वृद्धाश्रम के बारे में आपकी राय बदल देगा अम्मा बब्बा का घर स्नेहधरा

स्नेहधरा वृद्धाश्रम इस धारणा को बदलने का प्रयास कर रहा है कि वृद्धाश्रम केवल उन्हीं के लिए हैं जिन्हें उनके बच्चों ने छोड़ दिया है। स्नेहधरा में बुजुर्गों को परिवार जैसा माहौल मिलता है, जहांँ वे खुश और सुरक्षित महसूस करते हैं।

Update: 2024-06-26 08:09 GMT

दोपहर के तीन बजे, एक बड़े से घर में लगा काला गेट आधा खुला हुआ था। गेट के दाहिनी तरफ डिश की केबल पर कुछ कपड़े सूख रहे थे, जिन्हें देखकर पता चल रहा था कि उनकी उम्र हो चुकी है।

आधे खुले गेट को धक्का देकर जैसे ही अंदर जाना चाहा तो एक बुजुर्ग ने रास्ता रोकते हुए पूछा, "आपको किससे मिलना है?" उनके सवाल का जवाब देने के बाद जब हम अंदर पहुंचे तो देखा, एक बुजुर्ग जून की गर्मी में टोपी पहनकर सफेद कुर्सी पर बैठकर अपनी उँगलियों पर कुछ जोड़ रहे थे, मानो कोई हिसाब लगा रहे हों कि किसके लिए कितना किया, और किसको कितना दिया। वो बोल तो बहुत कुछ रहे थे लेकिन समझ कुछ भी नहीं आ रहा था।

पूछने पर पता चला कि वो अपना ज़्यादातर समय ऐसे ही बिताते हैं और किसी से बात नहीं करते। उनको देखकर ऐसा लगा कि शायद वो किसी दर्द से गुजरे हैं जिसके सदमे की वजह से उनके मन पर गहरा असर हुआ है। इनका नाम योगेश है जो पिछले चार साल से इस घर में रहे हैं और इनके साथ यहाँ करीब 15 और साथी रहते हैं जो एक दूसरे का सहारा हैं। ये है लखनऊ के जानकीपुरम एक्सटेंशन में वृद्धाश्रम 'स्नेहधरा'।


UNFPA के अनुसार, वर्तमान में भारत में करीब 15 करोड़ लोग 60 वर्ष से अधिक उम्र के हैं, और यह संख्या 2050 तक 34.7 करोड़ तक पहुँच सकती है। यूनाइटेड नेशन्स डिकेड ऑफ हेल्दी एजिंग के अनुसार, भारत में वृद्धों की लगभग 3 करोड़ आबादी के पास कोई आय का स्रोत नहीं है, यह आंकड़ा एक सामाजिक और मानसिक धारणा को जन्म देता है जिसमें घर के बुजुर्गों को बोझ माना जाता है, जिसके कारण उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। ऐसे में वृद्धाश्रमों की भूमिका बेहद अहम हो जाती है।

वृद्धाश्रमों के बारे में लोगों की कई तरह की राय हैं। डॉ. अर्चना सक्सेना का स्नेहधरा वृद्धाश्रम इस धारणा को बदलने का प्रयास कर रहा है कि वृद्धाश्रम केवल उन लोगों के लिए होते हैं, जिन्हें उनके बच्चों ने छोड़ दिया है। स्नेहधरा में रहने वाले बुजुर्गों को परिवार जैसा माहौल मिलता है, जहाँ वे खुश और सुरक्षित महसूस करते हैं।

डॉ. अर्चना गाँव कनेक्शन से कहती हैं, "2016 में मई महीने में हम लोगों ने मदर्स डे पर एक हफ्ते का प्रोग्राम किया था, जिसमें हम बहुत से वृद्धाश्रम भी गए थे; वहाँ जाकर हमने देखा कि हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सत्य बुढ़ापा है और बुढ़ापा बहुत कष्ट से गुजरता है अगर परिवार साथ नहीं हो। जब हम घर लौटे तो मन बहुत विचलित हुआ और हमने विचार किया कि एक ऐसा ओल्ड ऐज होम बनाएं जहाँ हम लोगों को परिवार जैसा प्यार दे सकें।"


वह आगे कहती हैं, "इसी मकसद से हमने अपना वृद्धाश्रम खोला जिसका नाम हमने स्नेहधरा रखा, इसे हमने अम्मा-बप्पा का घर बताया; हमारे यहाँ लोग परिवार की तरह ही रहते हैं, इसी परिवार में से कोई मुझे बेटी मानता है तो कोई बहू। हम सब मिलकर एक साथ रहते हैं, अपने बच्चों के जन्मदिन से लेकर और बाकी त्योहार इसी परिवार के साथ मिलकर मनाते हैं।"

अक्सर हम सोचते हैं कि वृद्धाश्रमों में केवल वे लोग रहते हैं जिन्हें उनके बच्चों ने घर से निकाल दिया है या फिर उनकी कोई मजबूरी रही होगी; लेकिन स्नेहधरा में ज़्यादातर रहने वाले बुजुर्ग ऐसे हैं जिनकी शादी नहीं हुई, जिनका जल्द ही तलाक हो गया या जिनके बच्चे किसी बड़े शहर में हैं। लेकिन उनका वहाँ जाने का मन नहीं था, इसलिए वे स्नेहधरा में लोगों के बीच रहते हैं।

स्नेहधरा में पिछले चार साल से रह रहे 72 वर्षीय अनुपम अवस्थी, जो सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट से सेवा निवृत्त हैं, गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "माता-पिता की डेथ हो गई, न बीवी है न ही कोई बच्चे; मैं यहाँ अपनी मर्जी से आया हूँ, मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, यहाँ मुझे बहुत अच्छा लगता है और मैं यहाँ से अब कहीं नहीं जाने वाला, हम सब एक-दूसरे की मदद करते हैं और एक-दूसरे का सहारा रहते हैं। बात करने के लिए मेरे साथी हैं और यहाँ का माहौल भी घर जैसा है।"


वह आगे कहते हैं, "मेरी दो बहनें हैं, एक लखनऊ और एक भोपाल में रहती हैं; दोनों से मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं, आना-जाना भी है और फोन पर बात भी होती रहती है।"

अनुपम अवस्थी से जब हमने पूछा की वो अपने खाली समय में क्या करना पसंद करते हैं तो उन्होंने बताया की उन्हें गाना बेहद पसंद है। फिर क्या था हमने भी गाने की फरमाइश कर दी जिसे उन्होंने याराना फिल्म का गाना 'यारा तेरी यारी को मैंने तो खुदा माना' ये सुना कर पूरा किया। उस माहौल को बस ये कहकर बयाँ किया जा सकता है कि मानो सब थम गया हो। अचानक से वहाँ बैठे लगभग सभी बुज़ुर्ग एकटक अनुपम जी को देखने लगे तो कुछ उनके साथ गाने लगे। जहाँ गाने के बोल इधर उधर होते तो कोई न कोई सहारे के लिए मौके पर हमेशा मौजूद रहा। मानो वो सभी एक टीम हो, जो ये सुनिश्चित कर रहे थे कि उनके स्नेहधारा में आये मेहमान का मनोरंजन नहीं रुकना चाहिए।

पतला शरीर, कुछ बचे दांत, सिर पर चंद बाल और चेहरे पर मुस्कान के साथ एक कुर्सी पर बैठी कम्मो जी से जब उनकी उम्र पूछी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "आपको जो ठीक लगे लिख लो।" स्नेहधरा में पिछले तीन साल से रह रही कम्मो जी को इस आश्रम में रहने वाले लोग बुआ जी कहकर बुलाते हैं।

जब उनसे पूछा गया कि आश्रम में रहने वाले सभी लोग आपको बुआ क्यों बोलते हैं, तो हँसते हुए बोली, "ये सभी लोग मुझे अपने पिता जी की बहन मानते हैं।" यह जवाब सुनते ही वहाँ बैठे सभी लोग जोर-जोर से हँसने लगे और पूरा आश्रम तालियों और खिलखिलाहट से गूँज उठा। कम्मो जी कहती हैं कि उन्हें यहाँ बहुत अच्छा लगता है और उनका मन यहाँ लगा रहता है।


समाज में वृद्धाश्रम क्यों जरूरी हैं, इस पर डॉ. अर्चना सक्सेना कहती हैं, "मैं बहुत दूर न जाकर अपने ही परिवार का एक केस बताना चाहूँगी , मेरे एक रिश्तेदार के बच्चे तो थे लेकिन सब बाहर काम करते थे; वे अकेले रह रहे थे; अचानक उनकी तबियत खराब हुई और वे बाथरूम में गिर पड़े, पूरे दो दिन तक वे उसी बाथरूम में पड़े रहे। जब नौकर आया तो उसने दरवाजा पीटा, दरवाजा नहीं खुला तो पुलिस की सहायता ली और दरवाजा तोड़ा गया, लेकिन तब तक वे कोमा में जा चुके थे और जब तक उन्हें अस्पताल ले जाया गया, तब तक उन्होंने दम तोड़ दिया।"

"तो ऐसे लोग जिनके बच्चे बाहर हैं और वे खुद भी बच्चों के साथ नहीं जाना चाहते, उनके लिए वृद्धाश्रम एक सही जगह है, जहाँ वे लोगों के बीच रहेंगे, उनका मन भी लगा रहेगा और सुरक्षा की दृष्टि से भी यह सही फैसला है, "डॉ. अर्चना ने आगे कहा।

भारत में वृद्धाश्रम तेजी से क्यों बढ़ रहे हैं, इस सवाल के जवाब में डॉ. अर्चना गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "वृद्धाश्रम बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है, परवरिश, हम बच्चों को संस्कार नहीं दे पा रहे हैं; माता-पिता बच्चों को पढ़ाई लिखाई करवा कर बड़े पैकेज के लिए बाहर भेज देते हैं, जब बच्चे विदेशों में नौकरी करने जा रहे हैं और उनसे वापस अपने शहर आने को कहा जाता है, तो वे बच्चे नहीं आते हैं; फिर माता-पिता से कहा जाता है कि वे नए शहर चले जाएं तो वे भी नहीं जाना चाहते। इसमें हम खुद को दोषी मानते हैं कि हमने अपने बच्चों के अंदर ऐसे संस्कार डाल दिए हैं कि उन्हें केवल बड़ा पैकेज ही दिखाई देता है। "

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