चने की फसल को नुकसान पहुंचा रहा नया रोग, जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में बढ़ सकती हैं कई दूसरी बीमारियां

जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर भी पड़ रहा है, वैज्ञानिकों के एक अध्ययन में पता चला है कि भविष्य में चने की फसल में कई तरह की मिट्टी जनित बीमारियों का प्रकोप बढ़ सकता है।
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देश के कई राज्यों में बड़े पैमाने पर चने की खेती होती है, भारत की ज्यादातर घरों की रसोई में चने का किसी न रूप में इस्तेमाल होता है। ऐसे में वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि जलवायु परिवर्तन से भविष्य में चने के पौधों की जड़ सड़न जैसी मिट्टी जनित बीमारियों के होने की संभावना बढ़ सकती है।

वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले कुछ वर्षों में चने की फसल में शुष्क जड़ सड़न (dry root rot) बीमारी का प्रकोप बढ़ा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ते तापमान वाले सूखे की स्थिति और मिट्टी में नमी की कमी से ये बीमारी तेजी से बढ़ती है। यह रोग चने की जड़ और धड़ को नुकसान पहुंचाता है। शुष्क जड़ सड़न रोग से चने के पौधे कमजोर हो जाते हैं, पत्तियों का हरा रंग फीका पड़ जाता है, ग्रोथ रुक जाती है और देखते-देखते तना मर जाता है। अगर ज्यादा मात्रा में जड़ को नुकसान होता है, तो पौधे की पत्तियां अचानक मुरझाने के बाद सूख जाती हैं।

इस बीमारी के बारे में और अधिक जानने के लिए आईसीआरआईएसएटी (इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स) की प्रधान वैज्ञानिक डॉ. ममता शर्मा ने चने की फसल में इस बीमारी के बढ़ने का कारण जानने की पहल शुरू की है।

ममता शर्मा इस बीमारी के बारे में बताती हैं, “क्लाइमेट चेंज की वजह से जैसे-जैसे तापमान बढ़ा रहा है और मिट्टी में नमी कम हो रही है। इसके साथ ही कई नई बीमारियां आने लगी हैं, जो पहले नहीं देखी जाती थी। इसलिए हमने इस पर रिसर्च शुरू की जिसमें हमने एक नई बीमारी ड्राई रूट रॉट देखी, जोकि पिछले कुछ सालों में बढ़ती जा रही है, जैसे जैसे ये तापमान बदल रहा है।”

मैक्रोफोमिना फेजोलिना नाम के रोगाणु के कारण चने में जड़ सड़न रोग होता है, यह एक एक मिट्टी जनित परपोषी है। 

वो आगे कहती हैं, “फसल में फूल और फल लगते हैं तो उस समय अगर तापमान बढ़ता और मिट्टी में नमी कम हो जाती है तो इस रोग से चने में काफी नुकसान होने लगता है, इससे पौधे हफ्ते 10 दिन में सूखने लग जाते हैं।”

वैज्ञानिकों ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे राज्य जहां पर चने की खेती ज्यादा होती है, वहां पर किसानों से बात की। डॉ शर्मा बताती हैं, “हम देश के ऐसे राज्यों के किसानों के पास गए जहां पर चने की ज्यादा खेती होती है, तो हमें पता चला कि ज्यादातर जगह पर यही बीमारी लग रही है। इसके बाद हमने इसका टेस्ट किया, इसे बढ़ने के लिए कितने तापमान की जरूरत होती है, मिट्टी में कितनी कम नमी होगी तब इसका असर ज्यादा होगा।” वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस बीमारी से इन राज्यों में फसल का कुल 5 से 35 प्रतिशत हिस्सा संक्रमित होता है।

वैज्ञानिकों ने देखा कि जब तापमान 30 डिग्री से ज्यादा और नमी 60 प्रतिशत से कम है तो यह बीमारी ज्यादा बढ़ती है। “फिर हमने आगे और जानना चाहा कि जब यह बीमारी आती है तो पौधों के कितने अंदर तक जाती, इसलिए हमने डीएनए स्तर तक चेक किया, तब हमने देखा कि पौधों के अंदर कौन से जीन के कारण यह बीमारी होती है, “डॉ ममता ने आगे कहा।

चने में इस रोग का पता लगाने की शुरूआत वैज्ञानिकों ने साल 2016-17 में की थी, जब उन्हें पता चला कि चने में नई बीमारी लग रही है।

विश्व में चने की खेती लगभग 14.56 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में होती है, जिसका वार्षिक उत्पादन 14.78 मिलियन टन होता है, जबकि भारत में चने की खेती लगभग 9.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में होती है, जोकि विश्व का कुल क्षेत्रफल का 61.23% है।

वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि मैक्रोफोमिना पर्यावरण की परिस्थितियों की एक विस्तृत श्रृंखला में जीवित रहता है। यहां तक कि तापमान, मिट्टी के पीएच और नमी की चरम स्थिति में भी यह जिंदा रह सकता है।

भविष्य में इस रोगजनक की विनाशकारी क्षमता की संभावित स्थिति जानने के लिए यह शोध किया गया है। वैज्ञानिक अब रोग का प्रतिरोध करने के क्षेत्र में विकास और बेहतर प्रबंधन रणनीतियों के लिए इस अध्ययन का उपयोग करने के तरीके की तलाश कर रहे हैं। डॉ ममता कहती हैं, “अभी हम इससे फसल बचाने के लिए रिसर्च कर रहे हैं। कुछ बातों का ध्यान रखकर किसान अपनी फसल को बचा सकते हैं, जैसे कि खेत में ज्यादा खरपतवार न इकट्ठा होने पाए और अगर किसान के पास सिंचाई की सुविधा है तो अगर सिंचाई कर दें तो कुछ नुकसान से बच सकते हैं।

वैज्ञानिकों की टीम अब चने की फसल को डीआरआर संक्रमण से बचाने पर काम कर रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के सहयोग से आईसीआरआईएसएटी की टीम ने पौधों से संबंधित इस तरह के घातक रोगों से लड़ने के लिए निरंतर निगरानी, बेहतर पहचान तकनीक, पूर्वानुमान मॉडल का विकास और परीक्षण आदि सहित कई बहु-आयामी दृष्टिकोण भी अपनाए हैं।

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