शकुंतला ने जब घर में अचार बनाने के लिए सिरका बनाया था तो उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था, उनके बनाए सिरका से उनके पति लाखों का कारोबार खड़ा कर सकते हैं। सिरका बनाने से शुरू हुआ ये कारोबार आज गुड़, पेड़ा, अचार, नमकीन जैसे कई उत्पादों से सालाना 50 लाख रुपए की बिक्री हो जाती है।
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर मांचा गांव में रहने वाली शकुंतला देवी पढ़ने के लिए न तो कभी स्कूल जा पायीं ना ही कोई ऐसे ट्रेनिंग की, कि बिजनेस किया जा सके। लेकिन वो जो हुनर के साथ सिरका बनाती थीं उसने एक कारोबार को जन्म दे दिया है। शकंतुला के पति सभापति शुक्ल (61 वर्ष) न सिर्फ अच्छा कारोबार करते हैं बल्कि कई जिलों में उनका नाम चलता है।
‘शुक्ला जी का मशहूर सिरका’ नाम का बोर्ड गोरखपुर-लखनऊ के राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगा है जो अयोध्या से लगभग सात किलोमीटर दूर है। जो इस मार्ग से गुजरता है वो यहां से शुद्ध सिरका से लेकर अचार, पेड़े, गुड़ खरीदकर ले जाता है। वर्ष 2002 में शुरू हुआ एक शौक से ये बिजनेस आज लाखों रुपए की इनकी आमदनी का जरिया बन गया है।
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“गन्ने का रस बच गया था तो 15-15 लीटर के दो डिब्बों में भरकर रख दिया था। कुछ तो रिश्तेदारों में बांट दिया, कुछ बाजार बेचने को भेज दिया। उस समय डेढ़ दो सौ रुपए का बिका था तभी से ये काम करना शुरू कर कुछ दिया।” ये कहना है शकुंतला देवी (56 वर्ष) का। वो आगे बताती हैं, “हमें भी नहीं पता था कि हमारे घर में बनने वाली चीज को इतने लोग पसंद करेंगे। अब तो पूरे दिन पूरा परिवार मिलकर काम करता है, 10-12 मजदूर भी रहते हैं। फिर भी काम खत्म नहीं होता है।”
सभापति शुक्ल अपने सिरका के बिजनेस का पूरा श्रेय अपनी पत्नी को देते हैं। गांव कनेक्शन संवादाता को ये फोन पर बताते हैं, “न मेरी पत्नी घर पर सिरका बनाती और न मुझे इसका बिजनेस करने का विचार आता। मैं पहले गुड़ बनाता था, उसी समय कुछ गन्ने का रस बच गया तो इन्होंने उसका सिरका बना दिया। पत्नी के कहने पर ही मैं बाजार बेचने गया था।”
वो आगे बताते हैं, “जब पहली बार सिरका बाजार में बेचा और रिश्तेदारों को दिया सब उसका स्वाद चखकर दोबारा मांगने लगे तभी मुझे लगा इसका बिजनेस हो सकता है। बाजार में केमिकल वाला सिरका मिलता था हमारा देसी सिरका था इसलिए इसकी मांग बढ़ी। इस रोड से जो गुजरता है अगर उसकी नजर हमारे बोर्ड पर पड़ गयी तो वो एक बार जरुर ठहर जाता है।”
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जंगली जानवरों के नुकसान की वजह से सभापति गन्ने की खेती नहीं करते हैं। ये आस पास के किसानों का गन्ना खरीदकर सिरका के अलावा कई तरह के उत्पाद बनाकर बेचते हैं। इनके यहां हर दिन 10 से 15 मजदूर काम करते हैं, जरूरत पड़ने पर ये संख्या बढ़ जाती है। आज बस्ती जिले का ये गांव मांचा की बजाए सिरका वाले गांव के नाम से जाना जाता है। नवम्बर महीने में गन्ने की पिराई शुरू हो जाती है जो अप्रैल तक चलती है। इनके यहां साल भर 30 रुपए लीटर खुला सिरका और 35 रुपए में डिब्बाबंद सिरका मिलता है।
सभापति का कहना है, “पहले लोग सिरका ही लेते थे अब शुद्धता की वजह से आचार, गुड़, घी, नमकीन भी खूब खरीदते हैं। कई और जगहों से मांग है पर अभी मैं इतना ही काम नहीं सम्भाल पा रहा हूँ। आने वाले वर्षों में हो सकता है कि मैं अपने कारोबार को बढ़ा पाऊं।” शकुंतला देवी और सभापति शुक्ल के आत्मविश्वास ने ये साबित कर दिया कि अगर लगन है तो भी काम करना आसान नहीं है।