भारत में शिक्षक को समाज में बड़े सम्मान से देखा जाता था और मुझे याद है 1970 तक शिक्षक कभी हड़ताल नहीं करते थे। आज वे शिकायत करते हैं कि समाज में उन्हें सम्मान नहीं मिलता, विद्यार्थी उनका अनादर करते हैं, क्लास में शोर करते हैं, चाक फेंकते हैं और ना जाने क्या क्या व्यवहार करते हैं। इसका कारण है कि आज के अनेक अध्यापक मोटा वेतन मिलने के बावजूद मजदूरों की तरह यूनियन बनाते हैं, हड़ताल करते हैं, कक्षाएं छोड़कर कोचिंग का व्यापार चलाते हैं इसलिए शिक्षक दिवस को शायद पहली मई को मजदूर दिवस के साथ मनाना चाहिए। अन्यथा अध्यापकों की सभी यूनियनें समाप्त होनी चाहिए और श्रमजीवियों वाला ”कलेक्टिव बार्गेनिंग” का सिद्धान्त बुद्धिजीवियों पर लागू नहीं होना चाहिए। हमें अपने अतीत से इन मामलों में कुछ सीखने की जरूरत है ।
शिक्षक दिवस 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष मनाया जाता है जिस दिन डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। वह उच्चकोटि के दर्शनशास्त्री और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के कुलपति रहे थे। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षा के क्षेत्र में योगदान तो किया ही जब देश के राष्ट्रपति बने तो सरकार और देश का मार्गदर्शन भी किया। उनका जन्मदिन मनाने वाले शिक्षक क्या उनके आदर्श का एक अंश भी अपने जीवन में उतारते हैं।
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आजकल देश में दो प्रकार के अध्यापक और विद्यालय हैं, उच्च वेतन पर काम कर रहे सरकारी अध्यापक और मामूली वेतन पर कार्यरत प्राइवेट अध्यापक। सरकारी स्कूलों की हालत यह है कि गांव का गरीब भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की सुविधाएं छोड़कर, फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहता है। मोटा वेतन लेकर सरकारी स्कूलों में काम कर रहे मास्टरों के मुंह पर यह तमाचा है। शायद यही हाल देखकर उत्तर प्रदेश के माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद ने आदेश पारित किया था कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ने भेजें। लेकिन जब एक गरीब अपने बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को फेल कर रहा है तो भला अधिकारी कैसे अपने बच्चे भेजेगा। आवश्यकता है पूरी संख्या में अच्छे अध्यापकों की जो, नहीं हैं वहां।
स्कूल- कॉलेजों से आगामी वर्ष कितने अध्यापक रिटायर होंगे और कितने नए स्कूल खुलेंगे और भविष्य में किस विषय के कितने शिक्षक चाहिए होंगे इस पर पहले से चिन्तन होना चाहिए। अध्यापकों की नियुक्ति में पारदर्शिता होनी चाहिए और यदि कम्प्यूटर, विज्ञान और गणित के अध्यापक नहीं मिल पाते तो खानापूरी नहीं होनी चाहिए।
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प्राथमिक शिक्षा में अध्यापकों की नियुक्ति के लिए पारदर्शी चयन बोर्ड कम ही होते है फिर भी नियुक्तियां कैसे होती हैं यह शिक्षा विभाग के अधिकारियों को पता होगा। अध्यापकों की सेवा शर्तों में होना चाहिए कि हड़ताल करने पर सेवाएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी। अध्यापकों की देखादेखी शिक्षा मित्र भी लामबन्द होकर हड़ताल करने लगे हैं। अध्यापकों की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए हो और उसके बाद नवीकरण के लिए बाहरी एजेंसी से परीक्षा ली जाए। सच यह है कि अनेक अध्यापक स्वयं ठीक प्रकार हिन्दी अंग्रेजी नहीं लिख पाते।
अब शिक्षा का लक्ष्य है नौकरी पाने की सम्भावना बढ़ाना। अध्यापक यह दायित्च निभाता था कि उसके बच्चों में क्या बनने की प्रतिभा है और उस प्रतिभा के विकास के लिए क्या किया जा सकता है। अंग्रेजो के जमाने में मैकाले को पता था वह क्लर्क पैदा करना चाहता था। अब यह मार्गदर्शन कौन करेगा। छात्रों को पढ़ाई के साथ खेलना भी जरूरी है लेकिन स्कूलों में खेलने की जगह और क्रीड़ा अध्यापक ही नहीं हैं। खेल के मैदान भी मिटा दिए गए। आधुनिक युग में टीवी, रेडियो, अखबार के माध्यम से अध्यापकों और छात्रों को दिशा मिल सकती है लेकिन इनकी कोई व्यवस्था देखने में नहीं आती।
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उच्च शिक्षा में छात्र और अध्यापकों के साथ ही प्रधानाचार्यों और कुलपतियों की बडी भूमिका है। उनका नैतिक बल संस्था की शक्ति होता है फिर चाहें हड़तालों पर जाने से हतोत्साहित करने की बात हो या छात्रों और अध्यापकों को अन्य दिशा निर्देश। लेकिन आजकल अच्छे बुद्धिजीवी कुलपति बनना ही नहीं चाहते। वही लोग कुलपति बनते हैं जिनकी राजनैतिक पहुंच होती है। आज के अध्यापक, प्रधानाध्यापक और कुलपति भी डाक्टर राधाकृष्णन, पंडित मदन मोहन मालवीय, डाक्टर सम्पूर्णानन्द आशुतोष मुखर्जी के आदर्शों का बखान करके उनके चित्र अपने कमरों में लगा सकते हैं।