लखनऊ। खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए किसान अब वो फसलें उगाना चाहते हैं, जिनसे ज्यादा मुनाफा हो। फूलों की खेती और सब्जियों के बाद औषधीय फसलें किसानों की पसंद बनी हुई हैं। ऐसी ही एक नकदी फसल ईसबगोल भी है। किसानों के मुताबिक इसमें एक हेक्टेयर में ही ढाई से 3 लाख की कमाई हो हो सकती है, जबकि खर्चा काफी कम होता है।
ईसबगोल एक अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय फसल है। औषधीय फसलों के निर्यात में इसका प्रथम स्थान हैं। ईसबगोल की खेती से 10 से 15000 निवेश करने के बाद तीन से चार महीने में ही 2.5 लाख से 3 लाख रुपए तक किसान कमा रहे हैं। मेडिसिनल प्लांट फार्मिंग से जुड़े बिजनेस हमेशा से ही एक बेहतरीन मौके रहे हैं जिसमें कम पैसे निवेश करके अधिकतर अधिकतम आय हासिल की जा सकती है और इन्हीं बिजनेस में से जुड़ा है ईसबगोल की खेती और इससे जुड़े व्यापार।
भारत में इसका उत्पादन प्रमुख रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में करीब 50 हजार हेक्टयर में हो रहा हैं। मध्य प्रदेश में नीमच, रतलाम, मंदसौर, उज्जैन एवं शाजापुर जिले प्रमुख हैं।
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छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव के रहने वाले सत्यनारायण साहू बाताते हैं, “ईसबगोल एक नगदी औषधीय फसल है। इसके लिये ठंडा व शुष्क मौसम अनुकूल रहता है। मैंने अभी कुछ वर्ष पहले ही इसकी खेती शुरू की है। अपने एक हेक्टेयर के खेत में ‘हरियाणा ईसबगोल-5’ ईसबगोल के बीज का प्रयोग कर रहा हूं। जो यहां की जलवायु के हिसाब से काफी असरदार है।” सत्यनारायण आगे बताते हैं, “खेत में पलेवा के बाद 2 से 4 टन गोबर या अन्य जैविक खाद बुआई के 10 से 15 दिन पूर्व खेत में डालता हूं। उसके बाद बीज की बुवाई करता हूं। ईसबगोल की खेती में कम लागत कम आती है और मुनाफा अच्छा होता है इसलिए मेरी देखा-देखी यहां के कई किसान मुझ से बीज ले जाते हैं और खेती करते हैं।”
हरियाण के भिवानी जिले के रहने वाले किसान खुशवीर मोठसरा बताते हैं, “ईसबगोल की बुआई छिटकवाँ विधि से करने पर पौधे घने होते हैं जिससे खरपतवारों का प्रकोप कम होता है। बुवाई के 20 से 25 दिन बाद पहली निराई करके खरपतवार उन्मूलन करना चाहिए। फसल अवधि में 2 से 3 निराइयों की आवश्यकता होती है। ईसबगोल की उन्नत सस्य विधियों से खेती करने पर प्रति हेक्टेयर 10 से 12 क्विंटल बीज प्राप्त होता है। इसके बीजो में भूसी की प्राप्ति 20 से 30 प्रतिशत तक होती है। फसल का बाजार भाव उचित न होने पर इसके बीज व भूसी को नमी सोखने से बचाने के लिए शुष्क स्थान में भंडारण करना चाहिए। नमी के प्रभाव में आने पर भूसी की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे बाजार भाव भी कम हो जाता है।”
80 फीसदी बाजार पर है भारत का कब्जा
ईसबगोल एक मेडिसिनल प्लांट है। इसके बीज तमाम तरह की आयुर्वेदिक और एलोपैथिक दवाओं में इस्तमाल होता है। विश्व के कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत केवल भारत में ही पैदा होता है।
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तीन से चार माह में पक जाती है फसल
भारत में करीब तीन तरह की ईसबगोल पैदा की जाती है। इस व्यवसाय से जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं की हरियाणा-2 किस्म की ईसबगोल की फसल 9 दिन से लेकर 115 दिनों के अंदर ही पक कर तैयार हो जाती है जिसके बाद इस फसल को काटकर इसके बीजों को अलग कर लिया जाता है तथा बाजार में बेच दिया जाता है।
एक हेक्टेयर में ढाई लाख रुपए तक की हो जाती है कमाई
अगर हम एक हेक्टेयर खेती के आधार पर ही अनुमान लगाएं तो एक हेक्टेयर मैं ईसबगोल की फसल से लगभग 15 क्विंटल बीज प्राप्त होते हैं और अगर मंडी में इसके ताजा दामों को पता करें तो इस समय लगभग 12,500 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिल रहा है। इस प्रकार से देखा जाए तो केवल बीज ही 1,90,000 रुपए के होते हैं। इसके अलावा सर्दियों में ईसबगोल के दाम बढ़ जाते हैं जिससे आमदनी और ज्यादा हो जाती है।
प्रोसेसिंग के बाद मिलते हैं जबरदस्त फायदे
अगर ईसबगोल के बीजों को प्रोसेस कराया जाए तो और ज्यादा फायदा होता है। हकीकत में प्रोसेस होने के बाद ईसबगोल के बीजों में से लगभग 30 प्रतिशत भूसी निकलती है और यही ईसबगोल की भूसी इसका सबसे महंगा हिस्सा माना जाता है। भारत के थोक बाजार में इस भूसी का रेट करीब 25,000 प्रति क्विंटल माना जाता है। यानी कि एक हेक्टेयर में पैदा हुई फसल की भूसी का दाम 1.25 लाख पर बैठता है। इसके अलावा ईसबगोल की खेती में से भूसी निकलने के बाद खली, गोली आदि अन्य उत्पाद बचते हैं जो करीब डेढ़ लाख रुपए तक में बिक जाते हैं।
भारत वर्ष में औषधीय पौधों से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में ईसबगोल का अग्रणीय स्थान है। ईसबगोल एक वर्षीय महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसके पौधे लगभग 30-50 सेमी. तक ऊँचे होते है तथा इनसे 20 से 25 कल्ले निकलते है। इसके बीज के ऊपर वाला छिलका जिसे भूसी कहते है इसी का औषधीय दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसे ईसबगोल की भूसी कहा जाता है। इसकी भूसी में म्यूसीलेज होता है जिसमें जाईलेज, एरेबिनोज एवं ग्लेकटूरोनिक ऐसिड पाया जाता है। इसके बीजों में 17 से 19 प्रतिशत प्रोटीन होता है।
डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ), कृषि महाविद्यालय, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषकनगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
ईसबगोल की खेती करने का तरीका
जलवायु :- फसल की अच्छी पैदावार के लिए ठंडा व शुष्क वातावरण तथा पकाव के समय शुष्क मौसम की आवश्यकता रहती है। पकाव के समय वर्षा होने पर बीज झड़ जाता हैतथा छिलका फूल जाता है, इससे बीज की गुणवत्ता व पैदावार दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
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भूमि :- ईसबगोल की खेती केलिए हल्की दोमट मिट्टी, बलुई मिट्टी जिसमें पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त रहती है। चिकनी हल्की काली व ज्यादा काली मिट्टी जिसमें पानी का निकास अच्छा हो वो भी उपयुक्त रहती है।
भूमि की तैयारी :- दो या तीन बार हैरो या देसी हल से जुताई करें। मिट्टी को भुरभुरा बनाकर सुहागा लगा दें। खेत को समतल करें ताकि कहीं भी पानी न खड़ा रह सके।
बिजाई का समय :- यह रबी मौसम की फसल है तथा इसकी बिजाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवंबर माह होता है।
बिजाई का तरीका व बीज की मात्रा :- बीज को अच्छी नमी वाले खेत में 1.5 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से छिडक़कर उर्वरक के रूप में हल्का सुहागा का प्रयोग किया जाता है। इसको 22.5 सेमी. यानि 9 इंच के फासले पर लाइनों में भी बोया जाता है। बीज एक से दो सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं गिरना चाहिए। तीन किलोग्राम बीज प्रति एकड़ में बिजाई के लिए काफी है।
खाद :- 18 किलोग्राम नाइट्रोजन व 6 किलोग्राम फासफोरस प्रति एकड़ में पर्याप्त रहता है। नाइट्रोजन दो भागो में डालना चाहिए। प्रथम खेत की तैयारी के समय, दूसरा पहली सिंचाई के बाद। संपूर्ण फासफोरस बिजाई से पहले ही मिट्टी में मिला दें।
सिंचाई :- बीज के जमाव के लिए पर्याप्त नमी का होना अत्यंत जरूरी है। अच्छा जमाव पर प्रथम सिंचाई 25-30 दिन बाद करें तथा उसके बाद दो बार सिंचाई क्रमश: एक महीने की अवधि पर करें। इस फसल में तीन बार सिंचाई पर्याप्त रहती है।
निराई व गुड़ाई :- फसल की धीमी बढ़वार व कम ऊंचाई होने के कारण प्रारंभिक अवस्था में दो-तीन गुड़ाई अवश्य करें ताकि खरपतवार फसल को नुकसान न पहुंचा सकें।
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पौध संरक्षण :- कभी कभी जोगिया रोग मतलब डाऊनी मिल्ड्रयू फसल को नुकसान पहुंचा देता है। इसकी रोकथाम के लिए थायरम या सेरेंसान तीन ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करके बिजाई करनी चाहिए। बीमारी आने पर डाईथेन एम 45 या रेडोमिल का 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर 2 से 3 बार 15 दिन के अंतर पर छिडक़ें।
तीन से चार माह में तैयार हो जाती है फसल :- ईसबगोल की फसल 100 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्ते पीले पड़ जाते हैं तथा सिरे भूरे रंग के हो जाते हैं। सिरों को अंगूठे व अंगुलियों से दबाने से बीज बाहर आ जाता है। अच्छी फसल से औसत पैदावार 4 से 5 क्विंटल तक ली जा सकती है।
ईसबगोल की उन्नत किस्में
जवाहर ईसबगोल 4 :- यह प्रजाति 1996 में औषधीय एवं सुगन्धित पौध की अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत कैलाश नाथ काटजू उद्यानिकी महाविद्यालय , मंदसौर (राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय,ग्वालियर) द्वारा म.प्र. के लिए अनुमोदित एवं जारी की गई है। इसका उत्पादन 13-15 क्विंटल प्रति हेक्टयर लिया जा सकता है।
गुजरात ईसबगोल 2 :- यह प्रजाति 1983 में अखिल भारतीय समन्वित औषधीय एवं सुगन्धित पौध परियोजना, आणंद, गुजरात से विकसित की गई हैं। इसका उत्पादन 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टयर लिया जा सकता है।
हरियाणा ईसबगोल 5 :- यह प्रजाति अखिल भारतीय समन्वित औषधीय एवं सुगन्धित पौध परियोजना, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा 1989 में निकाली गई हैं। इसका उत्पादन 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टयर लिया जा सकता है।
अन्य किस्मों में गुजरात ईसबगोल 1, हरियाणा ईसबगोल-2, निहारिका, ट्राबे सलेक्शन 1 से 10 आदि का चयन कर बुवाई की जा सकती है।
विदेशों में है इसकी भारी मांग
वर्तमान में हमारे देश से प्रतिवर्ष 120 करोड़ के मूल्य का ईसबगोल निर्यात हो रहा है। विश्व में ईसबगोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका है। विश्व में इसके प्रमुख उत्पादक देश ईरान, ईराक, अरब अमीरात, भारत, फिलीपीन्स इत्यादि हैं। भारत का स्थान ईसबगोल उत्पादन एवं क्षेत्रफल में प्रथम है।