क्या MSP बढ़ने से किसानों को फसल की अच्छी कीमत मिलती है? सरल शब्दों में समझिए क्या है गणित

सरकार किसानों के हित के लिए लगातार कोशिश कर रही है; कई योजनाएँ शुरू की गई हैं और अब MSP पर भी गंभीरता से विचार हो रहा है। इस रिपोर्ट में जानेंगे किसानों को एमएसपी से कितना हो रहा है फायदा और कैसे तय की जाती है फसल खरीद की कीमत।
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एमएसपी से जुड़े नुकसान और मुनाफ़े को समझने से पहले थोड़ा इसके इतिहास पर नज़र डाल लेते हैं।

आज़ादी के बाद से ही देश के किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। किसानों को उनकी मेहनत और लागत के बदले फसल की कीमत बहुत कम मिल रही थी। कृषि जिंसों की खरीद-बिक्री राज्यों के अनुसार ही हो रही थी। जब अनाज कम पैदा होता तो कीमतें खूब बढ़ जाती , ज़्यादा होता तो गिरावट।

इसमें सुधार के लिए साल 1957 में केंद्र सरकार ने खाद्य-अन्न जाँच समिति का गठन किया। इस समिति ने कई सुझाव दिए। उससे फायदा नहीं हुआ। तब सरकार ने अनाजों की कीमत तय करने के बारे में सोचा। इसके लिए 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य और कृषि मंत्रालय (अब ये दोनों मंत्रालय अलग-अलग काम करते हैं) ने खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया।

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का मत था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि उनका नुकसान ना हो। तब देश के कृषि मंत्री थे चिदंबरम सुब्रमण्यम।

खाद्य-अनाज मूल्य समिति में एलके झा के साथ टीपी सिंह (सदस्यए योजना आयोग), बीएन आधारकर (आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव, वित्त मंत्रालय), एमएल दंतवाला (आर्थिक कार्य विभाग ) और एससी चौधरी (आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) भी शामिल थे। डॉ बीवी दूतिया (उप आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) को इस कमिटी का सचिव नियुक्त किया गया। कमिटी ने 24 दिसंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 24 दिसंबर 1964 को इस पर मुहर लगा दी, लेकिन कितनी फसलों को इसके दायरे में लाया जायेगा, यह तय होना अभी बाकी था।

पहली बार गेहूँ और धान का ऐसे तय हुआ एमएसपी

साल 1965 में 19 अक्टूबर को भारत सरकार के तत्कालीन सचिव बी शिवरामन ने कमिटी के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगाई। इसके बाद साल 1966-67 में पहली बार गेहूँ और धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया। कीमत तय करने के लिए केंद्र सरकार ने कृषि मूल्य आयोग का गठन किया जिसका नाम 1985 में बदलकर कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP सीएसीपी) हो गया। मतलब कुल मिलाकर किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू की गई।

अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके। किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इसके तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है।

कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय की जाती है। एलके झा की कमिटी की सिफारिश पर ही 1965 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) का गठन किया गया। सरकार किसानों से खरीदा अनाज एफसीआई और नाफेड (National Agricultural Cooperative Marketing Federation of India) के पास भंडार करती है जहाँ से अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों को वितरित किया जाता है।

कीमत तय कैसे होती है?

साल 2009 से कृषि लागत और मूल्य आयोग एमएसपी के निर्धारण में लागत, माँग, आपूर्ति की स्थिति, मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, अलग-अलग लागत और अंतरराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों के आधार पर किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है। कृषि मंत्रालय यह भी कहता है कि खेती के उत्पादन लागत के निर्धारण में नकदी खर्च ही नहीं बल्कि खेत और परिवार के श्रम का खर्च (बाजार के अनुसार) भी शामिल होता है, मतलब खेतिहर मजदूरी दर की लागत का ख्याल भी एमएसपी तय करते समय रखा जाता है।

एमएसपी का आकलन करने के लिए सीएसीपी खेती की लागत को तीन भागों में बांटता है। ए2, ए2+एफएल और सी2।

ए2 में फसल उत्पादन के लिए किसानों द्वारा किए गए सभी तरह के नकदी खर्च जैसे- बीज, खाद, ईंधन और सिंचाई आदि की लागत शामिल होती है, जबकि ए2+एफएल में नकद खर्च के साथ पारिवारि श्रम यानी फसल उत्पादन लागत में किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है।

वहीं सी2 में खेती के व्यवसायिक मॉडल को अपनाया जाता है। इसमें कुल नकद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रामिक के अलावा खेत की ज़मीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है।

फरवरी 2018 में केंद्र सरकार की ओर से बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अब किसानों को उनकी फसल का जो दाम मिलेगा वह उनकी लागत का कम से कम डेढ़ गुना ज़्यादा होगा। सीएसीपी की रिपोर्ट देखेंगे तो पता चलता है कि अभी फसल की लागत पर जो एमएसपी तय किया जा रहा है वह ए2+एफएल है।

वर्ष 2004 में प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में राष्ट्रीय किसान आयोग के नाम से जो कमेटी बनी थी उसने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। रिपोर्ट में किसानों को सी2 लागत पर फसल की कीमत देने की वकालत की गई थी, जबकि ऐसा हो नहीं रहा।

किसानों को एमएसपी से कितना फायदा हो रहा है ?

भले ही इस नीति को किसानों को फायदे के लिए लागू किया गया हो, लेकिन इससे किसानों को फायदा हो रहा है कि नहीं, यह जानना भी ज़रूरी है।

सरकार की घोषित दरों के अनुसार देश में इस समय मक्के की न्यूनतम कीमत होनी चाहिए 1850 रुपए प्रति कुंतल, लेकिन किसानों को मिल कितना रहा है, इसे हम किसान सतीश राय से समझते हैं। सतीश मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में रहते हैं और इन्होंने कम कीमत को लेकर अभी सत्याग्रह भी किया था। वे गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “सरकार ने मक्का एमएसपी 1850 रुपए घोषित की है, जबकि मध्य प्रदेश की मंडियों में मक्का 900 रुपए से लेकर 1000 रुपए कुंतल तक है, किसानों को प्रति कुंतल 900 से 1000 रुपए तक घाटा हो रहा है। इसलिए मजबूरी में हम लोगों को ये आंदोलन (किसान सत्याग्रह) करना पड़ा।”

फसलों की कीमत और लागत तय करने वाली कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की रिपोर्ट की बात करें तो देश के प्रति कुंतल मक्के की खेती में लागत 1,213 रुपए आती है। इसका मतलब यह हुआ कि एमएसपी तो छोड़िए, जो सरकार की बताई लागत है, किसानों को उस पर 200-300 रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है, मुनाफे की तो बात ही छोड़िए।

सतीश राय भी यही कहते हैं, “सरकार के ही आंकड़ों पर चलें तो किसानों को लागत पर ही 213 से 313 रुपए प्रति कुंतल (1213 रुपए लागत ) का घाटा हो रहा है और एमएसपी पर जाएं तो 800-900 रुपए। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले शिवनी जिले में 4 लाख 35 हज़ार एकड़ में मक्का बुवाई हुई थी; जिसमें जिले के किसानों को एसएसपी न मिलने पर करीब 600 करोड़ रुपए का घाटा हुआ।”

आंध्र प्रदेश, अनंतपुर के गाँव पुतलूर के किसान मुरलीधर जब ताड़ी पत्री मंडी पहुँचे तो चना की कीमत 3,000 से 3,200 रुपए प्रति कुंतल के बीच थी। वे ट्रैक्टर से लगभग 25 कुंतल चना लेकर मंडी पहुंचे थे, लेकिन उन्होंने आधा चना ही बेचा।

ऐसा उन्होंने क्यों किया, इस बारे में वे बताते हैं, “हमें कम से कम सरकारी रेट मिल जाये तो हम उतने में ही खुश हो लेते हैं, लेकिन मुझे तो एक कुंतल के बदले 3,100 रुपए मिल रहा था; अब इतना नुकसान सहकर चना कैसे बेचता, लेकिन इतनी मेहनत करके उपज मंडी लाया था तो बिना पैसे वापस नहीं जा सकता था, इसलिए आधा बेच दिया, आधा रोक लिया , जब कीमत सही होगी तब बेचूंगा।”

मुरली धर को एक कुंतल के बदले मिला 3,100 रुपए जबकि सरकार ने चने का एमएसपी 4,875 रुपए प्रति कुंतल तय किया है। मतलब एमएसपी के हिसाब से प्रति कुंतल के पीछे नुकसान हुआ 1,775 रुपए।

यह किसी एक किसान की बात नहीं है। कई रिपोर्ट्स में बताया जा चुका है कि किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं मिल पाता। आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

साल 2015 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। सरकार के अनुसार देश में किसानों की संख्या 14.5 करोड़ है, इस लिहाज से 6 फीसदी किसान मतलब कुल संख्या 87 लाख हुई।

वहीं वर्ष 2016 में एमएसपी पर नीति आयोग की भी एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई थी, जिसके अनुसार 81 फीसदी किसानों को यह मालूम था कि सरकार कई फसलों पर एमएसपी देती है, लेकिन बुवाई सीजन से पहले सही कीमत से 10 फीसदी किसान ही वाकिफ थे।

वर्ष 2019 में गाँव कनेक्शन ने जब देश के 19 राज्यों के 18,267 लोगों के बीच हुए अपने सर्वे में किसानों से पूछा कि आपकी नज़र में आज खेती के लिए सबसे बड़ी समस्या क्या है तो 43.6 फीसदी किसानों ने कहा कि उनके लिए सबसे बड़ी समस्या सही कीमत का न मिलना है। ये कुल संख्या के 4,649 लोग हैं।

एक तय कीमत भी किसानों के लिए मुसीबत

केंद्र सरकार किसी भी फसल की जो कीमत तय करती है, वह पूरे देश में एक ही होती है। किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं हो पा रहा, यह भी इसकी एक बड़ी वजह है, कारण कि लागत तो हर प्रदेश में किसी एक फसल की अलग-अलग आती है।

इसे उदाहरण से समझ सकते हैं। सीएसीपी को ही आधार मानकर बात करें तो वर्ष 2016-17 में कर्नाटक के किसानों ने जब एक हेक्टेयर में मक्के की खेती की तो उनका कुल खर्च लगभग 28,220 रुपए आया जबकि बिहार के किसानों का इतने ही क्षेत्र में खेती के लिए लगभग 32,262 रुपए, झारखंड के किसानों का 24,716 और महाराष्ट्र के किसानों का 51,408 रुपए खर्च हुआ, जबकि मक्के पर केंद्र सरकार ने 1760 रुपए एमएसपी देती है।

लागत के अलावा उत्पादन भी अलग-अलग है। देश में वर्ष 2017-18 के दौरान एक हेक्टेयर में औसतन 33 कुंतल मक्के की पैदावार हुई थी, लेकिन उत्पादन में राज्यवार अलग-अलग है। तमिलनाडु में एक हेक्टेयर में 65.5 कुंतल जबकि आंध्र प्रदेश में इतने ही क्षेत्र में 68.2 कुंटल मक्का पैदा हुआ। बिहार में यही उत्पादन 36.4 कुंतल प्रति हेक्टेयर रहा।

लागत अलग-अलग क्यों है, इसकी बड़ी वजह मज़दूरी दर भी है जो हर प्रदेश में अलग-अलग है। आंध्र प्रदेश में एक दिन की कृषि मजदूरी दर 312 रुपए है (जनवरी 2018 के अनुसार) जबकि अमस में यही दर 277, बिहार में 264, गुजरात में 236, हरियाणा में 367, हिमाचल प्रदेश में 439, कर्नाटक में 321, केरल में 691, मध्य प्रदेश में 298, ओडिशा में 226, पंजाब में 349, राजस्थान में 267, तमिलनाडु में 424, उत्तर प्रदेश में 243 और पंजाब में 275 रुपए है जबकि अखिल भारतीय औसत कृषि मजदूरी दर मात्र 283 रुपए है।

इसे समझने के लिए हमने कृषि लागत और मूल्य आयोग के सहायक निदेशक सूबे सिंह से भी बात की। वे कहते है, “केंद्र सरकार औसत खर्च को आधार मानकर ही एमएसपी तय करती है। यह राज्य का भी मामला है, ऐसे में प्रदेश सरकार को अपने अनुसार एमएसपी बढ़ाने का भी अधिकार है, वे बढ़ा सकती हैं।”

सहायक निदेशक के अनुसार यह राज्य का भी मामला है, लेकिन जब प्रदेश सरकार फसलों पर बोनस देने की बात करती है तो आयोग इसे विकृति कहता है। खरीफ 2019-20 की रिपोर्ट में इसका उल्लेख भी है। रिपोर्ट में लिखा है, “कुछ राज्य सरकारें पिछले कुछ वर्षों के दौरान विशेष रूप से धान के लिए न्यूनतम समर्थन पर बोनस दे रही हैं, जिससे बाजार में विकृतियां पैदा होती हैं, इससे प्राइवेट सेक्टर को नुकसान होता है। वर्ष 2017-18 और 2018-19 के दौरान, केरल, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने धान के लिए बोनस घोषित किया। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ ने 2018-19 में धान के लिए 750 रुपए प्रति कुंतल का बोनस घोषित किया, जो एमएसपी का लगभग 43 प्रतिशत है।

इसी तरह, केरल ने 2018-19 में धान ग्रेड ए के लिए 760 रुपए प्रति कुंतल और धान सामान्य के लिए 780 रुपए प्रति कुंतल के बोनस का भुगतान किया।” रिपोर्ट में आगे उल्लेख है, “छत्तीसगढ़ में चावल की सरकारी खरीद एनएफएसए (राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम) और अन्य योजनाओं के तहत आवश्यकता से बहुत अधिक है। इसलिए, राज्य को अतिरिक्त भंडार का निपटान करना मुश्किल होगा। एमएसपी पर बोनस फसल संतुलन को प्रभावित करता है। आयोग ने अपनी पहले की अनुशंसा को फिर से दोहराया है कि इस तरह के बोनस/प्रोत्साहन को रोका जाना चाहिए, खासकर जिन राज्यों में चावल का उत्पादन ज़्यादा होता है।”

इस पर कृषि मामलों के जानकार देविंदर शर्मा कहते हैं, “केंद्र सरकार एमएसपी का अधिकार अपने पास इसलिए रखती है क्योंकि यह उन्हें ही तय करना होता है कि कितना स्टॉक रखना है, बाजार में कितना उपलब्ध करना है, यह सब फैसले केंद्र को ही करना होता है; लेकिन ऐसा नहीं है कि हम इसे राज्यों के हिसाब से लागू नहीं कर सकते, अब अगर मान लीजिए कि पंजाब में गेहूँ की लागत 2500 रुपए आती है तो एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) किसानों को 2500 रुपए ही भुगतान करें और अगर बिहार में यही लागत 1500 रुपए आती है तो सरकार 1500 रुपए दे, लेकिन ऐसा इसलिए भी नहीं होता क्योंकि इसका विरोध करने वाले लोग हैं ही नहीं। किसानों को सभी बातें पता नहीं होती और सरकार का काम आसानी से हो जाता है।”

“पूरी पॉलिसी में बदलाव की ज़रूरत है लेकिन सरकार इसे इसलिए नहीं होने देगी कि क्योंकि अर्थशास्त्रियों की सोच होती है कि खाने की वस्तुएं सस्ती होनी चाहिए; इससे यह होता है कि एक तो महँगाई दर काबू में रहती है और इंडस्ट्री को कच्चा माल सस्ती दरों पर दिया जा सकता है।” वे आगे कहते हैं, “कई बार मैंने माँग की कि किसानों की आय कम से कम 18000 रुपए महीने होनी चाहिए, इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अगर ऐसा होगा तो महँगाई बढ़ जायेगी; अब इससे बचने का तरीका यह भी है कि अगर सरकार 1900 रुपए में गेहूँ खरीद रही है तो वह उसे उसी दर पर खरीदे और लागत में जो अंतर आ रहा है उसे सरकार किसानों के जनधन खाते में भेज दे ताकि महँगाई पर इसका असर न पड़े।” 

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