जलवायु अनुकूल कृषि तकनीक को ज़रूरी क्यों बता रहे हैं कृषि वैज्ञानिक

पिछले कुछ साल से मौसम का बदलता स्वरूप खेती-किसानी के लिए चुनौती बनकर उभर रहा है। मौसम का यह ट्रेंड अब एक स्थाई समस्या बनता जा रहा है। जलवायु में हो रहे ये परिवर्तन खेती-किसानी के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
KisaanConnection

एक तरफ जहाँ विश्व की बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न, दलहन-तिलहन, फल-सब्ज़ी , दूध, माँस, अंडा आदि खाद्य पदार्थों की माँग बढ़ रही है। वहीं पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसमी घटनाएँ खेती किसानी के सामने नई चुनौती पैदा कर रही हैं।

हमेशा देखने में आ रहा है कि बारिश के दिन घट रहे हैं। दूसरी तरफ बरसात की चरमता के चलते 2 से 3 दिन के भीतर ही खूब बारिश हो जाती है। इसके बाद ज़रूरत होने पर भी कई-कई दिनों तक बरसात के दिनों में भी पानी नहीं बरसता है। इस कारण लंबे ड्राईस्पेल के चलते वर्षा पर आधारित खरीफ मौसम की फसलें सूख जाती हैं।

इस साल भी कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ रहा है। जहाँ जुलाई की शुरुआत में अच्छी और ज़्यादा बारिश हुई, वहीं अब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि मैदानी राज्यों के कई क्षेत्रों में खेतों में खड़ी खरीफ फसलें सूख रही हैं।

किसानों के खेतों में खड़ी खरीफ फसलें इस समय पुष्पावस्था और दुग्धावस्था मैं हैं।

फसलों की इन क्रांतिक अवस्थाओं पर खेत में पर्याप्त नमी की बहुत आवश्यकता होती है। लेकिन पिछले कई दिनों से बारिश न होने के कारण फसलें सूख रही हैं। धान जैसी अधिक पानी चाहने वाली फसल वर्षा न होने के कारण ज़्यादा संकट में है। सोयाबीन की फसल पर भी बुरा असर देखा जा सकता है।

वर्तमान हालातों को देखते हुए खरीफ फसलों का उत्पादन प्रभावित होना तय है। इस सबको देखते हुए बदलते दौर में खेती में बदलाव की ज़रूरत महसूस की जा रही है।

बढ़ता तापमान और वर्षा का बदलता स्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र को और जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है। चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता से आवास, प्रजातियों के वितरण और पारिस्थितिकी संतुलन पर प्रतिकूल असर पड़ा है। हिम ग्लेशियरों की चोटियों के पिघलने से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर भी प्रभाव पड़ रहा है जिससे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हो रही है।

आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन से कृषि के प्रभावित होने और फसल की पैदावार कम होने के साथ खाद्य असुरक्षा की स्थिति भी पैदा हो सकती है। जिससे किसानों की आजीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। मौसम के प्रतिरूप में तेजी से आ रहे बदलाव से जल की उपलब्धता प्रभावित होगी जिससे जल की कमी होने के साथ संसाधनों को लेकर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

बदलते हुए जलवायु परिवर्तन जैसे ख़तरों के कारण कृषि उत्पादकता को प्रभावित किए बिना खाद्य सुरक्षा को सुरक्षित करने के लिए संरक्षित कृषि तकनीकी को अपनाने की आवश्यकता है। संरक्षित कृषि खेती-बाड़ी की वह पद्धति है जिसमें फसलों और सब्ज़ियों को जैविक व अजैविक कारकों से बचाकर उगाया जाता है।

संरक्षित कृषि पद्धति के तहत संसाधन संरक्षण तकनीकी की सहायता से टिकाऊ उत्पादन स्तर के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए फसल का उत्पादन किया जाता है। संरक्षित कृषि मृदा की ऊपरी और निचली सतह के अंदर प्राकृतिक जैविक क्रियायों को बढ़ाने पर आधारित है।

संरक्षित कृषि में न्यूनतम जुताई, स्थाई रूप से मिट्टी को आच्छादित करके तथा फसल विविधीकरण को अपनाकर ही फसल उत्पादन के स्तर को टिकाऊ बनाया जा सकता है। संरक्षित कृषि प्रणाली में उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग और उनका संरक्षण करते हुए किसी स्थान की भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के अनुसार टिकाऊ फसल उत्पादन प्राप्त करने के लिए नए-नए तरीके अपनाए जाते हैं।

बदलते जलवायु परिवर्तन में संरक्षित कृषि एक पर्याय बनकर कार्य कर सकती है। वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन की वजह से असमय वर्षा, अनियमित वर्षा जल का वितरण, ओलावृष्टि, अतिवृष्टि कीट व बीमारियों का प्रकोप आदि कई गंभीर समस्याएं पूरे विश्व के सामने मुँह खोलकर खड़ी हैं। हमें अपना भविष्य सुरक्षित रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उचित प्रबंधन के प्रति आज से ही सतर्क होने की आवश्यकता है।

आज प्रतिस्पर्धा के दौर में किसान अधिक से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए अपने खेतों में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं जिससे मिट्टी में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का संतुलन दिन प्रतिदिन बिगड़ रहा है। जहाँ एक तरफ मृदा की घटती उत्पादन क्षमता समस्या है वहीं दूसरी तरफ जनसंख्या की वजह से खाद्यान्न सुरक्षा भी चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे मैं संरक्षित कृषि हमारे सामने एक विकल्प के रूप में उभर के सामने आती है।

संरक्षित कृषि की वजह से ज़मीन की उत्पादकता में काफी इजाफा होता है। साथ ही यह पानी, ऊर्जा और ज़मीन की उर्वरता का भी संरक्षण करती है। संरक्षित कृषि में मिट्टी की न्यूनतम जुताई की जाती है जिससे ईंधन एवं मानव श्रम दोनों की बचत होती है। क्योंकि कल्टीवेटर या रोटावेटर से मृदा की जुताई करने पर मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुण में परिवर्तन आता है जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलता है।

संरक्षित कृषि प्रणाली को अपनाने से पर्यावरण एवं संसाधन दोनों का संरक्षण किया जा सकता है। न्यूनतम जुताई, फसल अवशेष का स्थाई आवरण तथा फसल विविधीकरण अपनाने से मृदा एवं जल संसाधनों की गुणवत्ता और फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ती है।

फसल अवशेष, जैव-विविधता, जैविक गतिविधियों एवं वायुवीय गुणवत्ता में बढ़ोतरी करते हैं। यह क्रिया कार्बन को संचय करने एवं मृदा तापमान को नियंत्रित करने में सहायक होती है। संरक्षित खेती के तहत बूंद बूंद सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई तकनीकी का उपयोग किया जाता है। इसकी वजह से पानी हर पौधे तक समुचित मात्रा में पहुँचता है तथा पानी की काफी बचत भी होती है।

ज़रूरत इस बात की है कि जलवायु अनुकूल कृषि तकनीक को अपनाया जाए। कृषि वानिकी और कुशल जल प्रबंधन प्रथाओं को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाए। इस दिशा में संरक्षित कृषि तकनीकी एक बेहतर और समय अनुकूल विकल्प बनकर उभरी है।

लेखक कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) म. प्र. में प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं 

Recent Posts



More Posts

popular Posts