कन्नौज। जिले में आलू की बंपर पैदावार तो होती है, लेकिन क्वालिटी अच्छी न होने की वजह से उसका वाजिब दाम किसानों को नहीं मिल पाता है। कृषि वैज्ञानिकों ने गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के टिप्स दिए हैं। इसमें संतुलित उर्वरकों के प्रयोग पर जोर दिया गया है।
जिला मुख्यालय कन्नौज से करीब 20 किमी दूर जलालाबाद ब्लॉक क्षेत्र के अनौगी में चल रहे कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ. वीके कनौजिया बताते हैं, ‘‘आलू की बड़े पैमाने पर पैदावार हो रही है लेकिन इसमें काफी मात्रा में खराब आलू होता है, जिससे उचित मूल्य नहीं प्राप्त होता है।’’ आगे बताते हैं कि ‘‘काला रूसी (ब्लैक स्कर्फ), चेचक (कामन स्कैब), आलू फटना व विकृत होना ऐसे रोग व भौतिक अवस्थाएं हैं जो उसकी गुणवत्ता का प्रभाव डाल रही हैं। इसका प्रमुख कारण असंतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग तथा रोगों का होना है। किसान जरूरत से दो से ढाई गुना अधिक फास्फोरस, आधा या दो तिहाई अधिक पोटाश का होना है। नाइट्रोजन की मात्रा भी 20 फीसदी अधिक होती है।’’
हरी खाद, जैविक उर्वरकों तथा सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग जरूर करें। आवश्यकता से अधिक किसी भी पोषक तत्व का प्रयोग न करें। सिंचाई के ठीक पहले अथवा सिंचाई करते समय यूरिया का प्रयोग बिल्कुल भी न करें।
डॉ. वीके कनौजिया, वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक, कन्नौज
दाईपुर के प्रगतिशील किसान अमर सिंह बताते हैं, ‘‘संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करने से आलू चमकदार और सही आकार का प्राप्त होता है।’’
डॉ. वीके कनौजिया आगे बताते हैं, ‘‘आवश्यकता से अधिक या कम उर्वरकों का प्रयोग पोषक तत्वों की उपलब्धता का संतुलन बिगाड़ देता है। परिणामस्वरूप अधिक उत्पादकता के बावजूद रोगग्रसित आलू की पैदावार प्राप्त होती है।’’
वैज्ञानिक डॉ. वीके कनौजिया आगे कहते हैं, ‘‘बेहतर फसल के लिए 180 किग्रा नाइट्रोजन, 80 किग्रा फास्फोरस तथा 100 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जाए। इसकी प्राप्ति के लिए आलू की बुआई के समय प्रति हेक्टेयर की दर से 130 किग्रा यूरिया, 180 किग्रा डीएपी और 165 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटाश को ही खेत में मिलाया जाए। जिन किसानों ने ऐसा किया है वहां आलू बेहतर निकल रहा है।’’
भवानीपुर के अरूण त्रिपाठी बताते हैं कि ‘‘संतुलित उर्वरक प्रयोग करने से थोड़ी पैदावार कम मिलती है लेकिन गुणवत्तायुक्त आलू पैदा होता है, जिसका बाजार मूल्य से 25-50 रूपए प्रति कुंतल अधिक मिलता है।’’
उन्होंने आगे कहा, ‘‘आलू जमान के बाद पहली सिंचाई के तीन से चार दिन बाद उचित नमी पर 100 किग्रा यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से दूसरी सिंचाई के बाद इतना ही यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़ककर फसल में डाला गया। काला रूसी व चेचक रोग की रोग की रोकथाम के लिए भूमि की अंतिम जुलाई के समय ट्राइकोडर्मा विरिडी पांच किग्रा प्रति हेक्टेयर और 100 किग्रा सड़ी गोबर की खाद में तैयार मिश्रण को खेत में मिलाया गया और आलू को कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम अथवा मानसरीन एक लीटर से प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्य आलू को उपचारित करके बोया गया।’’
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कृषि विज्ञान केन्द्र के पादप रक्षा वैज्ञानिक डॉ. भूपेंद्र कुमार सिंह कहते हैं, “सदैव बीजों को उपचारित करके ही बोएं। यदि चेचक रोग आलू में आ रहा है तो गर्मी में खेत की जुताई करें, फसल चक्र अपनाएं और ट्राइकोडर्मा से भूमि का शोधन अवश्य करें।’’
डॉ. कनौजिया ने बताया, ‘‘ऐसा करने से पौधों को आवश्यकता पोषक तत्व प्राप्त होते हैं जिससे उनका आकार ठीक बना रहता है और पौधों में रोगों के प्रति लड़ने की क्षमता बनी रहती है। वहीं भूमि तथा बीजों के शोधन से भूमि व बीज जनित रोगों के प्रबंधन में सार्थक मदद मिलती है।’’
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