भारत समेत 16 देश क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप- आरसीईपी) नाम से एक बड़ा आर्थिक समूह बनाकर आपस में एक मुक्त व्यापार समझौता (फ्री ट्रेड अग्रीमेंट- एफटीए) लागू करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में दस आसियान देश- फिलीपींस, ब्रूनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और म्यांमार; तथा छह हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के देश- भारत, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं।
इस समझौते के संबंध में आरसीईपी देशों की बातचीत अंतिम चरण में पहुँच चुकी है। इस विषय में चार अक्टूबर को केंद्रीय मंत्रियों की एक उच्च स्तरीय बैठक हुई जिसमें इस समझौते के बिंदुओं पर चर्चा की गई। इन देशों के मंत्रियों की एक बैठक जल्द ही बैंकॉक में होने जा रही है जिसमें इस समझौते को शीघ्र मूर्त रूप देने की सहमति बनने की संभावना है।
आरसीईपी देशों की विश्व जनसंख्या में लगभग 47%, विश्व अर्थव्यवस्था में 32%, विश्व व्यापार में 29%, विश्व निवेश में 33% हिस्सेदारी है। भारत इन 16 आरसीईपी देशों के साथ संयुक्त रूप से लगभग 105 अरब डॉलर के व्यापार घाटे में है। भारत का चीन से 54 अरब डॉलर, साउथ कोरिया से 12 अरब डॉलर, इंडोनेशिया के साथ 11 अरब डॉलर का व्यापार घाटा प्रति वर्ष है।
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इस सूरत में यह आशंका बनी हुई है कि क्या इस समझौते से भारत के उद्योगों और कृषि विशेषकर दुग्ध और डेयरी उद्योग को सस्ते विदेशी उत्पादों की बाढ़ का सामना करना होगा जो इन क्षेत्रों की बर्बादी का सबब बन सकता है। इस विषय में जुलाई में चीन की राजधानी बीजिंग में भारत और न्यूजीलैंड के बीच हुई एक द्विपक्षीय बैठक में भारत के प्रतिनिधिमंडल ने न्यूज़ीलैंड के दुग्ध-उत्पाद निर्यात की 5% मात्रा को भारत में निर्यात करने पर सहमति जताई। हालांकि यह अभी समझौते का औपचारिक हिस्सा नहीं बना है परन्तु इस खबर के बाहर आने के बाद दुग्ध उत्पादक किसानों, डेयरी उद्योग और इससे जुड़े अन्य हितधारकों में हड़कंप मच गया।
हमारे देश में लगभग 28 लाख करोड़ रुपये मूल्य का कृषि उत्पादन होता है। इसमें 25% हिस्सा यानी लगभग 7 लाख करोड़ रुपये मूल्य का दूध का उत्पादन होता है। यदि दूध समेत पशुपालन से होने वाली सम्पूर्ण आमदनी का आंकलन करें तो कृषि में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 30% है। मूल्य के लिहाज से दूध देश की सबसे बड़ी फसल है। देश में उत्पादन होने वाले दूध का मूल्य गेँहू और चावल दोनों फसलों के संयुक्त मूल्य से भी ज्यादा है। देश की गन्ने की फ़सल के मूल्य से सात गुना मूल्य का दूध उत्पादन होता है।
लगभग 18 करोड़ टन दूध उत्पादन के साथ हम विश्व के 20% दूध का उत्पादन करते हैं और पिछले दो दशकों से प्रथम स्थान पर बने हुए हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016-17 में हमने अपनी घरेलू मांग 14.8 करोड़ टन से भी 1.5 करोड़ टन अधिक यानी 16.3 करोड़ टन दुग्ध उत्पादन किया था। 2032-33 में भी देश में 29 करोड़ टन की माँग के सापेक्ष 33 करोड़ टन दुग्ध उत्पादन होने का अनुमान है। अर्थात हमारा देश दूध के विषय में वर्तमान और भविष्य के लिहाज से आत्मनिर्भर ही नहीं है बल्कि दुग्ध उत्पादों को अन्य देशों के बाजारों में निर्यात करने की स्थिति में भी है।
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परन्तु फिर भी हमारे मुक़ाबले ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड संयुक्त रूप से दुग्ध उत्पादों के बहुत बड़े निर्यातक देश हैं। इन दोनों देशों की संयुक्त रूप से विभिन्न दुग्ध उत्पादों जैसे मिल्क पाउडर, मक्खन, चीज़ आदि में विश्व बाज़ार में 20% से लेकर 70% तक की हिस्सेदारी है। भारत में इन दुग्ध उत्पादों का संगठित क्षेत्र का वार्षिक बाज़ार लगभग 5 लाख टन का है जबकि न्यूज़ीलैंड अकेले ही इन उत्पादों का 25 लाख टन से अधिक मात्रा का वार्षिक निर्यात करता है। ऐसे में न्यूज़ीलैंड जैसे देशों द्वारा हमारे देश में भारी मात्रा में दुग्ध उत्पादों के निर्यात करने की आशंका निराधार नहीं है।
पिछले पांच सालों से दूध के दाम किसान स्तर पर बहुत कम चल रहे हैं और दुग्ध पशुपालक किसान की हालत पहले ही खराब है। हालांकि हाल के कुछ महीनों में किसान स्तर पर दूध की कीमतों में कुछ सुधार हुआ है। यदि आरसीईपी समझौते में दुग्ध उत्पादों के आयात को उन्मुक्त कर दिया गया तो किसान स्तर पर दूध के दाम 40% तक गिर जाने की आशंका है। इतने कम दामों पर दुग्ध उत्पादन का खर्चा निकलना भी असंभव होगा। डेयरी किसान पूरी तरह से बर्बाद हो जाएंगे और किसानों की आमदनी पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
किसान पशुपालन से विमुख हो जाएंगे। पहले से ही संकट से जूझ रही कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस जाएगी और देश दुग्ध उत्पादों के लिए आयात पर निर्भर हो जायेगा। 2007 में जब चीन ने न्यूज़ीलैंड के साथ इसी प्रकार का एक मुक्त व्यापार समझौता किया था तो चीन की दुग्ध उत्पादन की 2000-06 में वार्षिक वृद्धि दर 22% थी। परन्तु इस समझौते के बाद के 10 सालों में चीन के दुग्ध उत्पादन में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। इसके विपरीत 2007 में चीन अपनी खपत का केवल 3% दुग्ध उत्पादों का आयात करता था जो 2017 में बढ़कर 20% से ज्यादा हो गया।
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हमारे देश में लगभग 10 करोड़ डेयरी किसान हैं यानी लगभग 50 करोड़ लोग दुग्ध उत्पादन से होने वाली आमदनी पर निर्भर हैं। दुग्ध व्यापार और दुग्ध उत्पादों से जुड़े संगठित व असंगठित क्षेत्र के अन्य लोगों को जोड़ दें तो यह संख्या बहुत बड़ी हो जाती है। दुग्ध उत्पादन रोजमर्रा के खर्चों को पूरा करने और किसानों की आय दोगुनी करने के लिए एक अति आवश्यक कृषि गतिविधि है।
दुग्ध उत्पादन में लगभग 75% हिस्सेदारी लघु, सीमांत और भूमिहीन किसानों की है अतः इन कमज़ोर वर्ग के किसानों के लिए तो दुग्ध उत्पादन एक जीवन रेखा की तरह है। किसान परिवारों विशेषकर बच्चों को पोषक खुराक उपलब्ध कराने का दूध एक बड़ा माध्यम है। किसान परिवार की महिलाओं का इससे आर्थिक सशक्तिकरण भी होता है। अतः सरकार को देखना होगा कि आरसीईपी में समझौता कर कहीं हम इन किसानों की इस जीवन रेखा को मिटा ना दें।
(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)