101 साल पहले जब किसानों के खून से लाल हो गई थी सई नदी, अवध की इस घटना को कहा जाता है छोटा जलियावांला बाग कांड

Arvind Kumar Singh | Jan 07, 2021, 09:01 IST
इतिहास: जमींदारों के खिलाफ अवध में आंदोलन की एक तारीख इतिहास में दर्ज हो गई है। 6 किसानों की हत्या के खिलाफ हजारों किसानों ने मुंशीगंज में एक तालुकेदार की हवेली को घेर लिया था लेकिन अंग्रेजों सेना ने गोलियों की बौछार कर दी। इस आँदोलन में कितने किसान मारे गए इसका अधिकारिक आंकड़ा नहीं जानकार बताते हैं कि सई नदी का वो किनारा किसानों के खून से लाल हो गया था। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का लेख
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कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में 14 महीने चला किसान आंदोलन इतिहास में दर्ज हो गया है। सर्दी, गर्मी बरसात सहकर आंदोलनकारी किसान जिस तरह डटे रहे वो दुनियाभर ने देखा। वैसे भी भारत में किसानों के आंदोलनों का अपना इतिहास रहा है। उत्तर प्रदेश के अवध के ऐतिहासिक मुंशीगंज किसान आंदोलन की शताब्दी 2021 में मनाई गई। ये एक ऐसा आंदोलन था, जिसने अंग्रेजों के चूलों को हिला दिया था। मुंसीगंज में जिस तरह से किसानों पर गोलिया चलवाई गई थीं इसे छोटा जलियांवाला बाग कहा गया। दिल्ली में आंदोलन की शुरुआत पंजाब के किसानों ने की, जिनके पुरखों ने भारत के स्वाधीनता संग्राम के सबसे क्रूरतम अध्याय जलियावांला बाग में शहादत देकर अंग्रेजी राज के खिलाफ पूरे देश को झकझोर दिया था। लेकिन अवध के किसानों का भी इस मायने में कमतर योगदान नहीं रहा।

अवध किसान आंदोलन के पहले 1917 में चंपारण फिर 1918 में खेड़ा के किसान जागरण ने देश को हिला दिया था। अवध के किसानों ने 1920 और 1921 में 1857 के बाद अंग्रेजों और उनको ताकत दे रहे तालुकेदारों के दंभ को चूर-चूर कर दिया था। दीन हीन कहे जाने वाले किसानों ने संगठित होकर देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा के विनाश का आधार भी तैयार किया।

किसानों का वो आंदोलन, जिसके बाद बदल गया था एक बड़ा कानून

इसी आंदोलन के चलते 1922 में सरकार ने भूमि संबंधी कानून में बदलाव कर किसानों की एक महत्वपूर्ण मांग पूरी की। पहले अवध में कोई किसान सात साल से अधिक समय तक अपने खेतों पर काबिज रहने का हकदार नहीं रहता था। जमींदार उसे बेदखल कर देता था। लेकिन इस आंदोलन के कारण किसानों की बेदखली नोटिसों को रोक दिया या। वैसे तो कानून में बदलाव के बाद भी दूसरे प्रकार की बेदखली मौजूद रही फिर भी किसानों की यह बड़ी जीत थी। बाद में संयुक्त प्रांत जमींदारी उन्मूलन समिति की रिपोर्ट में यहां की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा गया।

उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के रायबरेली जिले के मुंशीगंज में सई नदी के इसी पुल पर 7 जनवरी 1921 को अंग्रेजी सेना ने किसानों पर अंधाधुंध गोलियां चलवाई थीं। फोटो अरेंजमेंट

7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज में हुई किसानों की शहादत ने अवध ही नहीं पूरे देश को हिला कर रख दिया था। तालुकेदारो और अंग्रेजों ने वैसे तो इस आंदोलन और दमन को दबाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रयासों से यहां की जमीनी हकीकत का खुलासा हो सका। हालांकि विद्यार्थीजी को भारी आर्थिक और मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। लेकिन अनपढ़ किसानों को भी कलम की ताकत का अंदाज पहली बार हुआ। विद्यार्थी जी ने मुंशीगंज कांड को दूसरा जलियांवाला बाग कहा था।

वैसे तो मुंशीगंज में किसानों के आंदोलन की जमीन प्रतापगढ़ के किसान आंदोलन ने तैयार की थी। रायबरेली जिला भी उत्तर प्रदेश के सबसे अधिक सामंती अत्याचारों वाले जिलों में था। किसानों का संगठन तेजी से गांव-गांव फैलने लगा। किसानों की सभाओं में हिंदू, मुसलमान और पुरुष-स्त्री सभी शामिल हुए। सरकार और तालुकेदार इस जागरण से भयभीत थे। मुंशीगंज गोलीकांड के बाद रायबरेली में आंदोलन कुछ शिथिल पड़ गया लेकिन इसका अवध के कई जिलों में फैलाव हो गया।

मुंशीगंज का किसान जागरण किसानों पर हो रहे तालुकेदारों के जुल्म की ही देन थी। जितना जुल्म बढ़ा किसान संगठित होते गए। उनके बीच कोई गांधीजी जैसा नेता नहीं था, बल्कि अपने नायक थे। तालुकेदार चाहते तो स्थिति संभाल सकते थे लेकिन इनसे निपटने के लिए सरकार और तालुकेदार एकजुट हो गए। रायबरेली के कई इलाकों में नए साल का आरंभ ही किसान आक्रोश के साथ हुआ। कई घटनाएं हुएं जिसमें किसानों ने एकजुट होकर अपने मुद्दे रखे। 5 जनवरी 1921 को चंदहिया के तालुकेदार त्रिभुवन सिंह की कोठी को तीन हजार किसानों ने घेर कर अपनी ताकत दिखी दी। शांतिपूर्ण तरीके से वे अपनी बात रखने गए थे, लेकिन किसानों के नायकों बाबा जानकी दास, अमोल शर्मा और चंद्रपाल सिंह आदि को तालुकेदार ने जिलाधिकारी ए.जी.शेरिफ की मदद से गिरफ्तार करा दिया। इनको एक-एक साल की सजा दिला कर लखनऊ जेल भिजवा दिया।

6 किसानों की हत्या के बाद किसानों ने किया था बड़ा आंदोलन

किसानों में भय पैदा करने के लिए यह खबर उड़ा दी गयी कि किसान नेताओं को मार दिया गया है। इसी नाते 6 जनवरी 1921 को फुरसतगंज में किसानों का बड़ा जमावड़ा हुआ, जहां गोली चली और छह किसान शहीद हुए। तालुकेदार और अंग्रेज अफसर एक ही सिक्के के दो पहलू थे। उनको झूठी शिकायत दी गयी कि किसानों ने बाजार लूटा। कई औऱ अफवाहें फैलायी गयीं। इन कारणों से किसानों का गुस्सा और फैला और कई इलाकों से किसानों के जत्थे निकल पड़े। हजारों की भीड़ सई नदी के किनारे जुट गयी और मुंशीगंज पुल पर सेना पुलिस तैनात हो गयी जो उनको आगे बढ़ने नहीं दे रही थी। यहां पर अगर प्रशासन सूझ बूझ से काम लेता तो किसानों को जमीनी हकीकत बता कर शांत कर सकता था। लेकिन तालुकेदारों ने तो उनको समझा दिया था कि ये किसान उसी तरह रायबरेली जाकर अपने नेताओं को छुड़ाना चाहते हैं जो काम प्रतापगढ़ में पहले कर चुके हैं।

वहां मशीनगन थी, यहां बंदूकें थीं। वहां घिरा हुआ बाग था यहां नदी का किनारा था। लेकिन निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी। मरने वाले लोगों के लिए मुंशीगंज की गोलियां, क्रूरता उतनी ही जघन्य रूप धारण किए थी जितना अमृतसर में। पता नहीं डायर ने अपने हाथों से गोली चलायी थी या नहीं लेकिन यहां डायर का एक भाई मौजूद था। रंग और रूप से नहीं धर्म और जाति से नहीं लेकिन ह्रदय की क्रूरता में ठीक डायर ही था। दुर्भाग्य से यह आदमी भारतीय है, जिसका नाम वीरपाल सिंह है। किसानों का कहना था कि उसने सबसे अधिक गोलियां चलायी। वह इंकार करता है। लेकिन उसका यह इंकार हजारों आदमियों की आंखों में धूल नहीं झोंक सकता।" 13 जनवरी 1921 को प्रताप अखबार में गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस घटना का कुछ ऐसे उल्लेख किया
अधिकारी प्रतापगढ़ की पुनरावृत्ति रायबरेली में नहीं होने देना चाहते थे। वहीं किसान भी हर हालत से टकराने को तैयार थे। हालांकि उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू भी रायबरेली पहुंच गए थे और स्थिति संभालने में वे मददगार हो सकते थे लेकिन उनको घटनास्थल तक पहुंचने से रोकने के सारे संभव प्रयास हुए। उन्होंने लिखा है कि मैं जैसे ही नदी तक पहुंचा दूसरे किनारे से गोलियों की आवाज सुनाई दी। पुल पर ही मुझे फौज वालों ने रोक दिया। मैं वहां इंतजार कर ही रहा था कि एकाएक कितने ही किसानों ने मुझे आ घेरा जो घबराए हुए थे। कुछ ही कदम आगे एक छोटे नाले के उस पार उनके भाईयों पर गोली बरसना और चारों ओर फौज ही फौज दिखाई देना यह असाधारण स्थिति थी।

इस घटना पर लिखने वाले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी को चुकानी पड़ी थी बड़ी कीमत

प्रताप में गणेश शंकर विद्याथी ने इस घटना की तुलना जलियांवाला बाग से करते हुए 13 जनवरी 1921 को अपने अग्रलेख में लिखा- "वहां मशीनगन थी, यहां बंदूकें थीं। वहां घिरा हुआ बाग था यहां नदी का किनारा था। लेकिन निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी। मरने वाले लोगों के लिए मुंशीगंज की गोलियां, क्रूरता उतनी ही जघन्य रूप धारण किए थी जितना अमृतसर में। पता नहीं डायर ने अपने हाथों से गोली चलायी थी या नहीं लेकिन यहां डायर का एक भाई मौजूद था। रंग और रूप से नहीं धर्म और जाति से नहीं लेकिन ह्रदय की क्रूरता में ठीक डायर ही था। दुर्भाग्य से यह आदमी भारतीय है, जिसका नाम वीरपाल सिंह है। किसानों का कहना था कि उसने सबसे अधिक गोलियां चलायी। वह इंकार करता है। लेकिन उसका यह इंकार हजारों आदमियों की आंखों में धूल नहीं झोंक सकता।"

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किसानों की शहादत की निशानी। फोटो अरेंजमेंट

मुंशीगंज गोलीकांड को भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में वह महत्व नहीं मिल सका जो चाहिए था। फिर भी इस कांड की परदेदारी करने और किसान जागरण के विस्तार को रोकने में न अंग्रेज सफल हो सके न ही तालुकेदार। फिर भी मुंशीगंज में कितने किसान शहीद हुए इसका कोई आधिकारिक या विश्वसनीय आंकड़ा आज तक नहीं है। लेकिन बाते यहां तक उठती हैं कि इसमें 750 तक किसान मारे गए और 1500 घायल हुए। जाने कितनी लाशें डलमऊ में गंगा में फेंक दी गयी या गड्ढ़ो में दबा दी गयी। इतनी लाशें थीं कि उनको ढोने के लिए मुंशीगंज से तांगे वाले बुलाए गए और किसानों के खून से सई का पानी लाल हो गया था। हो सकता है कि ये आंकड़े अतिरंजना भरे हों लेकिन कम से कम सौ किसानों की शहादत पर एक मोटी सहमति बनती है, जो कोई छोटा आंकड़ा नहीं था। इस घटना के बाद पंडित मोतीलाल नेहरू और मदनमोहन मालवीय भी घटनास्थल पर गए और घायलों से बात कर जमीनी हकीकत जानी।

एक भारतीय तालुकेदार और एक अंग्रेजी डीएम- जिसने करवाया था किसानों का नरसंहार

दरअसल इस घटना को अंजाम देने में खुरेहटी के तालुकेदार वीरपाल सिंह और जिलाधिकारी ए.जी.शेरिफ की अहम भूमिका थी। वीरपाल सिंह ने ही इसका भंडाफोड़ करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी को मानहानि का नोटिस भेजा गया और मुकदमा चलाया। विदयार्थीजी के गुरू आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के आग्रह पर वृंदावनलाल वर्मा ने प्रताप की पैरवी की और 65 गवाह पेश कराए जिसमें महान नायक पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित मोतीलाल नेहरू और पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ विश्वंभरनाथ त्रिपाठी जैसे दिग्गज भी शामिल थे। इस मुकदमे में प्रताप की पराजय और भारी आर्थिक क्षति हुई लेकिन वे किसानों के हीरो बने। प्रशासन की ओर से इस घटना के बाद किसानों को आतंकित करने का सभी संभव प्रयास हुआ। रायबरेली और प्रतापगढ की जेलें भर गयीं। कई जिलों में राजद्रोहात्मक सभा अधिनियम लागू कर कई पंचों सरपंचों को जेल भेज दिया गया या मुचलका भरने को विवश किया गया।

अवध इलाके में 1857 की महान क्रांति के असली सूत्रधार किसान ही थे। इस क्रांति में शामिल राजाओं और जागीरदारों की जमीनें जब्त कर 1858 में अंग्रेजों ने नयी भूमि व्यवस्था लागू की। अंग्रेजों के मददगार रहे लोग नए तालुकेदार बने। बाद में तरह तरह के करों से किसानों की यातना का दौर चला। कई तालुकेदार किसानों से मालगुजारी से काफी अधिक लगान वसूलते थे। तालुकेदारों के पुत्र जन्म, उनकी शिक्षा, हाथी या दूसरी सवारी की खरीद से लेकर त्योहारों औऱ समारोहों तक के लिए कर लिया जाता था। दीन हीन किसान इन करों को भरने के लिए कर्ज के बोझ से दबते जा रहे थे।

पूरे उत्तर प्रदेश में यही दशा थी लेकिन अवध अत्याचारों का गढ़ था। तालुकेदार जब चाहते किसानों की बेदखली कर देते और अपमानित करते। तालुकेदारों से सताए किसानों की अंग्रेजी राज में कोई सुनवाई नहीं थी। किसान खून पसीना लगा कर फसलें पैदा करते, जिसका बड़ा हिस्सा दूसरे हथिया लेते थे। आमदनी का इतना हिस्सा नजराने में चला जाता कि अन्न पैदा करने वाले भूखे रहते। उनको लगान की रसीद भी नहीं दी जाती थी। यही सवाल थे जिसने प्रतापगढ के किसानों को बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में एकजुट किया था। बाद में रायबरेली और अवध के दूसरे इलाकों तक इसका असर पहुंचा।

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किसान नेता आमोल शर्मा, जिन्होंने बाबा रामचंद्र के साथ मिलकर इस किसान आंदोलन की अगुवाई की थी। फोटो अरेंजमेंट

इस घटना का असर राजनीतिक हलकों में भी हुआ। संयुक्त प्रांत राजनीतिक सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में बरेली में सभापति पद से बोलते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने अवध में किसानों की दयनीय दशा का खाका खींचते हुए रायबरेली में डिप्टी कलेक्टर रहे पंडित जनार्दन जोशी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें स्वीकार किया गया था कि वहां की एक रियासत में कागज में कुल लगान 77 हजार रुपए बनता था लेकिन तालुकेदार 9500 रुपए अधिक वसूली करता था। दूसरी रिसायत में 32 हजार की जगह किसानों से 45 हजार रुपए की वसूली होती थी। इस नाते हैरानी नहीं है कि इस सड़ी पद्धति के खिलाफ किसानों ने विद्रोह किया। आईसीएस कालसर का भी हवाला उन्होंने दिया कि एक रियासत में लगान की रकम 1700 थी लेकिन रियाया से 5700 रुपए वसूला जाता था। दर्ज लगान का डेढ़ गुना तक वसूला जाना असंतोष का बड़ा कारण था। यही नहीं भूसा वगैरह भी किसानों से लिया जाता था और कितना यह भी तय नहीं था। कोई तौल नियत नहीं थी। उन दिनों भूसे की कीमत बहुत बढ़ गयी थी लिहाजा किसानो को भूसा देना भी बहुत अखरता था।

17 अक्टूबर 1919 को अवध किसान सभा की स्थापना के बाद अवध में किसानों में जाग्रति का नया दौर आया। पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए यह संगठन एक पाठशाला थी जिसे बाबा रामचंद्र ने सहदेव सिंह और झींगुरी सिंह के सहयोग से खड़ा किया था। लेकिन मुंशीगंज में किसानों की शहादत अवध किसान आंदोलन की एक बहुत अहम कड़ी थी जिन पर नए सिरे से रोशनी डालने की जरूरत है। इस विषय पर काफी प्रामाणिक काम सुभाषचंद्र कुशवाहा ने अपनी पुस्तक अवध किसान विद्रोह 1920-22 में किया है।

इस आंदोलन के बाद सरकार को कई कदम उठाने पड़े औऱ तालुकेदारों को भी समझ में आ गया कि जगा किसान अब मनमानी नहीं होने देगा। बीते सौ सालों में भारत में कई किसान आंदोलन चले। इसमें महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य नरेंद्र देव और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन से लेकर स्वामी सहजानंद और प्रो. एनजी रंगा समेत कई वामदलों के नेताओं की भागीदारी रही। लेकिन अवध के किसानों का यह आंदोलन भारत के किसान आंदोलनों के इतिहास का एक अहम पड़ाव था।

लेख मूलरुप से 7 जनवरी 2021 को प्रकाशित किया गया था। लेखक अरविंद कुमार सिंह, देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं, ये उनके निजी विचार हैं।

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