कीटनाशकों के प्रयोग से मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे हानिकारक दुष्प्रभावों की खबरें आये दिन पढ़ने सुनने को मिलती हैं। कीटनाशक कितने खतरनाक हो सकते हैं इसका अंदाजा कैंसर जैसे घातक रोगों की बढ़ती संख्या को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। देखने में आ रहा है कि आज खेती-किसानी इन कीटनाशकों पर पूरी तरह आश्रित होकर रह गई हैं। फसलों में लग रहे कीट, रोग, बीमारियां और खरपतवारों के निदान के लिए किसानों के सामने इन कीटनाशकों को प्रयोग करने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं रहता है। ऐसे में कीटनाशकों से मानव सहित पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए इनके विकल्प तलाशने की जरूरत है।
फसलों से अच्छा और बेहतर उत्पादन लेने के लिए उन्हें पूरी तरह से कीट, रोग, बीमारियों, खरपतवारों और फफूंद जनित रोगों से बचाने की जरूरत है। यदि किसानों के खेतों में खड़ी फसलें इन सभी समस्याओं से मुक्त हो जाए तो फसलों के उत्पादन में आशातीत वृद्धि प्राप्त की जा सकती है। यदि फसलों में कीट, रोग, खरपतवार की समस्या नहीं हो तो फसल उत्पादन पर आने वाली लागत काफी हद तक कम की जा सकती है।
ऐसी स्थिति में एक तरफ किसानों की लागत में कमी आयेगी वहीं दूसरी तरफ उत्पादन में वृद्धि होने से किसानों का मुनाफा बढ़ेगा। लेकिन यह एक सकारात्मक सोच हो सकती है परंतु हकीकत में ऐसा कभी होगा ऐसा संभव नहीं दिखता है। समय के साथ फसलों में यह समस्याऐं और अधिक मुखर हो रहीं हैं। खेती-किसानी के साथ इनसे बचाव का रास्ता भी किसानों, कृषि वैज्ञानिकों एवं सरकारों को निकालना ही होगा।
सामान्य तौर पर फसलों में प्रयोग किये जाने वाले कृषि रसायनों को कीटनाशक के नाम से ही पुकारा जाता है। जबकि फसलों में तीन तरह के कृषि रसायनों का प्रयोग होता है। जिनमें एक है- कीटनाशी, दूसरा खरपतवारनाशी, तीसरा है फफूंद नाशी जोकि फसलों में लगने वाले कीट-पंतगों, घास-खरपतवारों और रोग-बीमारियों से बचाने में सहायता करते हैं। लेकिन आज फसलों में कीट-रोग, बीमारियों और खरपतवारों के बढ़ते प्रकोप के कारण किसानों की मजबूरी है कि वह इन घातक कृषि रसायनों को यदि प्रयोग ना करे तो उसको फसल पर आने वाली लागत भी निकलना मुश्किल हो जायेगा। ऐसे में खेती को लाभ का धंघा बनाये जाने के प्रयास सिर्फ कागजों तक ही सिमटकर रह जाएंगे। इसलिए किसानों की मजबूरी है कि जब तक इन समस्याओं के निदान का कोई दूसरा वैकल्पिक विकल्प नहीं तलाशा जाता है तब तक इन प्राणघातक रयायनों का खेती-किसानी में प्रयोग बंद होने वाला नहीं हैं।
देखने में आ रहा है कि फसलों में लगने वाले कीट, रोग, बीमारियां और खरपतवार साल दर साल और अधिक ताकतवर होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि यह अनेकों रूप, रंग और प्रजाति बदलकर आ रहे हैं। इसके चलते प्रयोग होने वाली दवाऐं बेअसर हो रहीं हैं। परिणाम स्वरूप इन दवाओं को बनाने वाली कंपनियां और अधिक घातक रसायनों की मात्रा बढ़ाने में लगी हैं जिससे इन पर काबू पाया जा सके। दूसरी तरफ किसान भी जानकार नहीं हैं कि इन रसायनों की कितनी मात्रा, किस अनुपात में, किस समय प्रयोग करनी चाहिए। इस कारण कई बार अनावश्यक रूप से इन रसायनों का असंतुलित प्रयोग भी हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार फल अथवा सब्जियों पर ऐसे रसायनों के प्रयोग के कम से कम एक सप्ताह से 10 दिन बाद ही इनकों तोड़कर बाजार में ब्रिकी अथवा खाने में प्रयोग करना चाहिए।
कुछ वर्षों पहले भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि आम लोग बाजार में जाकर ऐसे फल और सब्जियां खरीदने में ज्यादा रूचि दिखाते हैं जो बेहद चमकदार होती हैं। जिनमें चमक और सफाई ऐसी दिखाई देती है कि मन उन्हें खरीदने प्रति लालायित होने लगता है। ऐसे फल और सब्जियां खाने से आप गंभीर प्राणघातक रोगों और बीमारियों की चपेट में भी आ सकते हैं।
इस प्रकार के फल और सब्जियां आपको हानिकारक कीटनाशकों के अधिकाधिक प्रयोग की वजह से कैंसर, पेट के रोगों सहित अनेक बीमारियां दे सकते हैं। कीटनाशकों का प्रयोग करके उत्पादित किये जा रहे फल, सब्जी, अनाज, दाले, तेल, दूध आदि से मानव स्वास्थ्य पर खतरा बड़ा है।
वहीं कीटनाशकों के प्रयोग के चलते पर्यावर्णीय संतुलन बिगड़ा है। खेती-किसानी में सहयोग करने वाले किसानों के मित्र कीट आज पूरी तरह से खेतोें से खत्म हो गये हैं। खेती-किसानी के ये ऐसे मित्र कीट थे जोकि शत्रुकीटों को खाकर अथवा नष्ट करके के किसानों की मदद् करते थे।
कीटों के जानकारों के अनुसार कीटों की मुख्यतः दो श्रेणियां हैं-शाकाहारी (जो फसल खाते हैं) और मांसाहारी (जो अन्य कीट खाते हैं) और खेती में दोनों की ही आवश्यकता है। शाकाहारी कीट पौधों की सुगंध और रंग आदि से आकर्षित होते हैं और पत्तों की संख्या पर नियंत्रण रखते हैं। जैसे ही शाकाहारी कीटों की संख्या में जरूरत से अधिक वृद्धि होती है, मांसाहारी कीट स्वतः ही आकर इस वृद्धि पर अंकुश लगा देते हैं। इसी प्राकृतिक संतुलन को कीटनाशक का प्रयोग नष्ट कर देता है। कहा जा सकता है कि कीट नहीं बल्कि कीटनाशक खेती में लाभ से अधिक विनाश करते हैं। इसलिए किसानों को मित्र और शत्रु कीटों की पहचान होना जरूरी है। फसलों में कीट, रोग और खरपतवारों की वृद्धि के लिए जलवायु परिवर्तन भी एक प्रमुख कारण है। फसलों पर लगने वाले रोग तथा खेतों में पैदा होने वाले खरपतवार के लिए भी किसान कीटनाशकों पर निर्भर रहता है।
बाजार में बिकने वाले कीटनाशक कितने खतरनाक और जहरीले हैं इसकी जानकारी किसानों को होना जरूरी है। फसलों में प्रयोग किये जाने वाले कीटनाशकों के बारे में पूरी जानकारी के अभाव में भी घटनाएं बड़ी हैं।
आज फसलों पर प्रयोग होने वाले कीटनाशकों के डिब्बों पर लाल, पीला, नीला एवं हरा तिकोना निशान होता है। यह तिकाेने रंग के निशान कीटनाशक रसायन की तीव्रता के बारे में जानकारी देते हैं। इन रंगों को देखकर कोई भी किसान पता लगा सकता है कि कीटनाशक कितना घातक है। लाल रंग वाला कीटनाशक बहुत ही जहरीला और प्राणघातक होता है। इसकी 01 से 50 मिली ग्राम मात्रा किसी भी इन्सान अथवा जानवर के प्रति किग्रा शरीर वजन पर अत्यंत घातक होगी। पीले रंग के कीटनाशक दूसरे नंबर के सबसे जहरीले कीटनाशक होते हैं इसकी 51 से 500 मिली ग्राम मात्रा प्रति किलो ग्राम वजन पर घातक होती है। नीले रंग के कीटनाशक अपेक्षाकृत कम नुकसानदेय होते हैं, इनकी 501 से 5000 मिली ग्राम मात्रा प्रति किलो वजन तक घातक नहीं होती है। हरे रंग के कीटनाशक सबसे कम खतरनाक और नुकसानदेय होते हैं इनकी 5000 मिली ग्राम से अधिक मात्रा प्रति किला वजन तक नुकसान नहीं करती है।
किसानों चाहिए कि विशेषज्ञों की परामर्श के बाद ही जितनी जरूरत हो उतनी ही मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग करें। कीटनाशकों का प्रयोग बहुत ही सावधानी पूर्वक करना चाहिए क्योंकि यह मानव सहित अन्य जीव-जंतुओं के लिए घातक हो सकते हैं।
प्राकृतिक खेती में रोग और कीटों पर नियंत्रण के लिए कई घटकों को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। जिसमें नीमास्त्र, बह्रॉमास्त्र, अग्निआस्त्र, नीम तेल जैसे कई पेड़-पोधों की पत्तियों, फलों, फूलों गौमूत्र आदि से तैयार करके प्रयोग किये जा सकते हैं। हांलाकि अभी अनुभवों के आधार पर देखा गया है कि प्राकृतिक तौर से बनाई जा रहीं कीटनाशक दवायें खरपतवारों पर बिल्कुल प्रभावी नहीं हैं। फसलों से खरपतवारों को निराई-गुड़ाई करके अथवा प्राकृतिक खेती के घटक आच्छादन का प्रयोेग करके काबू में रखते हुये उत्पादन लिया जा सकता है। कीटनाशकों के बढ़ते दुष्प्रभावों को देखते हुये आज प्राकृतिक कीटनाशकों का उपयोग करने की जरूरत है। प्राकृतिक कीटनाशकों का प्रयोग प्राकृतिक खेती में करते हुये सह-अस्तित्व के सिद्धांत को अपनाना होगा तभी प्राणघातक होते जहरीले कीटनाशकों पर काबू पाकर मानव जाति के स्वास्थ्य को सुरक्षित रख पाना संभंव हो सकेगा।
(डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिण्ड), मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक और प्रमुख हैं।)