“कोठिलवा और आगे है क्या?,” बांके बाज़ार ब्लॉक के लुटूआ पंचायत में तकरीबन दस किलोमीटर अंदर आने के बाद मैंने एक महिला से पूछा। उनका नाम लखमनिया देवी है।
“इहे है कोठिलवा। आपको कैन्ने जाय ला है? (यही है कोठिलवा। आपको किधर जाना है?),” लखमनिया ने अपने माथे से लकड़ी के गठ्ठर को दोनों हाथों से संभालते हुए कहा।
“सुने हैं कि यहां कोई लौंगी मांझी नहर खोद दिए हैं? किधर पड़ेगा उनका घर?”
लखमनिया पगडंडीनुमा सड़क की बाईं तरफ झांकते हुए कहती हैं, “उहां देखिए लौंगिया बइठल है।”
“ऐ लौंगी, तोरे से मिले अइलथुन हे। आव एन्ने (लौंगी, ये तुमसे मिलने आए हैं। इधर आओ),” कहते हुए लखमनिया आगे बढ़ गई।
खाली बदन, कंधे के बाईं तरफ तौलिया चढ़ाए लौंगी मांझी तेज़ कदमों से मेरी तरफ बढ़ते हैं। लौंगी को मालूम है कि कोठिलवा आने वाले लौंगी से क्यों मिलना चाहते हैं। “हाकिम, नहर देखबहूं? (हुज़ूर, नहर देखेंगे क्या?),” लौंगी पूछते हैं। मेरे “हां” करने के बाद वह मुझे एक मिनट इंतज़ार करने को कहते हैं। भागकर अपने घर जाते हैं। खाली बदन पर टी-शर्ट डालकर आते हैं। “चलअ, हाकिम। कुछ दूर चले पड़तौ (चलिए हुज़ूर, कुछ दूर चलना पड़ेगा),” लौंगी कहते हैं।
मैंने उनसे स्कूटर पर बैठने का आग्रह किया। लौंगी हिचकिचाते हुए स्कूटर पर बैठते हैं। धीमी आवाज़ में कहते हैं, “इहो जनमगधा कट गेलो, हाकिम (अब ये भी अनुभव कर लिया हुज़ूर।)” लौंगी के लिए दुपहिया पर बैठना उनके जीवन के चंद ख़ास अनुभवों में से एक था। पिछली दफ़ा वह करीब दस-ग्यारह साल पहले हार्निया के इलाज़ के लिए बांके-बाज़ार और गया गए थे। लौंगी अपनी उम्र 60 और 70 के बीच बताते हैं। उन्हें अपने जन्म का साल याद नहीं है।
लौंगी के घर से करीब सौ मीटर आगे एक तालाब दिखता है। गांव के लोगों ने इसका नाम लौंगी के नाम पर रख दिया है। यह ‘लौंगी बांध’ है। तटबंध के दोनों ओर तालाब है। चूंकि यह जगह नीचे थी इसीलिए लौंगी बताते हैं कि यहां नहर के पानी को उन्होंने रोक दिया है। पानी रोकने को गांव के लोग पानी बांधना कहते हैं। लौंगी की योजना दाईं तरफ के जल प्रपात में मछली पालन करने की है। फिलहाल गांव के लोग तालाब के पानी में नहाते हैं। महिलाएं घर के काम-काज़ के लिए पानी ले जाती हैं। गाय और भैंसे नहलाई जाती हैं। लौंगी तालाब को प्रदूषित नहीं करना चाहते। इसलिए उन्होंने गांव के लोगों को तालाब में कपड़े धोने से मना किया है।
अपने ज़ुनून से लगातार 30 वर्षों तक जंगल, पहाड़ और मिट्टी काटकर बनाए नहर के बारे में बताते हुए लौंगी की आंखों में चमक दिखती है। उनके बातों में उत्साह की झलक है। उन्हें यह बेहद आकर्षक लग रहा है कि मीडिया के लोग और सरकारी अधिकारी कोठिलवा आकर उनके और नहर के बारे में पूछते हैं। उनकी तस्वीरें खींचते हैं।
बांके बाज़ार के कोठिलवा की पहचान अबतक एक नक्सल प्रभावित क्षेत्र की रही है। जंगलों में पुलिस के कैंप लगते हैं। नक्सलियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ की खबरें अक्सर अखबारों में छपती हैं।
नहर खोदने की शुरुआत कैसे हुई?
बांके बाज़ार का लुटूआ पंचायत नक्सल प्रभावित क्षेत्र है। लुटूआ पंचायत से भी दस किलोमीटर अंदर है कोठिलवा गांव। यह एक दो सौ परिवारों का छोटा गांव है। करीब 130 घर मुसहरों के हैं, बाकी 70 घर ‘भोगता’ जाति के। दोनों ही जातियां अनुसूचित जातियां हैं। बिहार में इन्हें महादलित जाति कहते हैं, जहां आज भी शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक हालात बेहतर नहीं हुए हैं।
कोठिलवा के लोगों का जीविका का मुख्य साधन खेती और मज़दूरी है। मक्के, चने और रहड़ की खेती होती है। भोगताओं के पास कुछ ज़मीनें हैं, वहीं ज्यादातर मुसहर भूमिहीन हैं। वे ईंट-भट्ठों और दूसरे के ज़मीनों पर मजदूरी करते हैं। बांके बाज़ार और गया में मिस्त्री का काम करते हैं। जंगलों से सूखी लकड़ियां काटकर शहर में बेचकर अपना जीवनयापन करते हैं। अपनी जवानी में लौंगी मांझी भी मज़दूरी करते थे, सूखी लकड़ियां बेचा करते। गांव के ज्यादातर जवान मर्दों को काम की तलाश में गांव छोड़कर पलायन करना पड़ता था।
एक ऐसे ही साल गांव के लोग काम की तलाश में बाहर चले गए। लौंगी मक्के की खेत में काम करते थे। उस वर्ष भीषण गर्मी और सूखे की वजह से फसलें खराब हो गई थी। लिहाजा लौंगी को मज़दूरी नहीं मिली। लौंगी को कोठिलवा से लोगों का पलायन करना कभी अच्छा नहीं लगता था। उन्हें हमेशा लगा करता कि ये लोग (पलायन करने वाले) समस्या का समाधान करने के बजाय उससे भागते हैं। लौंगी ने तब अपने कई हमउम्रों को समझाने की कोशिश की।
“समझावा हलीं हाकिम सबके कि देखे न रे बौड़हवन खाली तोरा बंगेठा से पानी खींचेला हऊ। फेन धानों लगइहें, मजूरियो मिल तौ। सहर भागेला कौनो उपाय हऔ। त काहे ला कोई हम्मर बात सुनतो हल। सबके लगलौ कि लौंगिया बौरा गेलो हे। (हम सबको समझाते थे हुज़ूर कि देखो सिर्फ़ बंगेठा पहाड़ी से पानी गांव तक लाना है। फिर गांव में धान की खेती भी होगी और मज़दूरी भी मिलेगी। शहर भागना कोई उपाय नहीं है। तब कोई मेरी बात नहीं समझ सका। सबको लगा कि लौंगी मांझी पागल हो गया है),” चेहरे पर मुस्कान लिए लौंगी ने गांव कनेक्शन से बातचीत में कहा।
गांव के लोगों को समझाने में नाकाम रहे लौंगी ने निश्चय किया कि वह गांव में पानी लाकर ही दम लेंगे। एक कुल्हाड़ी से उन्होंने खुदाई और कटाई शुरू कर दी। “सुरू त कर देलिओ मगर डरो लगौ कि हाय रे बाप करियो पईबै कि ना। बंगेठा देखित मने-मन कहअ हलिऔ, उतार देबौ तोरा। तोर टक्कर लौंगिया से होलौ हे। अप्पन डर मिटावे ला कह हलिओ। लग हलौ कर देमहीं रे लौंगिया? (शुरू तो कर दिए मगर डर लगता था कि हमसे अकेले हो पाएगा या नहीं। बंगेठा को देखते हुए मन में कहते थे कि पानी तो उतार ही देंगे। तुम्हारा टक्कर लौंगी से हुआ है। ये हम अपना डर मिटाने के लिए कहते थे। लेकिन खुद से ही पूछते थे- कर दोगे लौंगी?),” चुहल करते हुए लौंगी बताते हैं। बंगेठा पहाड़ी पर बारिश का जमा पानी लौंगी को हिम्मत दिया करता था।
लौंगी कहते हैं कि उनके पास कोई काग़ज़ी नक्शा नहीं था। रोज़ बंगेठा जाया करते और अपने दिमाग में छवि बनाया करते कि पानी कैसे और किधर से घूमाकर कोठिलवा पहुंचाया जाए। नहर के रास्ते में उन्हें जंगल काटना पड़ा, पत्थर काटना पड़ा ,मिट्टी काटनी पड़ी।
परिवार ने बंद कर दिया था लौंगी का खाना
लौंगी मांझी की मां अब बोलने की हालत में नहीं है पर अपने हाथ को ऊंचा कर बेटे को शाबाशी देती हैं। पत्नी रमरतिया देवी को अब लगता है कि उनके पति ने कुछ बड़ा काम कर दिया है। एक वक्त था लौंगी के परिवार ने उन्हें खाना देना बंद कर दिया था।
“एत बड़ गौ के परिवार हलई, ई कमासूत आदमी हलई। परिवार में के जी रहलौ हे, के मर गेलो केकरो से मतलबे नहीं हइ। त के देतई खाय ला? हमनी तनी भौख लिइए हे ऐकरा पीछे। बौराही छोड़े औ घर-परिवार देखे (हमारा परिवार बड़ा था। लौंगी घर का कमाने वाला आदमी था। परिवार की क्या जरूरतें हैं, इससे लौंगी को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था। ऐसे में कौन देगा खाना? हमलोग समझाते थे कि ये पागलपन छोड़ो और घर को संभालो,” रमरतिया देवी कहती हैं।
अपनी पत्नी की बात सुनकर लौंगी ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं। “गउऔं के लोगवन हमरा पगला बुझअ हलौ। सब कहतौ हल, लौंगिया पगलाइल हौ। अक्केला वेक्त से अहरा खोदा हई (गांव के लोग भी मुझे पागल समझते थे। सब कहते कि लौंगी पागल हो गया है। अकेले आदमी से कहीं नहर खुदाता है?),” लौंगी कहते हैं।
रमरतिया लौंगी के काम से खुश ज़रूर हैं। लेकिन लौंगी के ज़ुनून में परिवार ने जो दिक्कतें झेली हैं, वह उनसे नहीं भूलता। “हम्मर लइकन बुतरू सब पेट धरके सुत हलौ। एक-एक दाना लगी मोहताज़ हलिओ। भूंजा फांक-फांक के दिन काटे हलिओ। कइसे भूला जइबई उ दिनवा (मेरे बच्चे खाली पेट सोते थे। अनाज़ के लिए परिवार तरसता था। भूंजा खाकर दिन काटने पड़ते थे। कैसे भूल जाएंगें वह दिन?,” याद करते हुए रमरतिया की आंखें डबडबा जाती हैं।
लौंगी के पास रमरतिया की दुखों का कोई जबाव नहीं है। वह कहते हैं, “तनी दिन त लकड़ियो बेचअ हलिऔ औ साम-रात लगी मट्टी काटे हलिओ। फेन समझ आ गेलो कि अइसे करबौ त हम्मर जीत्ते त कोठिलवा में पानिये नै उतरतौ। ऐहे से हम मट्टी काटे में लग गेलियो (पहले कुछ दिनों तक जंगल की सूखी लकड़ियां बेचकर घर में मदद करता था और शाम-रात में मिट्टी काटने का काम करता था। फिर समझ आ गया कि अगर इस तरह के काम करेंगे तो मेरे जीते-जी कोठिलवा में पानी नहीं आ सकेगा। इसलिए हम पूरा समय मिट्टी काटने में ही लगाने लगे),” लौंगी ने कहा।
गहलौर के पहाड़ काटने वाले दशरथ मांझी से अपनी तुलना पर लौंगी हंसते हैं। कहते हैं, “हम ओकरा से कब्बौ मिललिए नाहीं हे हाकिम। खाली ओकर नामबे न सुनअलिए हे। उ अप्पन ओन्ने पहाड़ काटित होतई, हम अप्पन ऐन्ने पइन काटित हलिएई। सगरो हमरा से पूछे हई दशरथ मांझी-दशरथ मांझी, हमहूं कह देबे हिए हां हियो दूस्सर दशरथ मांझी। केकरा-केकरा समझइबई हाकिम (हम कभी दशरथ मांझी से नहीं मिले। सिर्फ उनका नाम सुने हैं। जब वह एक तरफ पहाड़ काट रहे होंगे, हम इधर पइन काट करे होंगे। आज सब लोग हमको दूसरा दशरथ मांझी कहते हैं। हम भी कह देते हैं, हां, हैं हम दूसरा दशरथ मांझी। किस-किस को ये समझाते रहे अब ये),” माथे पर गमछा बांधते हुए लौंगी कहते हैं।
लौंगी मांझी के चार बेटों में सबसे बड़े ब्रह्मदेव मांझी ने अपने पिता की सनक देखी और झेली है। वह बताते हैं, “हमनी के बात नै सुनता था बाबूजी। हमनी कहते थे कि तू काहेला इ कर रहा है रे बौरहवा। ऐकरा से कुच्छो पइसा मिलेगा। त इ हमनी के कहता था कि तोहनी के कुच्छो बुझाता है। देखना हमारा मदद एक दिन सरकार करेगा (बाबूजी हमलोगों की बात नहीं सुनते थे। हम लोग कहते थे कि आप ये काम क्यों कर रहे हैं। इसमें कोई पैसा थोड़े मिलेगा। बाबूजी हम लोगों से कहते थे कि हम लोगों को कुछ नहीं समझ आता है। एक दिन देखना सरकार हमारी मदद करेगी),” ब्रह्मदेव कहते हैं।
परिवार को उम्मीद है कि लौंगी के अद्भुत कार्य से सरकार से परिवार को मदद मिलेगी। उनकी गरीबी दूर होगी। हालांकि लौंगी की मांग है कि उनके लिए तत्काल एक ट्रैक्टर की व्यवस्था की जाए। ट्रैक्टर की मदद से पइन को थोड़ा और गहरा और चौड़ा करने में सहूलियत मिलेगी। “रूपयो-पइसबा मिलतैइ त अच्छे हई। एगो पहिले टैक्टर मिलतई त जै भी बचल-खुचल कमवा हई उहौ करिए देबई (पैसे मिलेगा तो अच्छा ही रहेगा। लेकिन पहले एक ट्रैक्टर मिलना चाहिए। कुछ काम बाकी है, उसे पूरा करने में बहुत मदद हो जाएगी),” लौंगी मांझी कहते हैं।
“अभियो बुढ़वा एगौ पक्का के मकान नै मांग रहिलौ हे। हाय रे बुढ़ऊ। रूपया पंइचा मांगें न बुढ़ऊ! (अभी भी यह बूढ़ा आदमी पक्का मकान नहीं मांग रहा है। कैसा आदमी है ये। रूपया पैसा भी मांगिए सरकार से),” लौंगी की दूसरी बहू सुनैना देवी ताना मारती हैं।
नाकामी को छिपाने की कोशिश करता प्रशासन
बिहार की सबसे बड़ी त्रासदी रही है कि राज्य का उत्तरी भाग बाढ़ की वीभिषिका झेलता है, जबकि दक्षिणी भाग सूखे से जूझता है। सरकार के आंकड़ों के हिसाब से गया सूखाग्रस्त जिलों में शामिल किया जाता रहा है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए सरकार के पास कई तरह की योजनाएं हैं। मसलन- नल जल योजना, जल-जंगल-हरियाली योजना। नल जल योजना के तहत तो प्रति दिन प्रति व्यक्ति 70 लीटर पानी उपलब्ध कराया जाना है। बावजूद इसके कोठिलवा में पानी के नाम पर चापाकल ही सहारा है। गांव के लोग बताते हैं कि गर्मी के दिनों में चापाकल भी फेल हो जाता है।
कोठिलवा के मुखिया विशुनपद भोगता से जब हमने इस बाबत गांव कनेक्शन ने सवाल पूछा तो उन्होंने नक्सल प्रभावित क्षेत्र की चुनौतियों का हवाला दिया। “नक्सल प्रभावित कोठिलवा में सरकारी योजनाएं पहुंचाना एक चुनौती है। यहां हर एक चीज़ में नक्सलियों का कट बंधा हुआ है। जल्दी कोई ठेकेदार काम करना नहीं चाहता है कोठिलवा में। नक्सली उनसे लेवी लेते हैं। जो लेवी देने से मना करता है उनकी गाड़ियां जला दी जाती हैं। मारपीट होता है। उनके जान तक को खतरा होता है,” विशुनपद भोगता ने गांव कनेक्शन को बताया।
विशुनपद बताते हैं कि उन्होंने अपने खाते से लौंगी मांझी को चालीस बोरा सीमेंट देकर मदद की है। इस सीमेंट से नहर को पक्का करने में मदद मिलेगी।
बांके बाज़ार के बीडीओ सोनू कुमार भी बाकियों की तरह लौंगी मांझी की प्रशंसा कर रहे हैं। “लौंगी जी ने सराहनीय कार्य किया है। वह देश के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अगर कोई आदमी कुछ ठान ले तो क्या कुछ संभव नहीं हो सकता,” बीडीओ सोनू कुमार कहते हैं।
बिहार के शिक्षा विभाग में प्रमुख सचिव और राज्य के प्रमुख अधिकारियों में से एक संजय कुमार ने भी ट्वीट कर लौंगी मांझी की कहानी को प्रेरणादायी बताया है। हालांकि कोई भी अधिकारी या नेता यह बताने में सकुचा रहा है कि जब लौंगी ये कर रहे थे, तो बिहार प्रशासन क्या कर रहा था? लोग प्रशासन के एक बड़े नाकामी को छिपाते हुए इसकी वाहवाही कर रहे हैं।
an inspiring story.laungi bhuiyan carved out a 3 km long canal to take rainwater coming down from nearby hills to fields in his village. it has taken him 30 years to accomplish this near impossible task.another #dasrarthmanjhi .#indomitablespirit https://t.co/sREnRdAYO2
— Sanjay Kumar (@sanjayjavin) September 14, 2020
गांव कनेक्शन ने जब बीडीओ ने यह पूछा, “अगर लौंगी मांझी के ठान लेने से 30 साल में 3 किलोमीटर लंबी नहर बन गई तो प्रशासन के ठान लेने से कोठिलवा में पानी पहुंच ही सकता था?” जवाब में बांके बाज़ार के बीडीओ ने प्रशासन की नाकामी की जिम्मेदारी कोठिलवा के नक्सल प्रभावित होने पर टाल दी। वह बताने लगे कि उनकी पोस्टिंग आज से दो साल पहले हुई है।
जिला प्रशासन कह रहा है कि लौंगी मांझी का गांव नक्सल प्रभावित है। एक ऐसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कोई शख्स तीस साल से मिट्टी काट रहा है तो क्या प्रशासन को ज़रा भी शक नहीं हुआ? क्या प्रशासन इसे सुरक्षा की दृष्टि से अहम नहीं मानता? “चूंकि काम की गति इतनी धीमी थी कि किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया। इस साल पहली बार नहर में पानी आ गया है तब हम लोगों का ध्यान गया,” बीडीओ ने कहा।
बीडीओ के अनुसार गया के जिलाधिकारी अभिषेक सिंह ने लघु सिंचाई विभाग की एक टीम का गठन किया है। उन्होंने कहा, “अभी जो अहर-पइन लौंगी मांझी ने बनाया है, वह पारंपरिक तरीके से बनाया गया है। हमारी टीम पइन का अध्ययन करके इसे तकनीकी रूप से सुचारु बनाने की दिशा में काम करेगी। इसमें लौंगी मांझी द्वारा बनाए तालाब की जल संचयन क्षमता को बढ़ाया जाएगा।”
फिलहाल लौंगी के परिवार को यही उम्मीद है कि तीस सालों की मेहनत कोठिलवा और उनके परिवार की किस्मत शायद बदल दे!
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