भारतीय संस्कृति में राम द्वारा किया गया आदर्श शासन ‘राम राज्य’ के नाम से प्रसिद्ध है। राम के राज्य में जनता हर तरह से सुखी और समृद्ध थी। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया जाता था। जीने का अधिकार और सुरक्षा-न्याय का अधिकार सभी को मिला था।
राम के त्रेता युग में भारत में खेती किसानी बहुत ही उन्नत किस्म की मानी जाती थी। किसान खेती में खाद्यान्न से लेकर दलहन, तिलहन आदि सभी प्रमुखता से उगाते थे उस दौर में खेती-किसानी के साथ गोपालन भी लोगों द्वारा किया जाता था। माना जाता है कि राम के दौर में फसलों में रोग, बीमारियाँ और कीटों का प्रकोप नहीं होता था। जिसके चलते किसानों को भरपूर उत्पादन मिलता था। यही कारण है कि उस समय चारों ओर खुशहाली और संपन्नता थी।
आजकल पूरा देश राममय है। अयोध्या से लेकर देश के हर राज्य, गाँव, शहर, कस्बों, घर और गलियों तक सब जगह सिर्फ राम की ही चर्चा है। राम की चर्चा हो भी क्यों ना 500 वर्षों के लंबे इंतज़ार और लाखों लोगों द्वारा राम मंदिर के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के बाद रामलला अपने भव्य और दिव्य मंदिर में विराज रहे हैं। राम भारत के कण-कण में बसते हैं, राम भारत की आत्मा हैं, राम भारत के प्राण हैं। राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना करना ही बेमानी है। ऐसे समय पर जब भारत में चारों ओर राम-राम हो रहा है तब यह विचार आना लाज़मी है क्या राम के समय में रामराज्य के दौरान भारत में खेती किसानी होती थी। अगर होती थी तो किस तरह से किसानों द्वारा की जाती थी।
अश्विन देवताओं ने हल चलाना सिखाया था
भारत अनादि काल से ही एक कृषि प्रधान देश माना जाता रहा है। भारत में खेती कब से प्रारंभ हुई क्या भगवान राम और कृष्ण काल में भी किसान खेती-किसानी करते थे। इसके पर्याप्त प्रमाण पौराणिक उल्लेखों में मिलते हैं। जिसके अनुसार भारत में कृषि कार्य राम और कृष्ण युग के पहले से ही किए जाने का उल्लेख है। जिसके अनुसार उस समय लोग खेत जोत कर उसमें अनाज, सब्जी के साथ ही गोपालन- बकरी पालन भी मुख्य रूप से करते थे। संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में उल्लेख मिलता है कि अश्विन देवताओं ने राजा मनु को हल चलाना सिखाया था। ऋग्वेद में एक स्थान पर अपाला ने अपने पिता अत्री से खेतों की समृद्धि के लिए प्रार्थना की थी।
अथर्ववेद के एक प्रसंग के अनुसार सर्वप्रथम राजा पृथुवेंय ने ही कृषि का काम शुरू किया था। इतना ही नहीं अथर्ववेद में 6, 8 और 12 बैलों की जोड़ी से हल जोतने का वर्णन भी मिलता है। यजुर्वेद में पाँच तरह के चावल का उल्लेख है। जिसमें यथाक्रम, महाब्राहि, कृष्णव्रहि शुक्लावृहि, आशुधान्य और हायन प्रमुख चावल की प्रजातियां थी। इससे यह सिद्ध होता है कि वैदिक काल में चावल की खेती भी होती थी। रामायण काल में राजा जनक को एक खेत से हल चलाते वक्त ही भूमि से माता सीता मिली थीं। इसी प्रकार महाभारत में बलराम जी को हलधर कहा जाता था। उनके कंधे पर हमेशा एक हल शस्त्र के रूप में विराजमान रहता था। इससे यह सिद्ध होता है कि उस काल में भी खेती किसानी बहुत उन्नत थी।
सिंधु घाटी की सभ्यता में कृषि, पशुपालन की अच्छी समझ थी
पौराणिक उल्लेखों के अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता को बहुत ही उन्नत और सभ्य माना गया है। सिंधु घाटी की सभ्यता उस कालखंड की एक ऐसी सभ्यता रही है जो पूरी तरह आत्मनिर्भर और स्थापित सभ्यता थी। सिंधु घाटी की सभ्यता के मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस दौर के लोग दूर तक व्यापार करने जाते थे और यहाँ पर भी दूर-दूर से व्यापारी आते थे। लगभग 8000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के लोग धर्म, ज्योतिष, कृषि, पशुपालन और विज्ञान की बहुत अच्छी समझ रखते थे।
उल्लेखों के अनुसार उस दौर के लोग नगरों के निर्माण से लेकर जहाज तक भी बनाना जानते थे। इस काल में लोग जहाज, रथ, बैलगाड़ी, आदि यातायात के साधनों का अच्छे से प्रयोग करना सीख गए थे। सिंधु सभ्यता के लोगों को आर्य द्रविड़ कहा जाता है। आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है। यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग कृषि का काम करने के साथ ही गोपालन और बकरी पालन के साथ दूसरे कई तरह के व्यापार भी करते थे।
कृषि के विकास पर बात की जाए तो कम से कम 7000 से 13000 ईसा वर्ष पूर्व ही खेती का विकास हो चुका था। तब से लेकर अब तक खेती में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उल्लेखों के अनुसार आदम व्यवस्था में मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार कर अपनी उदर पूर्ति करता था। इसके बाद उसने कंद-मूल, फल और खुद से उगे अन्न का इस्तेमाल शुरू किया। इसके बाद धीरे-धीरे वह खेती और अन्न उत्पादन करने लगा। विश्व में मिले कई तथ्यों और खोज के बाद पता चला है कि मनुष्य पूर्व पाषाण युग से ही खेती से परिचित था। बैलों को हल में लगाकर जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से भी मिलता है।
7 हज़ार साल पहले भारत में कृषि उन्नत अवस्था में थी
भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना हुआ इसकी कोई साफ़ जानकारी तो नहीं है, लेकिन सिंधु नदी के पुरावशेष के उत्खनन से इस बात के प्रमाण मिले हैं कि आज से 7000 साल पूर्व भारत में कृषि उन्नत अवस्था में थी। इतना ही नहीं, उस दौर में लोग राजस्व को भी अनाज के रूप में ही चुकाते थे। मोहनजोदड़ो की सभ्यता से मिले प्रमाणों में भी गेहूँ और जौ का उल्लेख मिलता है। पुरातन काल में मोटे अनाजों की खेती का भी विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। ज्वार, बाजरा, कोदों, कुटकी, कंगनी, चीना, सवां आदि मोटे अनाज पुरातन काल से ही भारत में उगाए जा रहे हैं।
भारत में पाराशर नाम के एक मुनि पैदा हुए उनके द्वारा रचित ग्रंथो में कृषि संग्रह, कृषि पाराशर और पराशर तंत्र प्रमुख हैं। कृषि पाराशर में कृषि पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ और उसकी जातियाँ, वर्षा माप, वर्षा का अनुमान, विभिन्न समयों की वर्षा का प्रभाव, कृषि की देखभाल, बैलों की सुरक्षा, गौपर्व, गोबर की खाद, हल, जुताई, बैलों के चुनाव, कटाई के समय, रोपण, धान्य संग्रह आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए गए हैं। पराशर ऋषि के मन में कृषि के लिए अपूर्व सम्मान था। उनके ग्रन्थ कृषि पराशर में किसान कैसा होना चाहिए, पशुओं को कैसे रखना चाहिए, गोबर की खाद कैसे तैयार करनी चाहिए और खेतों में खाद देने से क्या लाभ होता है। बीजों को कब और कैसे सुरक्षित रखना चाहिए आदि विषयों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।
पराशर ऋषि के इस ग्रंथ में मेघो के प्रकार का वर्णन अलग-अलग ऋतु में होने वाली वर्षा का वर्णन भी विस्तार से किया गया है। उनके द्वारा गौशाला की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देने की बात कही गई है। पशुओं के त्यौहार तथा हल सामग्री का भी वर्णन परासर ऋषि ने किया है। ग्रंथ में शोधित किए तथा संरक्षित हुए बीजों को उचित समय में बोने का निर्देश है। साथ ही धान्य को काटने तथा उसको साफ करने का वर्णन भी मिलता है। उनके द्वारा जल संरक्षण का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। संस्कृत में लिखे गए पराशर ऋषि के कृषि पाराशर ग्रंथ मैं उस दौर की आधुनिक कृषि के सभी विषयों पर चर्चा की गई है।
इसके चलते यह स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि भारतीय कृषि, खेती, किसानी और किसान आदि-अनादि काल से संपन्न रही है। भारतवर्ष में खेती और पशुपालन लोगों के जीने और जीवन यापन का प्रमुख अंग रही है। भारत हमेशा धन्य धान्य से भरपूर रहा है। महाभारत काल में भगवान कृष्ण के समय में भारत में दूध दही की नदियाँ बहने का तात्पर्य यही था कि उस दौर में खेती किसानी के साथ ही पशुपालन खासकर गोपालन अपने चरम पर था। भगवान कृष्ण खुद भी गायों को चराते थे और दूध, दही, मक्खन के बहुत शौकीन थे। दूधो नहाओ पूतो फलो का आशीर्वाद भी लोगों को संपन्नता के लिए ही दिया जाता है।
इसलिए तो जब भगवान राम जब राज करने बैठे तो कहा गया कि –
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई। रामप्रताप विषमता खोई॥
यानी – श्री रामचंद्र जी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्री रामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आंतरिक भेदभाव) मिट गई॥
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक और प्रमुख हैं)