महेंद्र सिंह टिकैत ने अपने मंच पर राजनेताओं को क्यों नहीं चढ़ने दिया

महेंद्र सिंह टिकैत की ख़ासियत थी कि वो सर्वसुलभ थे। जब वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे तब भी अपने हाथों से खेती किया करते थे और ठेठ गाँव की भाषा में हर व्यक्ति से संवाद करते थे। उन्हें ये नहीं पसंद था कि उनके संगठन को राजनीतिक फायदे के लिए कोई इस्तेमाल करें।
#Mahendra Singh Tikait

देश में 18वीं लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच खेती-बाड़ी से जुड़े तमाम सवाल गाँव देहात में मुखरित हो रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में एमएसपी की कानूनी गारंटी से लेकर किसानों की फसलों के वाजिब दाम समेत कई मुद्दे शामिल हैं। सभी दल 14 करोड़ से अधिक किसान परिवारों को रिझाने में लगे हैं। चुनाव के पहले और किसान आंदोलन के बीच चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के साथ राजनीति गरमा गयी।

भाजपा ने किसान मतों को रिझाने के लिए रालोद के साथ गठबंधन भी किया। राजनीतिक गहमागहमी के बीच में ही 15 मई को किसान राजनीति के चौधरी यानी चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जन्मदिन जल, जंगल और ज़मीन बचाओ दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। आज़ाद भारत की किसान राजनीति के वे सबसे बड़े नायक थे।

आजादी के पहले देश में पिछले सौ सालों में कई किसान आंदोलन हुए। खुद महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य नरेंद्र देव, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, स्वामी सहजानंद और प्रो. एनजी रंगा जैसे दिग्गज किसान आंदोलनों से जुड़े रहे। पर आजादी के बाद तस्वीर बदली। कई किसान संगठन बने और कई बड़े नेता उभरे। समय के साथ किसान राजनीति के रंग और तेवर कलेवर बदल गए। लेकिन चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत बाकी किसान नेताओं से हमेशा अलग रहे। इसी कारण वे भारत के किसानों के दिलों में स्थायी जगह बनाने में कामयाब रहे। बेबाकी से किसानों की बात रखना और नुकसान लाभ की परवाह नहीं करना उनकी खूबी थी। उनसे मैं पहली बार 1988 में मेरठ कमिश्नरी धरने पर मिला था। बाद में एक दैनिक अख़बार से जुड़ने के बाद उनके हमेशा संपर्क बना रहा। उनसे जुड़ी तमाम ऐतिहासिक और निजी घटनाओं का मैं गवाह भी रहा हूँ। ऐसे दौर में उन्होंने किसानों को संगठित किया जब वास्तव में इसकी सबसे अधिक ज़रूरत थी।

चौधरी टिकैत ने किसान को एक जाति और किसानी को धर्म कहा। पर किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के खांचे में बंटने नहीं दिया। उनका नेतृत्व दक्षिण के उन किसानों ने भी स्वीकार किया जो उनकी भाषा भी नहीं जानते थे। पर उनको यकीन था कि चौधरी टिकैत ही ईमानदारी से उनके लिए खड़े रहेंगे।

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में जो किसान आंदोलन उभरा उसकी संगठन क्षमता और तेवर ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया पर असर डाला। विदेशी मीडिया मेरठ, गंग नहर के किनारे भोपा, सिसौली, शामली और बोट क्लब पर किसानों की भीड़ और टिकैत का करिश्माई व्यक्तित्व देख कर हैरान थी। 1987 के बाद अपनी आखिरी सांस तक वे भारत के किसानों के एकछत्र नेता बने रहे।

चौधरी टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन ने दो बड़ी उपलब्धियां हासिल की । उदारीकरण की आंधी में भारत के कृषि क्षेत्र को एक हद तक बचाया। नीतियों में बदलाव आया पर वैसा नहीं जैसा विश्व व्यापार संगठन या बड़े देश चाहते थे। टिकैत दिल्ली ही नहीं विदेशों में आवाज़ उठाने पहुँचे। किसान आंदोलन के सबसे अहम पड़ाव यानी करमूखेड़ी बिजलीघर पर हुए पुलिस गोलीकांड में दो नौजवानों जयपाल और अकबर की शहादत को भाकियू ने कभी नहीं भुलाया।

1989 में मुज़फ्फरनगर के भोपा क्षेत्र की मुस्लिम युवती नईमा के साथ न्याय के लिए चौधरी साहब ने जो आंदोलन चलाया उसने एक अनूठी एकता का संकेत दिया। टिकैत के नेतृत्व में हुई अधिकतर विशाल पंचायतों की अध्यक्षता सरपंच एनुद्दीन करते थे और मंच संचालन का काम गुलाम मोहम्मद जौला। जब 1987 में मेरठ में भयावह सांप्रदायिक दंगे फैले तो भी भारतीय किसान यूनियन ने ग्रामीण इलाकों में एकता बनाए रखी। टिकैत की आवाज सभी सुनते थे।

मुजफ्फरनगर के सिसौली गाँव में 6 अक्टूबर 1935 को जन्मे चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का पूरा जीवन ग्रामीणों को संगठित करते बीता। भारतीय किसान यूनियन 1986 में बनाई तो उनका प्रयास यही रहा कि यह अराजनीतिक बना रहे। मेरठ की कमिश्नरी 24 दिनों के घेराव ने चौधरी साहब की ख्याति दूर दूर तक पहुँचा दी। किसानों के हकों के सवाल पर राज्यों और केंद्र सरकार से टिकैत की कई बार लड़ाई हुई।

टिकैत का आंदोलन हमेशा अहिंसक रहा। वे गांधीजी की राह के पथिक थे और चौधरी चरण सिंह के विचारों का उन पर प्रभाव था। उनमें धैर्य था ; 110 दिनों तक चला रजबपुर सत्याग्रह हो या फिर दिल्ली में वोट क्लब की महापंचायत। फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार से लेकर दिल्ली की तिहाड़ जेल में वे गए तो लोगों का आदर पाया।

टिकैत जब भी दिल्ली-लखनऊ कूच का ऐलान करते तो सरकारी प्रतिनिधि उनको मनाने सिसौली पहुंचते। लेकिन टिकैत को जो ठीक लगता था वही करते थे। उनकी सादगी, ईमानदारी और लाखों किसानों में उनका भरोसा आंदोलनों में साफ दिखा। आंदोलनों में वे मंच पर जरूरी होने पर जाते थे, बाकी हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसानों की भीड़ में कहीं भी पहुँच जाते थे। विदेशी पत्रकारों को उनसे मिल कर हैरानी होती थी। धूल माटी से लिपटा उनका कुर्ता, धोती और सिर पर टोपी के साथ उनकी बेलाग वाणी ने उनको बाकियों से हमेशा अलग बनाया। अपने घर पर वे आम किसान ही थे। आंदोलन के लिए कभी किसी बड़े आदमी से चंदा नहीं माँगा। आंदोलन किसानों ने अपने दम पर चलाया। उनके हर आंदोलन में वाजिब दाम का मुद्दा शामिल रहा। जीवन भर वे किसानों की लूट के खिलाफ सरकारों को आगाह करते रहे। वे दोस्तों के दोस्त थे। चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भारतीय किसान राजनीति में एक प्रकाश पुंज की तरह उभरे थे। उनमें गहरी समझ थी। उनमें कभी दंभ नहीं दिखा।

आज़ादी के बाद के वे ही एकमात्र ऐसे किसान नेता थे जिनको पश्चिमी मीडिया ने भी महत्व दिया। इसके पीछे असली वजह उनकी सोच और आंदोलन का अभिनव तरीका रहा। संगठन शक्ति से टिकैत ने किसानों की बात मनवा ली। पर हर चीज के लिए उनको दिल्ली लखनऊ जाना गंवारा नहीं था। वे संसद और विधान सभाओं से खुद दूर रहे और अपने साथियों को भी दूर रखा। राह चलते किसानों के तमाम झगड़े वे निपटा देते थे। 15 मई 2011 को 76 साल की आयु में उनका निधन हो गया लेकिन लाखों किसान आज भी अपने सवालों पर चौधरी टिकैत के बनाए संगठन भारतीय किसान यूनियन और राकेश टिकैत की तरफ देखता है।

(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं )

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