बिहार में मानसून आ चुका है और घनश्याम यादव अपने घर वापस जाने की तैयारी में हैं। 70 साल के किसान को अपना घर छोड़े हुए दो महीने से ज़्यादा हो गया है। अप्रैल की शुरुआत में, जब भीषण गर्मी पड़ रही थी, वह 32 भैंस और बारह अन्य चरवाहों के साथ मवेशियों के लिए चारे की तलाश में पंद्रह दिनों तक पैदल चल कर यहाँ तक पहुँचे थे।
घनश्याम यादव और उनके साथियों ने झारखंड से सटे दक्षिण बिहार के जमुई ज़िले से लेकर उत्तर बिहार के दरभंगा ज़िले में कोसी नदी के तट तक 200 किलोमीटर की दूरी तय की।
जमुई ज़िले के गढ़ी गाँव के निवासी घनश्याम यादव ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे गाँव में सब कुछ सूख गया था। चारा इतना महंगा है कि मैं इसे अपनी भैंसों के लिए नहीं खरीद सकता। हमारे पास अपने जानवरों को जिंदा रखने के लिए कोसी नदी के पास के हरे-भरे इलाकों में पलायन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उनका दूध बेचना ही मेरी कमाई का एकमात्र ज़रिया है।”
यह सिर्फ घनश्याम की कहानी नहीं है। राज्य के दक्षिणी ज़िलों जैसे जमुई, मुंगेर, बांका और भागलपुर से हज़ारों पशुपालक गर्मी के महीनों में अपने पशुओं के लिए चारा की तलाश में कोसी क्षेत्र की ओर पलायन करते हैं।
भारत के सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित राज्य बिहार में एक अनोखी समस्या है। गंगा नदी पूरे राज्य में बहती है और इसे दो अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित करती है – उत्तरी बिहार, जो बाढ़ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है और दक्षिण बिहार, जो सूखे की स्थिति का सामना करता है। गर्मी के महीनों में जब जल संकट कई गुना बढ़ जाता है, तो दक्षिण बिहार से कई किसान उत्तर बिहार की ओर पलायन कर जाते हैं।
घनश्याम ने कहा, “हम कोसी के पास रहने वाले किसानों के आम के बगीचों में मचान बनाते हैं और दूध के बदले में दो महीने तक उन मचानों पर रहते हैं। जब मानसून आता है और बारिश होने लगती है, तो हम फिर से दो सौ किलोमीटर पैदल चलकर घर चले जाते हैं।”
जमुई के एक अन्य पशुपालक छोटे यादव के पास मुसीबतों का अंबार लगा है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “सौ किलोग्राम चारे की एक बोरी की कीमत 3,000 रुपये है और मेरी दस भैंसें रोजाना 50 किलो चारा खाती हैं। लेकिन दूध बेचकर सिर्फ हज़ार रुपये ही मिल पाते हैं।” रोजाना छह किलो सूखा चारा और 15-20 किलोग्राम हरे चारे के अलावा गर्मी के मौसम में हर एक भैंस प्रतिदिन 100 लीटर पानी भी पीती है।
उन्होंने बताया, “दरभंगा आए बिना हमारे लिए ज़िंदा रहना बड़ा मुश्किल है। हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। पिछले मानसून में तो सामान्य से भी कम बारिश हुई थी। हमे पर्याप्त चारा पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। ”
उन्होंने कहा, “हम जुलाई में ही घर लौट पाएँगे, जब हमारे गाँवों में मवेशियों के खाने के लिए चारा होगा और पर्याप्त बारिश भी होगी।”
भागलपुर जिले के साहित्यकार और सामाजिक टिप्पणीकार परमानंद प्रेमी ने गाँव कनेक्शन को बताया, हालाँकि जमुई के पशुपालकों की कोसी नदी के किनारे पलायन करने की परंपरा सदियों पुरानी है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनका संकट गहरा गया है।
प्रेमी कहते हैं, “पलायन करने वाले पशुपालकों की संख्या आसमान छू रही है। ये किसान अब चारे की कमी के अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं।”
पशु एवं मत्स्य संसाधन विभाग के पटना स्थित डेयरी निदेशक संजय कुमार ने कहा कि यह शायद इस साल पशुपालकों द्वारा तय की गई सबसे लंबी दूरी है।
कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “दक्षिणी ज़िलों से डेयरी किसान आमतौर पर पलायन करते हैं लेकिन यह पहली बार है कि हम लगभग 200 किलोमीटर का प्रवास देख रहे हैं। आधिकारिक तौर पर, हमें इतने लंबे प्रवास के बारे में जानकारी नहीं है।”
बारिश का बदलता पैटर्न
इस संकटपूर्ण प्रवास का एक कारण राज्य में वर्षा का बदलता पैटर्न है। पिछले साल, दक्षिण-पश्चिम मानसून के समय चार महीनों तक राज्य में काफी कम बारिश पड़ी, जिससे सूखे की आशंका पैदा हो गई थी। राज्य सरकार ने 11 ज़िलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है। जबकि गाँव कनेक्शन की रिपोर्ट बताती है कि अक्टूबर 2022 में राज्य के अन्य हिस्सों में बाढ़ आई थी।
इस साल भी स्थिति उतनी ही चिंताजनक है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार , राज्य में इस दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम में 1जून से 27 जून के बीच शून्य से 78 फ़ीसदी कम बारिश दर्ज़ की गई है। राज्य में 27 जून तक सामान्य बारिश 130.80 मिलीमीटर के मुकाबले में अब तक सिर्फ 28.60 मिलीमीटर ही दर्ज़ की गई है।
लुप्त हो रहे जल स्रोत
‘वॉटर बॉडीज- फर्स्ट सेंसस रिपोर्ट’ द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों के अनुसार, बिहार में 45,793 जल निकायों में से 50.2 प्रतिशत (22,994) इस्तेमाल में हैं, जबकि बाकी 49.8 प्रतिशत (22,799) सूखे, गादयुक्त होने के कारण उपयोग में नहीं हैं। ये पूरी तरह से नष्ट हो चुके हैं और इनकी मरम्मत भी नहीं की जा सकती है।
सुपौल के पशु चिकित्सक फूलदार यादव ने गाँव कनेक्शन को बताया, “वैसे तो भरी गर्मियों में जानवरों को दिन में दो बार नहलाना चाहिए। लेकिन मार्च और जुलाई के बीच उनके गाँवों में पानी ही नहीं होता है। तालाब, नहरें और कुएँ सूखे हैं। गर्मी से जानवर बीमार पड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में पशुपालकों को पलायन करना पड़ता है।”
इसलिए वे अपने गाँवों से अपना अनाज साथ लेकर यात्रा करते हैं। कोसी नदी पर जाकर वे अपना मचान बनाने के लिए पुआल और बांस की व्यवस्था करते हैं, और दूध को आसपास के गांवों में बेचकर अपना गुज़ारा चलाते हैं।
घनश्याम यादव ने कहा, “यह कुछ ऐसा है जो हमें न चाहते हुए भी करना पड़ता है। अपने परिवारों को इतने लंबे समय तक छोड़कर बाहर रहना तकलीफ़ देता है।” अपनी बात खत्म करते हुए वह कहते हैं “लेकिन हमें बारिश का इंतज़ार रहेगा।”