मध्य प्रदेश: कल्दा पठार में मशरूम की खेती से आदिवासी महिलाओं की बदल रही जिंदगी

मध्य प्रदेश में घने जंगल और पत्थर वाला एक इलाका है जिसे कल्दा पठार बोला जाता है। तीन साल पहले तक यहां की आदिवासी महिलाओं के घर चलाने के लिए खेती और खदानों में मजदूरी और जंगल से तेंदू पत्ता, चिरौंजी, आंवला लाकर बेचती थी, लेकिन अब ये महिलाएं अपने घर में मशरुम उगाने लगी हैं। जिससे इन्हें घर बैठे अतिरिक्त आय होने लगी है।
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कल्दा पठार, पन्ना (मध्य प्रदेश)। “मशरूम की खेती बहुत अच्छा काम है, इसे घर में ही उगाया जा सकता है। इससे पैसे भी अच्छे मिलते हैं।” अपने घर मे लगे मशरुम के बैग दिखाते हुए 50 साल की आदिवासी महिला बड़ी बाई गोंड़ बताती हैं। वो कल्दा पठार के मगरदा गांव रहती हैं, जहां उनके पास इस बार 180 बैग लगे हैं। जिनसे दो बार में करीब डेढ कुंटल मशरुम की तुड़ाई भी हो चुकी है। बड़ी बाई के मुताबिक उनके गांव की 17 महिलाएं अपने घरों में मशरुम की खेती करती हैं।

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 500 किलोमीटर तथा जिला मुख्यालय पन्ना से 70 किलोमीटर दूर स्थित आदिवासी बहुल कल्दा पठार को बुंदेलखंड क्षेत्र का पचमढ़ी भी कहा जाता है। हरी-भरी वादियों और जैव विविधता से परिपूर्ण खूबसूरत घने जंगलों से समृद्ध कल्दा पठार में खनिज व वन संपदा का भंडार है। लेकिन इसका वो फायदा यहां के आदिवासियों को नहीं मिल पाता, जिससे वे आज भी आर्थिक रूप से कमजोर और गरीब हैं। कल्दा पठार 500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जहां अधिसंख्य आबादी आदिवासियों की है। इन आदिवासियों का जीवन पूरी तरह से खेती किसानी के अलावा वनोपज व पत्थर खदानों में मजदूरी पर ही निर्भर है। कुछ साल पूर्व तक यह इलाका अत्यधिक दुर्गम और पहुंच विहीन माना जाता था। बारिश के 4 माह यहां पहुंचना मुमकिन नहीं था, लेकिन गोड़ने नदी में पुल और पक्की सड़क बनने से हर मौसम में पहुंचना आसान हो गया। आवागमन की सुविधा होने से पठार के आदिवासियों में न सिर्फ जागरूकता आई है बल्कि वे नए-नए रोजगार भी अपना रहे हैं।

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अपने कुटीर में मशरूम बैगों के बीच बड़ी बाई गोंड। फोटो- अरुण सिंह

घर में नहीं थी जगह तो मनरेगा के बजट से बनवाई गईं कुटिया

पठार इलाके में महिलाओं को मशरुम की खेती से जोड़ने के लिए कई विभागों और संगठनों ने मिलकर काम किया है, जाकि आर्थिक मुश्किलों में गुजर कर रहे आदिवासियों को कमाई के नये विकल्प दिए जा सकें। गांव कनेक्शन से चर्चा में जिला पंचायत पन्ना के मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) बालागुरु के. कहते हैं, “कल्दा पठार में इस नवाचार को शुरू करना आसान नहीं था, क्योंकि ज्यादातर आदिवासियों के घरों में मशरूम उत्पादन के लिए जगह ही नहीं थी। इस समस्या ने निपटने के लिए हमने कुटीर निर्माण की योजना बनाई और मशरूम के उत्पादन में रुचि रखने वाली आदिवासी महिलाओं को मनरेगा योजना से कुटीर बना कर दिया गया।” एक कुटिया की लागत करीब 80 हजार है।

उन्होंने आगे बताया, “कल्दा पठार के 4 गांव मगरदा, गोबरदा, खबरी व दिया मंटोला में 74 कुटीर स्वीकृत की गईं, जिनमें से 30 पूरी हो चुकी हैं। इन सभी कुटीरों में मशरूम का उत्पादन किया जा रहा है। आजीविका मिशन द्वारा इन आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण दिलाने के साथ-साथ जरूरी सुविधाएं भी मुहैया कराई जा रही हैं।”

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, पन्ना (NRLM) जिला प्रबंधक (कृषि) सुशील शर्मा के मुताबित कल्दा पठार में 14 पंचायतें एवं 45 गांव हैं। पठार की कुल आबादी 28000 के लगभग है।

सुशील शर्मा बताते हैं, “पठार के 8 ग्राम मगरदा, गोबरदा, खबरी, दिया मंटोला, मुहली धरमपुरा, महुआडोल, झिरिया व कुटमी खुर्द में 114 आदिवासी महिलाओं द्वारा ओएस्टर मशरूम (ढींगरी) की खेती की जा रही है। 11 पंचायतों में 416 महिला स्व सहायता समूह हैं, जिनमें सदस्य संख्या 4 हजार से अधिक हैं। स्व सहायता समूहों की ज्यादातर महिलाएं अब मशरूम उत्पादन के नवाचार में रुचि ले रही हैं।”

महिलाएं बना रहीं अचार, पापड़ और नमकीन

मशरुम की खेती के लिए खेत नहीं बल्कि घर की थोड़ी जगह में हो सकता है। मशरुम की खेती सर्दियों के कुछ महीनों का काम है और लागत न्यूनतम होती है। इसलिए ग्रामीण महिलाओं में मशरुम को लेकर रुचि बढ़ है। कच्चे मशरुम के साथ साथ इसे सुखाकर भी बेचा जा सकता है। आजीविका मिशन द्वारा मगरदा गांव में ही पठार की आदिवासी महिलाओं को अचार, पापड़ और नमकीन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया है।

ताजा मशरुम 120-150 तो सूखे मशरुम का औसत भाव 600 रुपए किलो

एनआरएलएम के जिला प्रबंधक (कृषि) सुशील शर्मा बताते हैं, “पिछले साल कल्दा पठार की आदिवासी महिलाओं ने 1050 किलोग्राम मशरुम का उत्पादन किया था, जबकि इस साल अब तक 1650 किलोग्राम गीला मशरुम निकल चुका है। यहां पर मशरूम (ताजा) 120 से 150 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिक रहा है। जबकि सूखा मशरूम 500 से 600 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है। पापड़ का रेट 350 रुपए, अचार 400 रुपए और नमकीन 350 रुपए किलो के हिसाब से बिकती है।”

शर्मा के मुताबिक सीधे पैसे की बात करें तो मशरुम ताजा और सूखा मिलकार इन महिलाओं को करीब 69000 रुपए की आमदनी हुई थी। इसके अलावा महिलाओं द्वारा बनाए गए जो उत्पाद यहां से नहीं बिक पाते हैं उन्हें पन्ना स्थित आजीविका मिशन द्वारा संचालित रूरल मार्ट (दुकान) में रखवाते हैं, जहां से बिकता है।

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कल्दा पठार 500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जहां की ज्यादातर आबादी गोंड आदिवासियों की है। 

अचार, नमकीन बनाने का भी दिया गया प्रशिक्षण

समाज सेवी संस्था समर्थन के रीजनल कोऑर्डिनेटर ज्ञानेंद्र तिवारी ने गांव कनेक्शन को बताया कि कल्दा पठार की आदिवासी महिलाओं के नवाचार से दूसरे इलाके की महिलाएं भी प्रेरित हो रही हैं। यहां आकर महिलाएं मशरूम की खेती करने का तरीका व अन्य उत्पाद बनाना सीख रही हैं। ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं, “पिछले दिनों मगरदा में आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम ग्राम बिल्हा, विक्रमपुर व गोविंदपुरा से 7 महिलाओं ने अचार, पापड़ और नमकीन बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया है।”

ट्रेनिंग के बाद यहां कुछ महिलाओं ने मशरुम के भी उत्पाद बना लिए हैं। बिल्हा गांव बिन्नू बाई पटेल (34 वर्ष) गांव कनेक्शन को बताती हैं, “हमने मशरूम का अचार, पापड़ व नमकीन बनाना सीख लिया है।” ग्राम बिल्हा की ही शोभा पटेल (36 वर्ष) ने बताया, “पृथ्वी ट्रस्ट संस्था के सहयोग से पन्ना जनपद के 5 गांव में मशरूम का उत्पादन हो रहा है, हमें वहां से गीला मशरूम मिल जाएगा, जिससे हम अचार, पापड़ और नमकीन बनाएंगे।”

कल्दा पठार बनेगा मशरूम की खेती का हब

मशरूम की खेती में कल्दा पठार की आदिवासी महिलाओं के बढ़ते रुझान से जिला पंचायत पन्ना के सीईओ बालागुरु के. बेहद उत्साहित हैं। वे बताते हैं कि जिन महिलाओं ने मशरूम का उत्पादन शुरू किया है उन्हें अतिरिक्त आय होने लगी है। इससे महिलाओं के जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार हुआ है।

वो आगे कहते हैं, “आने वाले समय में कल्दा पठार मशरूम की खेती का हब बनेगा, जिससे यहां की आदिवासी महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर होंगी। वर्तमान में मशरूम का बीज (स्पान) ग्वालियर से मंगाया जा रहा है। लेकिन जल्दी ही कल्दा पठार के मगरदा में स्पान तैयार करने के लिए लैब स्थापित की जाएगी। इसके लिए मगरदा में 9 लाख रुपये की लागत से सामुदायिक भवन तैयार कराया गया है, जिसका उपयोग आदिवासी महिलाओं द्वारा मशरूम के उत्पाद बनाने हेतु वर्क शेड के रूप में किया जाएगा। लेकिन मशरूम की खेती करने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ने पर (लगभग 500 होने पर) इस भवन में लैब स्थापित की जाएगी।”

जिला पंचायत सीईओ बालागुरु के. मशरूम उत्पादक महिलाओं से चर्चा करते हुए।

कुपोषण की समस्या से मिलेगी निजात

गोंड आदिवासी बहुल इलाका कल्दा पठार हमेशा कुपोषण की समस्या से ग्रसित रहा है। लेकिन दो वर्ष पूर्व की तुलना में अब यहां कुपोषण की स्थिति में सुधार हुआ है। महिला एवं बाल विकास विभाग पन्ना के जिला कार्यक्रम अधिकारी ऊदल सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “कल्दा पठार में जनवरी 2020 तक 0 से 5 वर्ष तक के अति गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या 35 व मध्यम गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या 123 थी। जो घटकर जनवरी 2022 तक अति गंभीर कुपोषित 23 व मध्यम गंभीर कुपोषित 88 हो गई है।”

समाजसेवी संस्था समर्थन के ज्ञानेंद्र तिवारी बताते हैं, “कल्दा पठार की आदिवासी महिलाओं ने मशरूम का उत्पादन करने के साथ ही उसका उपयोग अपने भोजन में भी शुरू किया है, परिणाम स्वरूप कुपोषण में कमी आई है। मशरूम एक ऐसा खाद्य है जिसके सेवन से सभी प्रकार के पौष्टिक तत्व मानव शरीर में पहुंचते हैं, जिससे कुपोषण खत्म होता है।”

ईको टूरिज्म के विकास की भी यहाँ अच्छी संभावनाएं

कल्दा पठार के समृद्ध और खूबसूरत वन क्षेत्र में ईको टूरिज्म के विकास की भी अपार संभावनायें मौजूद हैं। यदि इस दिशा में सार्थक और रचनात्मक पहल शुरू हो तो इससे रोजी और रोजगार के भी नये अवसर पैदा हो सकते हैं।

पर्यावरण संरक्षण के कार्य में रूचि रखने वाले इसी इलाके के पटना तमोली निवासी अजय चौरसिया बताते हैं, ” बुन्देलखण्ड क्षेत्र का पचमढ़ी कहा जाने वाला यह पूरा इलाका खनिज व वन संपदा से समृद्ध है। यहां चिरौंजी, आँवला, महुआ, तेंदू, हर्र, बहेरा, शहद व तेंदूपत्ता जैसी वनोपज जहां प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। वहीं इस पठार में दुर्लभ जड़ी बूटियों का भी खजाना है। यहां के जंगल में सफेद मूसली, खस, महुआ गुठली, हर्र, बहेरा, काली मूसली, सतावर, मुश्कदारा, लेमन ग्रास, कलिहारी, अश्वगंध, सर्पगंध, माल कांगनी, चिरौटा, लहजीरा, अर्जुन छाल, मेलमा, ब्राह्मी, बिहारी कंद, मुलहटी, शंख पुष्पी, सहदेवी, पुनर्नवा, धवर्ई, हर सिंगार, भटकटइया, कालमेघ, जंगल प्याज, केव कंद, तीखुर तथा नागरमोथा जैसी वनौषधियां प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं।”

वे आगे कहते हैं, “यदि कल्दा पठार के नैसर्गिक सौन्दर्य तथा यहां पर प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली दुर्लभ वनौषधियों का संरक्षण व संवर्धन किया जाये तो इस वन क्षेत्र में ईको टूरिज्म को बढ़ावा मिल सकता है। ऐसा होने पर यहां के रहवासियों को जहां रोजगार मिलेगा वहीं यहां की प्राकृतिक खूबियां भी बरकरार रहेंगी।”

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