पन्ना (मध्यप्रदेश)। दो जवान बेटों की असमय मौत से बुरी तरह टूट चुके 65 वर्षीय सरदइयां गोंड़ के ऊपर परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। कपड़े उतार दें तो उनके भी शरीर की हड्डियां आसानी से गिनी जा सकती हैं। थोड़ा सा चलते हैं तो हांफने लगते हैं।
जिंदगी से हताश और ज्यादातर वक्त गुमसुम रहने वाले सरदइयां गांव कनेक्शन को बताते हैं, “मेरे दो जवान की बेटों की सांस की बीमारी सिलिकोसिस ने लील लिया। बेटों की मौत के बाद बहुएं अपने मायकें चली गईं। अब उनकी एक बेटी समेत 3 बच्चों का पालना मेरी जिम्मेदारी है।” बात खत्म होने तक वो दो बार जोर से खांस चुके थे।
उनके बड़े बेटे का नाम धनकू (30 वर्ष) था, जिसकी 12 साल पहले मौत हुई थी, जबकि पत्थर की खदान में काम करते हुए बीमार होने के बाद छोटे बेटे राजेश (27 वर्ष) की तीन साल पहले मौत हुई। सरकारी रिकॉर्ड में दोनों को टीबी बताया गया है।
सरदइयां मध्य प्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल बड़ौर गांव के रहने वाले हैं। करीब 800 की आबादी वाले बड़ौर गांव में ऐसे तमाम घर हैं जिनमें बुजुर्ग पिताओं ने बेटों की अर्थियों को कंधा दिया है या फिर बेटों की मौत के बाद बुजुर्ग माता-पिता घर चला रहे हैं। 75 फीसदी आदिवासी आबादी वाले इस गांव में ज्यादातर लोग पत्थरों की खदानों में काम करते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक खदान में काम करते करते जाने कितने नई उम्र के लड़के इस बीमारी से चले गए।
सरदइयां गोंड बताते हैं, “खदान में बमुश्किल 10-15 साल काम करते हैं, फिर बीमार पड़ जाते हैं। एक बार बीमार पड़े तो फिर काम करने लायक नहीं बचते। थोड़ी दूर चलने से ही सांस फूलने लगती है। यह ऐसी बीमारी है कि घुट-घुट कर मरने के सिवाय और कोई चारा नहीं है।”
गांव के लोग जिसे पत्थर वाली या सांस वाली बीमारी कहते हैं मेडिकल भाषा में उसे सिलिकोसिस कहा जाता है। सिलिकोसिस एक फ्राइब्रोटिक फेफड़े की बीमारी है, जो सिलिका (पत्थर के कण) को सांस के जरिए अंदर लेने से होती है।
खदान में पत्थर खोदने और पत्थर तोड़ने और तरासने वाले इसके सबसे ज्यादा शिकार बनते हैं। इसके अलावा पत्थर पीसने, पत्थर की मूर्तियां बनाने, पॉलिस करने, रत्थ काटने, टाइल्स बनाने और सीमेंट की चादर बनाने वाले कलाकार और मजदूर को इस बीमारी के होने का जोखिम रहता है। फेफड़ों की ये बीमारी अब तक लाइलाज है।
“अभी पिछले महीने ही 20 जून को सिलिकोसिस से ही सुखनंदी गोंड़ (58 वर्ष) की मौत हुई थी। कोई न कोई मरता ही रहता है। एक साल के भीतर एक ही परिवार के तीन सगे भाई मुन्ना गोंड़ (35 वर्ष), बलमू गोंड़ (25 वर्ष) तथा मुलायम गोंड़ (30 वर्ष) खत्म हुए हैं। तीनों पत्थर की खदानों में काम करते थे।” सरदइयां के पड़ोसी बुजुर्ग प्यारे लाल साहू (60 वर्ष) बताते हैं। वो खुद भी सिलिकोसिस से पीड़ित है। सुखनंदी सरकारी आंकड़ों में सिलिकोसिस के मरीज थे।
अपनी खांसी को दबाते हुए वो कहते हैं, “पन्ना में सिलिकोसिस की ना तो जांच की कोई व्यवस्था है और ना ही इलाज की। यहां डॉक्टर बीमार पड़ने पर टीबी (क्षय रोग ) बता देते हैं और टीबी का ही इलाज चलता है। और लोग मर जाते हैं।”
सिलिकोसिस: “हमारे गांव का नाम मोरस है, लेकिन लोग इसे मौत वाला गांव कहते हैं”
सिलिकोसिस की पहचान,इलाज और पुर्नावस को लेकर राज्य सरकार अक्सर सवालों के घेरे में रही हैं।
सिलिकोसिस पीड़ित संघ, सिविल सोसायटी और जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़े लोगों ने 2006 से 2016 तक सिलिकोसिस पर 4 रिपोर्ट प्रकाशित कीं। 2016 में आई रिपोर्ट Destined to die के मुताबिक मध्य प्रदेश के तीन जिलों के झबुआ, धार और अलीराजपुर के 105 गांवों में सिलिकोसिस के 1721 केस थे, जिनमें से 589 लोगों की मौत हुई। इसमें से 48 फीसदी महिला श्रमिक थी। हालांकि सरकारी रिपोर्ट के आंकड़े कुछ और कहानी कहते हैं।
सिलिकोसिस पीड़ित संघ के प्रतिनिधि और जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़े अमूल्य निधि गांव कनेक्शन को बताते हैं, “हमारी एक आरटीआई के जवाब में डायरेक्ट जनरल ऑफ माइंस (DGMS) ने जनवरी 2017 बताया कि पूरे देश में 2005 से 2016 तक खदानों में सिर्फ 43 सिलिकोसिल केस हैं जबकि अप्रैल 2017 में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दिया, जिसमें कहा कि देश के 36 राज्यों में 44155 माइंस के 235445 श्रमिक सिलिकोसिस के रिस्क (जोखिम) में है और 77 लोगों को सिलिकोसिस है। मेरी एक और आरटीआई के जवाब में उन्होंने बताया कि 2002 से 2015 तक फैक्ट्रियों में सिलिकोसिस के 7 राज्यों में 139 कंफर्म केस हैं।”
अमूल्य निधि आगे कहते हैं, “हमारी रिपोर्ट ‘डेस्टिनी टू डाई 2016’ के केसेज और आरटीआई के केसेज में देखेंगे तो बड़ा विरोधाभाष नजर आएगा। क्योंकि सरकारों के पास गैर संस्थागत कामगारों में होने वाली बीमारियों को लेकर कोई आंकड़ा ही नहीं है। जबकि हमारी रिपोर्ट को मानवाधिकार आयोग ने माना था और उस डाटा के आधार को सभी केसेज को कंफर्म भी माना था।” डेस्टिनी टू डाई की पहली रिपोर्ट 2006 में आई थी, 2016 में इस बीमारी पर ये चौथी रिपोर्ट थी।
मानवाधिकार आयोग लगा चुका है मध्य प्रदेश सरकार को फटकार
साल 2020 में मानवाधिकार आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन ने सिलिकोसिस पुर्नावास नीति न बनाए जाने को लेकर भी राज्य सरकार को फटकार भी लगाई थी।
अमूल्य निधि फोन पर गांव कनेक्शन को बताते हैं, “मध्य प्रदेश में सही तरीके से सिलिकोसिस मरीजों की पहचान सरकारी स्तर पर कभी की ही नहीं गई, एक मंदसौर के अलावा। वहां स्लेट पेंसिल कर्मकार मंडल ने 30 साल पहले जो काम किया वहीं हुआ। उसके अलावा प्रदेश में पन्ना समेत कुछ जिलों में सिविल सोसायटी, सुप्रीम कोर्ट या फिर मानवाधिकार आयोग की पहल पर कुछ जिलों में केस जरुर चिन्हिंत किए गए लेकिन सरकारी स्तर पर कोई व्यापक पहल नहीं हुई।”
अमूल्य निधि के मुताबिक मध्य प्रदेश में सिलिकोसिस के दो तरह के मामले हैं। एक तो जो मध्य प्रदेश से प्रवास कर गुजरात या राजस्थान जाते हैं। वहां खदानों में काम करते हैं और दूसरे जो प्रदेश में अंदर ही खदानों में काम करते हैं।
अमूल्य निधि कहते है, “मध्य प्रदेश में स्टोन और कोल माइंस से जुड़े पन्ना, छतरपुर, झबुआ, अलीराजपुर, धार के अलावा शहडोल, बेतुल, विदिशा, शिवपुरी समेत 14-15 जिले हैं, जहां सिलिकोसिस के केस सामने आते रहे हैं। सिलिकोसिस में मिस डाइग्नोस केस भी बहुत हैं और ये प्राय टीबी के रुप में होता है। ऐसे केस बहुत है। बहुत सारे लोगों की मौत हो चुकी है लेकिन उन्हें मुआवजा नहीं मिला क्योंकि जांच नहीं हुई या वो आंकड़ों में नहीं है।”
मध्य प्रदेश ही वो राज्य था जहां सिलिकोसिस से मौत पर मुआवजे और मरीज के पुर्नवास को लेकर सुप्रीम तक मामला पहुंचा था। जिसके बाद पूरे देश में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मुआवजा मिलने की शुरुआत हुई।
अमूल्य आगे बताते हैं, “सिलिकोसिस पीड़ित संघ की याचिका पर 10 साल लड़ाई लड़ने के बाद एमपी समेत पूरे देश में मृत्यु पर 3 से 4 लाख रुपए मिलने का सिलसिला शुरू हुआ। सुप्रीम कोर्ट का आदेश मौत से मुआवजे और पीड़ित (मरीज) के पुर्नवास पर था। लेकिन मध्य प्रदेश सरकार आज तक पुर्नवास पॉलिसी नहीं बना सकी। जिसे लेकर मानवाधिकार आयोग ने चिट्ठी भी लिखी थी।”
कोरोना महामारी में बढ़ीं सिलिकोसिस पीड़ितों की मुश्किलें
झबुआ में रहने वाले सिलिकोसिस पीड़ित संघ के अध्यक्ष दिनेश राय सिंह फोन के मुताबिक उन्हें अभी ये तो नहीं पता कि मध्य प्रदेश में अब सिलिकोसिस मरीजों की संख्या कितनी है लेकिन इतना जरूर पता है कि कोरोना ऐसे मरीजों की हालत और बद्तर हो गई है।
“कोरोना में हम लोगों (मरीजों) की हालत और बद्तर हो गई है। कहीं कोई इलाज और जांच नहीं हो रही है। डेढ-2 साल से लोग बस अपने घरों में पड़े हैं। झबुआ, अलीराजपुर, और धार में इलाज का कोई इंतजाम नहीं है। कई लोग मर भी चुके हैं। जिन लोगों को पुर्नवास के नाम पर 600 रुपए की पेंशन मिलती है वो भी इस महंगाई में गुजारे लायक नहीं है।”
पन्ना में बडौर जैसे गांव और भी हैं
पन्ना जिला मुख्यालय से महज 7 किलोमीटर दूर स्थित मनौर गांव के गुड़ियाना टोला के हालात भी बडौर जैसे ही हैं। इस गांव में भी कई लोगों की मौत सिलिकोसिस से हुई है। तकरीबन ढाई सौ घरों वाली इस आदिवासी बस्ती में भी 30 से अधिक विधवा महिलाएं हैं। भीषण गरीबी, कुपोषण व बेरोजगारी इस गांव की सबसे बड़ी समस्या है।
पन्ना के जिला खनिज अधिकारी रवि पटेल ने बताया, “पन्ना जिले में 106 पत्थर की खदानें संचालित हैं। वर्ष 2012-13 में चार सिलिकोसिस पीड़ितों को खनिज विभाग की अनुशंसा पर सहायता राशि श्रम विभाग द्वारा 3 लाख रुपये प्रति पीड़ित प्रदान की गई थी।”
सिलिकोसिस लाइलाज बीमारी है। इससे बचने का उपाय है कि सही समय पर इसकी जानकारी हो जाए, लेकिन लिए जांच जरूरी है लेकिन खनन मजदूरों के लिए ये आसान नहीं है।
पन्ना जिले में सिलिकोसिस की वास्तविक स्थिति जानने के लिए डॉक्टर हबीबुल्लाह सैयद के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की समिति ने पन्ना में 2 दिन रह कर 25 व 27 मार्च 2017 को जिला चिकित्सालय पन्ना में कैंप करके 30 मजदूरों की जांच की गई थी। जिसमें 12 मजदूरों को सिलिकोसिस पीड़ित बताया गया था।
पन्ना जिले में ही पत्थर खदान मजदूरों व कुपोषण पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था पृथ्वी ट्रस्ट से जुड़े रविकांत पाठक गांव कनेक्शन को बताते हैं, इससे पहले 2010 में इन्विरोनिक्स ट्रस्ट दिल्ली यहां खदानों में काम करने वाले 43 मजदूरों की जांच करवाई थी, जिसमें से जिनमें 39 मजदूर सिलिकोसिस पीड़ित पाए गए थे। फिर पत्थर खदान मजदूर संघ की पहल से वर्ष 2012 में 104 मजदूरों की जांच कराई गई।” पाठक के मुताबिक जांज हो तो मरीज और सामने आएंगे।
उनके मुताबिक पन्ना जिले में ही बडौर, पन्ना, मडैयन, दरेरा, मनौर, माझा, गॉधीग्राम, सुनारा, जनकपुर, तिलगवॉ, खजरी कुडार, कल्याणपुर, पुरूषोत्तमपुर, मानशनगर, जरधोबा, मनकी, जरूआपुर, पटी, जमुनहाई में सिलीकोसिस पीड़ित मरीज पाए गए हैं।
ग्राम पंचायत बडौर के सरपंच रूप सिंह यादव ने गांव कनेक्शन को बताते हैं, “बडौर पंचायत के अंतर्गत उमरावन, मड़ैयन व कैमासन गांव भी आते हैं। अकेले बडौर में 22 विधवा महिलाओं को 600 रुपये प्रतिमाह विधवा पेंशन दी जा रही है।”
गुड़ियाना टोला के गुन्नू आदिवासी के मुताबिक गांव के बहुत सारे युवा काम की तलाश में अब दिल्ली, राजस्थान और जम्मू चले जाते हैं क्योंकि यहां मनरेगा में भी काम नहीं मिलता। वो कहते हैं, “एक माह पहले तक ईट भट्ठा में काम मिल जाता था, लेकिन अब बारिश में काम बंद है इसलिए घर बैठे हैं। मनरेगा के भी काम नहीं चल रहे, ज्यादातर मशीनों से काम करा लिया जाता है। काम न मिलने के कारण गांव के ज्यादातर लोग दिल्ली, राजस्थान व जम्मू चले जाते हैं। पूरे 4 माह बाहर रहकर कमाएंगे इसके बाद वापस घर लौटेंगे। गांव की महिलाएं जंगल से लकड़ी का गट्ठा लाकर शहर में बेचने जाती हैं, जिससे उन्हें सौ डेढ़ सौ रुपए मिल जाता है। इसी से ही परिवार का गुजारा चलता है।”
कोरोना महामारी के संदर्भ में सिलिकोसिस मरीजों और पीड़ितों की मुश्किलों की तरफ इशारा करते हुए अमूल्य निधि कहते हैं, ” सिलिकोसिल का कोई इलाज नहीं है, कोई टीका नहीं बना। देखदेख और दवाओं से जीवन बढ़ाया जा सकता है। इन मरीजों के फेफड़े ही खराब होते हैं और कोरोना का असर भी फेफड़ों में होता है। सिलिकोसिल वालों को तो हमेशा की आक्सीजन सपोर्ट की जररुत पड़ती है उन्हें और देखरेख की जररुत थी जो नहीं हो रही।”