पशु चारे का संकट: सभी को मिलकर इसका हल निकालना होगा

भारत में पायी जाने वाली विश्व की सर्वाधिक पशु संख्या का पेट भरने के साथ ज्यादा और सस्ता दुग्ध उत्पादन प्राप्त करने के लिए चारे के संकट का हमेशा के लिए हल निकालना होगा। इसके लिये सरकारों, वैज्ञानिकों से लेकर पशुपालक-किसानों को मिलकर पहल करनी होगी।
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देश की एक बड़ी आबादी बड़ी पशुपालन से जुड़ी हुई है, बढ़ती मांग के कारण पशुओं की आबादी भी लगातार बढ़ रही है, लेकिन पशुओं के चारे कमी भी हो रही है।

भारत के मात्र 2 प्रतिशत भूभाग पर विश्व की 30 प्रतिशत पशु आबादी निर्भर है। वर्तमान में देश में कुल 535.78 मिलियन पशुधन हैं। वर्ष 2012 से लेकर 2019 के बीच पशुधन में 4.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।

चारा उत्पादन के लिए देश की कुल खेती योग्य भूमि में से मात्र 4 प्रतिशत पर ही चारा उत्पादन किया जा रहा है। जबकि वर्तमान में 14 से 17 प्रतिशत क्षेत्रफल पर चारा उगाने की जरूरत है। पशुओं की संख्या के अनुसार चारे की मांग और उपलब्धता में बहुत बड़ा अंतर है। वर्ष 2025 तक देश के पशुओं के लिए सूखे चारे की 23 प्रतिशत हरे चारे की 39 प्रतिशत और दाना मिश्रण की 38 प्रतिशत तक कमी हो जायेगी।

उत्तर भारत देश में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादन के लिए जाना जाता है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश आदि प्रमुख दुग्ध उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत से परेशान पशुपालक इस वर्ष चारे के संकट से जूझ रहे हैं।

दुधारू पशुओं का पेट भरने के लिये सूखा चारा अर्थात भूसा की कमी पूरे उत्तर भारत में व्यापक पैमाने पर दिखाई दे रही है। जिस कीमत पर कभी पशुपालकों को गेहं का भूसा आसानी से मिल जाता था, उस कीमत पर डेयरी संचालकों को धान का पुआल खरीदकर खिलाना पड़ रहा है। फ्री में मिलने वाला धान का पुआल जो कि सर्दियों में पशुओं के नीचे विछावन और आग जलाकर पशुशालाओं को गर्म करने के काम आता था।

पशुपालकों को मजबूरी में महंगी कीमत पर खरीद कर अपने पशुओं को खिलाना पड़ रहा है। जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार धान का पुआल दुधारू पशुओं को खिलाने से उनका दुग्ध उत्पादन प्रभावित होता है।

उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों में आज गेहूं के भूसा की कीमतें 1200 रुपए से लेकर 1400 रुपए प्रति कुटंल तक चल रहीं हैं। धान का पुआल, सोयाबीन का भूसा, बाजरा की कर्बी आदि की कीमतें भी 500 से लेकर 600 रूपये प्रति कुंटल तक पहुंच गई हैं।

महंगा भूसा और पशु राशन खरीदने के कारण दुग्ध उत्पादन पर आने वाली लागत बहुत अधिक बढ़ चुकी है। उसके अनुपात में ग्रामीण अंचलों में दूध कीमतें नहीं मिल पा रहीं हैं। इस वर्ष मौसम के उतार-चढ़ाव के चलते सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि आदि जलवायु कारणों से पूरे देश में खेती-किसानी से लेकर फसलों तक पर प्रतिकूल असर पड़ा है।

यही कारण है कि इस वर्ष सूखे चारे का संकट कुछ ज्यादा ही देखा जा रहा है। देश के 87 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत श्रेणी में आते हैं इस कारण चारा उत्पादन करने की सीमाएं हैं। देश के कई क्षेत्रों में पानी की भी अत्यधिक कमी हैं। शहरी तथा अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में अधिकांश पशुपालक बिना जमीन वाले हैं। इसलिए यह चाहकर भी हरा चारा उगाने में असमर्थ हैं।

पशुओं के दैनिक आहार की पूर्ति कि लिये 1/3 भाग राशन और 2/3 भाग सूखे और हरे चारे की आवश्यकता होती है। देश के अधिकांश भागों में हरे चारे की उपलब्धता पहले से ही काफी कम है। देश के अधिकांश भागों में पशुओं के आहार के लिए सूखे चारे को ही प्रयोग में लाया जाता है।

सूखा चारा पशुओं का पेट भरने के लिए आवश्यक होता है। दाना, खली, चोकर, खनिज लवण आदि से ऊर्जा की प्राप्ति होती जिससे दुग्ध उत्पादन, गर्भ के विकास, वृद्धि तथा कार्य करने की क्षमता पशुओं को प्राप्त होती है। मुख्य तौर पर सूखा चारा ही पशुओं का पेट भरने के काम आता है। वर्तमान में पशु राशन के साथ ही सूखे चारे गेहूं के भूसा की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। सूखे चारे की बढ़ती कीमतों के कारण दुधारू पशुओं का पेट भरना भी मुश्किल हो रहा है।

उत्तर भारत में डेयरी पशुओं को सूखे चारे के रूप में प्रमुखता से गेहूं का भूसा खिलाया जाता है। पिछले कुछ दशकों से गेहूं के भूसा की बढ़ती कीमतों के कारण जिन क्षेत्रों में बाजरा, मक्का, सोयाबीन, धान आदि की खेती ज्यादा होती है वहां इन फसलों की कर्वी, भूसा और पुआल को पशुपालकों द्वारा खिलाया जाता है।

उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों में आज गेहूं के भूसा की कीमतें 1200 रुपए से लेकर 1400 रुपए प्रति कुटंल तक चल रहीं हैं।

इस वर्ष बरसात की शुरूआत में मानसून की देरी तथा बाद में अतिवृष्टि के कारण बाजरा, मक्का और सोयाबीन जैसी फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। जिनसे कर्वी-भूसा बहुत कम प्राप्त हो सका है। दूसरी तरफ गेहूं के भूसा की कमी का एक प्रमुख कारण हार्वेस्टर द्वारा फसल की कटाई-गहाई कराया जाना हैं।

हार्वेस्टर से कटिंग कराने के कारण खेत से आधा ही भूसा मिलता है। जबकि थ्रैसिंग के दौरान हाथ से गेहूं की कटाई करायी जाती है। जिसमें अनाज उत्पादन के बराबर से ज्यादा भूसा मिल जाता है। गर्मियों में गेहूं की फसल कटाई के दौरान मजदूरों की कमी होती जा रही है। इसके पीछे सरकारों द्वारा दिया जा रहा राशन और मनरेगा जैसी योजनाओं का योगदान भी कुछ कम नहीं है। दूसरी तरफ सोयाबीन, उड़द, चना, मसूर आदि का भूसा ईट भट्टा वाले ले जाते हैं जो कि कुछ मात्रा में सूखे चारे के विकल्प के रूप में काम आता है।

उत्तर भारत में पहले गाँव-गाँव सामूहिक रूप से सभी किसान मिलकर एक दूसरे के लिए पूरे वर्ष की भूसा की आवश्यकता के लिए सरकंण्डे, फूस, अरहर की लकड़ी आदि से बुर्झी का निमार्ण करके उसमें भूसा भण्डारण कर लेते थे। आज आधुनिकता के कारण सामुदायिकता की भावना का पूरी तरह से लोप हो चुका है।

मेहनत का काम होने के कारण मजदूर बुर्झी बनाने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इस कारण गांवों में भूसा भण्डारण का परंपरागत तरीका पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। उत्तर भारत के राज्यों में सूखे चारे के अभाव का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है। फसल के समय पर व्यापारी सस्ता भूसा खरीदकर जमा कर लेते हैं। बरसात का मौसम समाप्त होने के बाद जब हरा चारा समाप्त हो जाता है तब वह मनमानी ऊंची कीमतों पर बिक्री करके लाभ कमाते हैं। इसके चलते डेयरी व्यवसाय करने वाले पशुपालक भूसा के संकट से जूझने को विवश होते हैं।

भारत में पायी जाने वाली विश्व की सर्वाधिक पशु संख्या का पेट भरने के साथ ज्यादा और सस्ता दुग्ध उत्पादन प्राप्त करने के लिए चारे के संकट का हमेशा के लिए हल निकालना होगा। इसके लिये सरकारों, वैज्ञानिकों से लेकर पशुपालक-किसानों को मिलकर पहल करनी होगी। हमें चारे के अधिक से अधिक वैकल्पिक स्रोत तलाशने होगें। वर्षपर्यन्त और प्रत्येक सीजन में हरे चारे की उपलब्धता बढ़ानी होगी। शहजन, सूबबूल, चारे के लिए उपयोगी पेड़ों की पत्तियां, नैपियर घास, हाइब्रिड नेपियर बाजरा जैसे हरा चारा विकल्पों पर काम करना होगा।

सस्ते और सर्व सुलभ चारा बीजों की उपलब्धता की दिशा में और अधिक तेजी से काम करने की जरूरत है। बरसीम, जई, ज्वार, बहुकटिंग चरी, एमपी चरी, चारे वाला लोबिया, मकचरी, ग्वार, बाजरा, मक्का, मक्खन घास, हाथी घास, पेरा घास आदि के साथ चारागाहों की उपलब्धता भी बढ़ानी होगी। गैर कृषि योग्य भूमि चारा उगाने के लिए उपयोग में लानी होगी। वर्तमान में सूखे चारे की कमी को कम करने और चारा बीजों की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए चारा बैंक और चारा बीज बैंक जैसे विकल्पों को बढ़ावा देना होगा। इस दिशा में सरकारों, वैज्ञानिकों और किसान-पशुपालकों द्वारा किये गये सार्थक प्रयास ही चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। 

(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)

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