जातीय जनगणना वास्तव में एक निरर्थक अनावश्यक प्रयास होगा जिसे अंग्रेजी में ‘‘एक्सरसाइज इन इन्फ्युटीलिटी’’ कहते है। पिछले लगभग 80 साल में अलग-अलग सरकारों ने जातियों की बराबर चिंता की है और उनकी संख्या का अनुमान भी है लेकिन वास्तविक संख्या किसी को नहीं पता है ना पता हो पाएगी। भारत में 2000 से 3000 के लगभग जातियाँ रहती हैं यह जातियाँ घटती और बढ़ती रहती हैं स्थाई नहीं है और इनका मूल्यांकन करना, यानी किस जाति में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं और कितने गरीबी रेखा के नीचे, शायद ही कोई बता पाए पिछले 80 साल में तो नहीं पता लगा।
आसान क्यों नहीं है जातीय जनगणना
अकेले उत्तर प्रदेश में ढाई सौ से अधिक जातियाँ रहती हैं लेकिन सरकारी व्याख्या में या तो सवर्ण है या पिछड़ी जाति अथवा अनुसूचित जातियाँ। क्या इनका मूल्यांकन हैसियत के हिसाब से, आर्थिक दशा, शिक्षा सामाजिक स्थिति के परिप्रेक्ष में हो पाएगा? यदि कोई बता सके की 1947 में प्रत्येक जाति का क्या स्टेटस था और आज क्या है तब तो पता चलेगा कि हम जातीय विकास की दिशा में बढ़े हैं या नहीं । पहली समस्या तो यही आएगी कि यदि 3000 जातियों को गिन भी डालें तो इसका करें क्या ? अदालतों के अपने विचार होंगे, समाज सुधारकों के अपने विचार और राजनीति की रोटियाँ सेकने वालों की तो दुनिया ही अलग है। जातीय जनगणना के दौरान और उसके बाद भी जातीय स्वार्थ टकराएंगे और जातियों के आधार पर टुकड़े-टुकड़े गैंग बनेंगे। ऐसा लगता है कि पिछड़ी जातियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का इरादा ही नहीं है इन लोगों का, अन्यथा जो लोग दलित समाज से ऊपर उठ चुके हैं उन्हें अलग करके बाकियों को मौका दिया जाता, जैसे मंडल योजना में अदालतों ने एक क्रीमी लेयर का राइडर लगाया है। अब शायद अनुसूचित जाति और जनजाति में भी यही राइडर लगाने का आदेश अदालत में पारित किया है।
इतने से ही काम नहीं चलेगा, यदि आप सचमुच पिछले समाज को ऊपर उठाना चाहते हैं तो प्रत्येक परिवार को केवल एक बार आरक्षण या सुविधा या अनुदान या कोई भी अन्य व्यवस्था के अंतर्गत लाभ दिया जाए और लाभार्थी की संतानों को इससे बाहर रखा जाए। तब आशा की जा सकती है कि जो सुधरते, संपन्न होते रहेंगे, उसके बाद जो बचेंगे उनका कल्याण कर लिया जाएगा, अन्यथा ‘’आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’।
इस सीमा तक बातें सुनने में आती हैं जैसे बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ‘’स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’। तो क्या आरक्षण को स्वतंत्रता के बराबर समझते हैं? गाँव देहात में कितने ही अनुसूचित और पिछड़ी जाति के परिवारों से 80 साल में अध्यापक, प्रधानाध्यापक, होटल के मालिक, बड़े दुकानदार यह सब निकल रहे हैं और फिर भी उनके संताने सुविधाओं और आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं। ऐसी दशा में यह कल्पना करना कि जाति के आधार पर जनगणना कर लेने भर से जातीय विकास हो जाएगा, ये सोचना मूर्खता होगी । फिर भी हमारे देश और समाज में कुछ लोगों को यह भरोसा हो गया है कि जातियाँ गिन डालो, विकास
अपने आप हो जाएगा, 80 साल तक यह खूबसूरत विचार क्यों नहीं आया? क्या आज के नेता अपने आप को डॉक्टर अंबेडकर से बड़ा समाजसेवी समझते हैं। जिन्होंने दस साल का समय पर्याप्त समझा था ।
खत्म हो चुकी हैं कई परम्पराएँ
सच तो यह है कि इन लोगों को यह नहीं पता होगा कि देश में कितनी जातियाँ हैं और उन जातियों द्वारा किए गए क्या काम हैं? उदाहरण के लिए सिर पर मैला ढोने की परंपरा थी और शहरों तथा कस्बों में झाड़ू-पंजा और टोकरा लेकर जाते हुए जमादार परिवारों के लोग नजर आते थे। यह परंपरा सनातन नहीं हो सकती, क्योंकि सनातन परंपरा में घर के अंदर शौच करने का रिवाज नहीं था, बल्कि नदियों, तालाबों और खेतों में शौच के लिए जाने की परंपरा थी। इसलिए यह जो मैला ढोने वाली जातियाँ तैयार की गई वह सनातन समाज ने नहीं तैयार की होगी और इस वर्ग के लोगों ने भी राजी-खुशी से यह काम स्वीकार नहीं किया होगा। अब यह काम समाप्त हो चुका है शौचालय घर-घर में बने हैं और सड़कों पर कोई भी आदमी या औरत झाड़ू पंजा और टोकरा लेकर जाते हुए नजर नहीं आती। इसलिए अब यदि आप जमादार वर्ग की गिनती करेंगे जिसे आजकल वाल्मीकि समाज कहा जाता है तो ,उनकी संख्या कितनी लिखेंगे, वह जाति जो समाप्त हो चुकी है उसे पुनर्जीवित करेंगे, मर्जी आपकी।
इसी प्रकार रविदास परिवारों के लोग गाँव का जो भी जानवर मर जाता था उसे उठाकर कंधे पर लादकर गाँव के बाहर ले जाते थे और उसकी खाल निकालकर घर ले आते थे, तथा मांस वहीं छोड़ देते थे। अब यह परंपरा समाप्त हो चुकी है और रविदास परिवारों के लोग अध्यापक और प्रधानाध्यापक बन रहे हैं, शहरों में होटल खोल रहे हैं और समाज में सम्मानित हो चुके हैं तो क्या वह जाति फिर से जीवित करना चाहोगे?
जाति व्यवस्था कई बुराइयों के लिए है दोषी
हमारे देश में जाति व्यवस्था को बहुत सी बुराइयों के लिए दोषी माना जाता है और आजादी के बाद अनेक समाज सुधारक हुए है। समाजवादियों, साम्यवादियों और अन्य राजनेताओं ने जाति विहीन समाज पर जोर दिया था। उनका प्रयास था कि जातिवादी व्यवस्था में ऊंच-नीच और छुआछूत के अनेक रोग पैदा होते हैं। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज के नेता जाति-गणना और जातिगत लामबंदी पर जोर दे रहे हैं और कुछ प्रांतों में यह काम कर भी लिया है। अब सवाल है कि क्या हम जातियों की गणना करते समय जातियों की पहचान करके उन्हें अलग से लामबंद करने से पुरानी ऊंच नीच की व्यवस्था को जन्म तो नहीं देंगे? और यदि जन्म देंगे ,तो महात्मा गांधी का वह प्रयास व्यर्थ जायेगा, जिसमें उन्होंने हरिजन शब्द का प्रयोग किया था, ताकि ऊंच नीच का भाव न रहे।
अब देखना होगा कि जातिगत लामबंदी का परिणाम क्या होता है? हाँ इतना जरूर है कि जब पंचायत के चुनाव होते हैं और सवर्ण और पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के लिए पद आरक्षित किए जाते हैं, तो गाँव-गाँव में जातीय कड़वाहट बढ़ती है, यह आंखों से देखा जा सकता हैी जातीय संघर्ष पहले इतना नहीं था, जब अंग्रेजों या मुगलों के जमाने में समाज जातियों में बँटा था, उच्च नीच का भाव भी था, लेकिन उसी भाव के साथ सब लोग शांति से जीवन बिताया करते थे। आज की तारीख में छोटे काम करने वाले लोगों ने अपना काम छोड़ दिया है । इसके विपरीत कितने ही ब्राह्मण दुकान चलाते हुए चमड़े का व्यापार करते हुए आपको मिल जाएंगे अब आप इनकी कौन सी जाति लिखेंगे? जो लोग यह सोचते हैं, जूता बनाने वाले आज की तारीख में अध्यापक और प्रधानाध्यापक बन गए हैं फिर भी उन्हें रविदास ही कहा जाए यह उनकी बुद्धि है या फिर सोची समझी रणनीति। जिस रफ्तार से जातियों के बीच की दीवारें टूट रही हैं, उसी रफ्तार को बढ़ाया जाना चाहिए ना कि उन्हें मजबूत किया जाए। जातीय भेदभाव को बनाए रखना और उसे मजबूत करना, ऊँच नीच की भावना बनाए रखना या तो मूर्खता कही जाएगी अथवा धूर्तता कही जाएगी। जातीय गणना की बातें तो बहुत हो रही है लेकिन इस गणना का प्रयोजन क्या है? अधिक स्पष्ट नहीं है।
मोहम्मद अली जिन्ना की तरह की है योजना
आबादी के अनुपात में यदि सुविधा और सरकारी नौकरियां आदि बांटने की योजना हो तो यह मोहम्मद अली जिन्ना की तरह की योजना कही जाएगी। जिन्ना ने यही तो कहा था कि मुसलमानों को मुस्लिम आबादी के अनुपात में भारत का भू-भाग दिया जाए और लगभग उसी अनुपात में दिया गया, परंतु मुस्लिम समाज के तमाम लोग भारत छोड़कर गए ही नहीं, जबकि शायद उनके हिस्से की जमीन पाकिस्तान को चली गई। यदि जातिगत जनगणना को विकास की मौलिक जानकारी के रूप में प्रयोग में लाया जाना है तो फिर इंसान को इकाई मानकर और गरीबी रेखा को बंटवारा मानकर विकास की अवधारणा को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। यदि गरीबी रेखा को आधार नहीं मनाना चाहते तो फिर कोई दूसरा सेकुलर पैमाना चुनना चाहिए और उसे आधार मानकर राष्ट्रीय विकास की दिशा में बढ़ाना चाहिए।
माननीय अदालतों ने आरक्षण के मामले में जातियों में क्रीमी लेयर की पहचान आवश्यक कर दी है। तब क्या पिछड़ी जातियों में क्रीमी लेयर होगी और अन्य जातियों में नहीं होगी? ग्रामीण इलाकों में सभी जातियों के मकान और उनकी माली हालत लगभग एक जैसी है । इसलिए यह निश्चित है की संपूर्ण जातियाँ ना तो समृद्ध है और ना निर्धन बल्कि हर एक जाति में गरीब और अमीर दोनों प्रकार के लोग पाए जाते हैं। यदि ऐसा ना होता तो माननीय अदालत को क्रीमी लेयर का राइडर ना लगाना पड़ता। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में करीब 25% लोग गरीबी रेखा के नीचे वाले हैं और शहरी इलाकों में केवल 13 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। अब क्या आरक्षण और तमाम सुविधाएँ देते समय ग्रामीण अनुसूचित और शहरी अनुसूचित में भेद करेंगे या फिर ग्रामीण पिछड़े और शहरी पिछड़ों में अंतर कर पाएंगे। मैं समझता हूँ ऐसी गणना ना तो अभी तक हुई है और ना कभी हो पायेगी, राजनेता शायद ही यह जानना चाहेंगे कि कितने सवर्ण गरीबी रेखा के नीचे वाले हैं। आमतौर से यह माना जाता है कि ब्राह्मण और क्षत्रियों के पास अधिक धन और सुविधाएँ होती हैं लेकिन ब्राह्मण के बारे में स्वयं सुदामा ने कहा था
‘’औरनको धन चाहिए बावरी, ब्राह्मण को धन केवल भिक्षा’’।
चिंता का विषय यह नहीं होना चाहिए कि कौन सी जाति पूरी की पूरी गरीब और कौन सी जाति पूरी की पूरी अमीर है, बल्कि चिंता यह होनी चाहिए कि पिछले 77 साल में जो जातियाँ आजाद भारत के आरंभ में गरीब और पिछड़ी हुआ करती थी वह क्या आज भी उतनी ही गरीब और पिछड़ी हैं? और यदि हाँ तो सरकारों के लिए यह शर्मनाक कमेंट्री होगी कि 77 साल में भी डॉ अम्बेडकर का सपना पूरा नहीं हो सका। अब जहाँ तक पिछड़ी जातियों का सवाल है वह तो कृष्ण, बलदेव और ऐसे ही न जाने कितने लोगों के पूर्वज रहे हैं भीम और अर्जुन जैसे लोग भी इन्हीं के पूर्वज हैं तब तथा कथित पिछड़ी जातियों को निर्धन गरीब और विपन्न किसने बना दिया।
देश का विकास नहीं होगा
जातीय जनगणना से देश का विकास नहीं होगा
धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में एक समय आया जब पंजाबी मुसलमान और बंगाली मुसलमान के स्वार्थ टकराए और आपस में संघर्ष आरंभ हो गया, नतीजा ये हुआ पश्चिमी पाकिस्तान और बांग्लादेश का जन्म। अब हम देख रहे हैं कि बलूचिस्तान में संघर्ष चल रहा है और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी बेचैन है वह दिन दूर नहीं है जब पाकिस्तान के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। अब भारत के अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों के लोग यह समझते हैं कि उनकी जातियों का समूह एक इकाई की तरह है और वह इकाई की तरह ही रहेगा। यह नितांत ना समझी की बात है यदि उनके हिस्से की जमीन जायदाद अलग कर भी दी जाए तो उत्तर प्रदेश की 250 जातियाँ और भारत की हजारों जातियाँ एक दिन अपने स्वार्थ के कारण आपस में टकराएंगी ।
जातीय जनगणना की मांग करने वाले लोग शायद यह नहीं सोचते कि कुछ जातियों में बिजली पासी जैसे योद्धा पैदा होंगे और फिर से कुछ ही दिन में गरीब तैयार हो जाएंगे। उचित यह होगा की संपूर्ण भारत के नागरिकों को उनका सुनहरा अतीत याद दिलाया जाए और संपूर्ण भारतीय समाज अपने अतीत के गौरव से ओतप्रोत होकर एक राष्ट्र के रूप में खड़ा हो सके। उसी एक राष्ट्र में सवर्ण, पिछड़ी, अनुसूचित सभी जातियाँ अपनी क्षमता-योग्यता के अनुसार भागीदार स्वतः बन जाएंगे। पता नहीं हमारे जातीय गणना करने वालों की समझ में यह बात आएगी अथवा नहीं । जातियों को गोलबंद करने से कबाली गुटों की तरह जातीय संघर्ष तो बढ़ सकते हैं लेकिन देश का विकास नहीं होगा। टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में देश विभाजित हो जाएगा और ‘’एक भारत श्रेष्ठ भारत’’ की कल्पना केवल सपना रह जाएगी।