनों ने सरकारी मंशा का आंकलन कर लिया था वे लंबे आंदोलन के लिए मानसिक तौर पर तैयार थे।

उत्तर प्रदेश और कई राज्यों के किसान जिस गाजीपुर सीमा पर बैठे हैं, वहीं दिल्ली का सबसे बड़ा गाजीपुर कूड़ाघर, मुर्गा और मछली मंडी है। सबसे अधिक चीलें और गिद्ध यहीं देखे जा सकते हैं। एनसीआर के लोग इसके पास से गुजरती सड़क से जाते हैं तो इतनी बदबू आती है कि नाक पर कपड़ा बांध लेते हैं। लेकिन किसान यहां छह महीने से बैठे रहे। अपने घर से दूर अच्छी से अच्छी जगह भी दो चार दिन ही अच्छी लगती है लेकिन किसान बैठे रहे।

22 मई 2021 को किसान संगठनों ने यह तय किया कि आंदोलन के छह माह पूरे होने पर देश भर में काला दिवस मनाया जाएगा। किसान अपने घरों,वाहनों पर काला झंडा फहरा कर अपने गांव के चौराहे पर तीनों कृषि कानून को वापस किये जाने व न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून बनाए जाने की मांग कर रहे हैं।

कोविड की दूसरी लहर चलने पर किसान को दिल्ली की सीमाओं से हटाने के प्रयास हुए। लेकिन किसानों ने इसे भांप लिया और खुद सेनेटाइजेशन की व्यवस्था के साथ आंदोलन स्थल पर 24 घंटे इमरजेंसी चिकित्सा सेवा के साथ सारे दिशानिर्देशों का पालन कर रहे हैं। किसानों के मुताबिक वो कोविड महामारी को देखते हुए आंदोलन स्थल पर सोशल डिस्टेंसिंग का भी पूरा ध्यान रख रहे हैं। उनको अंदाज है कि अगर थोड़ी कोताही हुई तो सरकार ऑपरेशन क्लीन के नाम पर उन पर दमन करेगी।

किसानों के बड़े नेता बनकर उभरे राकेश टिकैत। फोटो- अरेंजमेंट

सिसौली में होने वाली भारतीय किसान यूनियन की मासिक पंचायतें अब गाजीपुर में हो रही हैं और भाकियू अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत दल बल के साथ पहुंच हौंसला बढ़ाते हैं। हाल में उन्होंने कहा था कि किसान यहां आकर बैठा है और बैठा रहेगा। वे शहीद हो सकते हैं पर हटेंगे नहीं और सरकार से अपनी बात मनवा कर ही लौटेंगे।

पिछले छह महीनों के किसान आंदोलन में राकेश टिकैत एक बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं, जिनकी राष्ट्रीय हैसियत है। वहीं गुरनाम सिंह चढूनी औऱ बलवीर सिंह राजेवाल जैसे कई नेताओं की अपनी अलग साख और हैसियत बनी है। इस आंदोलन की यह बड़ी सफलता है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों की लड़ाइयां नेपथ्य में चली गयीं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी आंदोलन की बड़ी ताकत रहे मुसलमान किसान फिर से आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं। तमाम खापों के साथ विभिन्न संगठन भी इसे मदद कर रहे हैं।

विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गज भी इस आंदोलन के साथ हैं। महात्मा गांधी की पोती तारा गांधी भट्टाचार्य तक किसान आंदोलन को समर्थन देने पहुंची। धरने पर बैठे किसानों के लिए खाने पीने की सामग्री से लेकर जरूरी व्यवस्थाएं जन सहयोग से हो रही हैं। तमाम लेखक, पत्रकार, लोक गायक और कलाकार भी उनको सहयोग दे रहे हैं।

किसानों के जमावड़े में बौद्धिक तबके से लेकर पढ़े लिखे नौजवानों की भागीदारी है। इनके पास वैकल्पिक मीडिया भी है। तमाम दल इनके मुद्दों को समर्थन दे रहे है लेकिन आंदोलन का स्वरूप अराजनीतिक ही है। इस आंदोलन में तनाव के दौर भी आए। शिव कुमार शर्मा कक्काजी और गुरनाम सिंह चढ़ूनी के बीच वाकयुद्ध काफी गहरा गया लेकिन बीच बचाव से संकट दूर हो गया।

दमन से भी नहीं टूटा किसानों का हौसला

किसान आंदोलन पर सरकारी स्तर पर दमन की तमाम कोशिशें हुईं लेकिन आंदोलन चलता रहा। यहां तक कि किसानों को बदनाम करने के लिए आंदोलन स्थलों पर अवांछित तत्व पहुंचे लेकिन सुरक्षा का जिम्मा संभाले पूर्व सैनिकों ने इनको पकड़ कर उन्होंने पुलिस को भी सौंपा। हरियाणा मे कई जिलों में किसान आंदोलन को दबाने के लिए इंटरनेट सेवाओं को निलंबित कर दिया गया। गाजीपुर, सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर इंटरनेट पर रोक लगी।

गाजीपुर बॉर्डर पर गाजियाबाद को आने वाली एनएच-24 की सड़क इस नाते बंद कर दी गयी ताकि लोगों में किसानों के प्रति नाराजगी फैले जबकि किसान सड़क खोलने की मांग कर रहे थे। पंजाब के किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए हरियाणा में बैरिकेड लगे, सड़कें काटी गयीं, ठंड में पानी की बौछार की गयी और आंसू गैस के गोले फेंके गये। आंदोलन स्थलों की बिजली-पानी काट देना, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी गंभीर ख़तरों में धकेल देना, पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की घेरेबंदी में डालकर उन पर मानसिक दबाव डालना, पत्रकारों को रोकने जैसे प्रयास सरकारी स्तर पर चले। आंदोलनकारी किसानों और उनके नेताओं को डराने-धमकाने की घटनाएं कई राज्यों में चली लेकिन आंदोलन थमा नहीं।

इस आंदोलन में बड़ी संख्या में किसानों की शहादत के बाद भी सरकार ने संवेदना तक नहीं जतायी। संसद में किसानों की मौतों के कई सवाल उठे। लेकिन सरकार ने गोल मोल जवाब दिया और कहा कि दो लोगों की मौते हुई और एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। जबकि हकीकत में 22 जनवरी 2021 तक 147 किसानों की शहादत हुई थी।

राज्य सभा में जब सभापति ने जर्काता की हवाई दुघटना में 6 जनवरी 2021 को मारे गए 62 लोगों के प्रति श्रद्धांजलि दी तो विपक्ष ने किसानों की शहादत का मुद्दा उठाया। आंदोलन के मददगारों को पंजाब में आयकर और एनआईए नोटिस भेजने जैसी घटनाएं भी हुई लेकिन आंदोलन बेपटरी नहीं हुआ। संसद में सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया।

दुष्प्रचारों से भी नहीं रुका किसान आंदोलन का कारवां

पिछले छह महीनों के दौरान किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए भाजपा और संघ परिवार के संगठनों ने सभी स्तर पर प्रयास किया। यही नहीं केंद्र और राज्यों में मोदी सरकार के प्रभावशाली नेताओं और मंत्रियों ने किसानों को सार्वजनिक रूप से पाकिस्तानी, खालिस्तानी, माओवादी तक कहा। आंदोलन की धार कम करने के लिए अमीर किसानों और विदेश द्वारा प्रयोजित, शहरी नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग का आंदोलन कह कर इसके खिलाफ माहौल बनाया। आंदोलनकारियों की छवि को खराब करने के लिए सभी संभव प्रयास चला। बार बार यह कहा गया कि आंदोलनरत किसानों का यह छोटा समूह है जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए काम कर रहा है। फिर भी आंदोलन को आंच नहीं पहुंची।

इस आंदोलन के प्रति सरकारी रवैये की एक झलक आंदोलन के 22वें दिन किसानों के नाम कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की लिखी विस्तृत चिट्ठी दिखायी है। कृषि मंत्री ने लिखा है कि जिन लोगों ने 1962 के युद्ध में देश की विचारधारा का विरोध किया था वही किसानों को पर्दे के पीछे से गुमराह कर उसी दौर की भाषा बोल रहे हैं। कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी ने तो यहं तक कहा कि कांग्रेस किसानों के कंधे पर रखकर बंदूक चला रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद संसद में किसानों को आंदोलनजीवी और विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा से प्रेरित बता कर इसके प्रति अपनी मंशा जता दी। इसका विरोध करते हुए किसान संगठनो ने कहा कि प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में आंदोलनकारियों को अपमानित करते हुए विदेशी विध्वंशकारी विचारधारा से प्रेरित बताया है जबकि स्वयं प्रधानमंत्री, उनकी पार्टी और संघ परिवार विदेशी विध्वंसकारी फासीवादी विचारधारा के प्रतिनिधि हैं। इस आंदोलन को दबाने के लिए केंद्र सरकार ने व्यापक प्रचार अभियान चलाया। इस पर 7.95 करोड़ रुपये सितंबर 2020 और जनवरी 2021 के खर्च किए गए। विज्ञापनों पर 7,25,57,246 रुपये और दो फिल्मों पर 67,99,750 रुपये। इलेक्ट्रानिक मीडिया और इंटरनेट मीडिया पर सरकार ने खूब प्रचार-प्रसार भी किया। आईटी सेल ने 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली में हुए हंगामे के बहाने किसानों को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया पर काफी जोरदार अभियान चलाया किसानों ने इसका भी जोरदार मुकाबला किया।

26 जनवरी और किसान नेताओं का संयम

26 जनवरी, 2021 को लाल किले पर हुई हिंसा के लगा कि किसान आंदोलन अब बिखर गया। कई किसान घरों को लौटने लगे। दो किसान संगठनों ने अपना डेरा उखाड़ लिया। सरकार को भी लगा कि जनभावनाएं इस आंदोलन के खिलाफ हो गयी हैं लिहाजा भारी पुलिस बल के साथ उनको हटाने की तैयारी कर ली गयी। लेकिन राकेश टिकैत के आंसू और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की हुंकार के साथ रातों रात तस्वीर बदल गयी।

26 जनवरी, 2021 को लाल किले की घटनाओं को लेकर आक्रामक सरकारी अभियान में कुछ चुनिंदा चैनलों को भी शामिल कर माहौल बनाया गया। लेकिन दिल्ली हिंसा और अराजकता में शामिल चेहरों की पोल पट्टी खुलने से बाद में सरकारी पक्ष ही बेनकाब हुआ। लाल किला कांड के आरोपी दीप सिधु की कई सत्तारूढ़ नेताओं के साथ तस्वीरों ने सब कुछ उजागर कर दिया।

किसानों के उठाए मुद्दों पर आरएसएस वैसे तो मौन रहा। लेकिन लाल किले की घटना के बाद उसने किसानों के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश भय्याजी जोशी ने इस घटना को स्वाधीनता और अखंडता की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों का अपमान माना और कहा कि लोकतंत्र में ऐसी अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं है। हालांकि तब संघ को यह अंदाज नहीं था कि दीप सिधु भाजपा सांसद सन्नी देओल का दाहिना हाथ है इसका खुलासा हो जाएगा।

26 जनवरी की घटनाओं को लेकर सरकार ने राकेश टिकैत, मेधा पाटकर, योगेंद्र यादव, दर्शन पाल, राजिंदर सिंह, बलबीर सिंह राजेवाल, बूटा सिंह बुर्जगिल और जोगिंदर सिंह जैसे कई नेताओं को घेरने की रणनीति भी बनायी। लेकिन 27 जनवरी को व्यापक विस्तार मंथन के बाद संयुक्त किसान मोर्चा ने बहुत संयम के साथ अपनी बातों को देश के सामने रखा। मोर्चा ने जनता से दीप सिद्धू जैसे तत्वों का सामाजिक बहिष्कार की अपील की और राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान की कड़ी निंदा भी की। साथ ही यह भी कहा कि किसानों के राष्ट्रवाद को इस घटना के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है।

26 जनवरी 2021 को किसानों की ट्रैक्टर परेड अगर साजिश का शिकार न होती तो वैश्विक स्तर पर एक अनूठे विरोध प्रदर्शन का इतिहास बनता। इसे रोकने की सरकारी स्तर पर सभी संभव कोशिश की गयी। कहीं डीजल देने की मनाही रही तो कहीं पुलिस भेज कर रैली में आने से रोका गया।

नोट- अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार, ग्रामीण और संसदीय मामलों के जानकार है। ये उनके निजी विचार हैं।

किसान आंदोलन के 6 महीने लेख का अगला पार्ट- “सुप्रीम कोर्ट की कमेटी बनी, संसद के 2 सत्र बीते, चुनाव में नए समीकरण दिखे”

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