बिजनेस वुमन बन रही हैं झारखंड की आदिवासी महिलाएं, वनोपज संग्रहण से हो रहा फायदा

झारखंड के सिमडेगा जिले में कम से कम 4,000 किसान दीदी और आदिवासी महिलाएं वनोपज के माध्यम से आजीविका कमा रही हैं। महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना (एमकेएसपी) किसानों को स्थानीय बिचौलियों के चंगुल से भी बचा रही हैं।
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हर सुबह 8 बजे सुषमा समद अपनी पांच गज की साड़ी पहनकर दफ्तर जाने के लिए अपने गांव केसरा से साइकिल पर निकलती हैं। उनका दफ्तर गांव से पांच किलोमीटर दूर झारखंड में सिमडेगा जिले के थेथैतानगर ब्लॉक में स्थित है।

सुषमा के साथ गांव की ही चार अन्य महिलाएं भी दफ्तर जाती हैं। ये सभी महिलाएं झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसायटी (जेएसएलपीएस) द्वारा स्थापित केंद्र में काम करती हैं। यह राज्य सरकार की संस्था है जो ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए काम करती है। 

दफ्तर में सुषमा रोज़ाना सैकड़ों महिला किसानों से मिलती हैं। इन महिला किसानों को स्थानीय रूप से किसान दीदी के नाम से जाना जाता है। ये महिलाएं यहां कुसुम (Schleichera oleosa) और करंज (Millettia pinnata) जैसे वन उपज बेचने के लिए आती हैं। सुषमा इन उपज को बाजार दर पर खरीदती है, उन्हें बड़ी बोरियों में पैक करती हैं और आगे जेएसएलपीएस के दूसरे केंद्रों में भेज देती हैं। वहां इन बीजों से तेल निकाला जाता है।

सुषमा समद जेएसएलपीएस के अंर्तगत स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हुई हैं। Photo: By arrangement

झारखंड में कम से कम 120,000 महिलाएं जेएसएलपीएस की महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना (एमकेएसपी) से जुड़ी हुई हैं। इस योजना की शुरुआत साल 2011 में हुई थी। इसका मकसद कृषि क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति में सुधार करना और उन्हें आजीविका के पर्याप्त अवसर मुहैया कराना है।

सिमडेगा जिले में एमकेएसपी योजना के तहत औसतन 10,000 महिलाएं काम कर रही हैं। जिले में केवल कुसुम व करंज से संबंधित परियोजना के लिए 4000 आदिवासी महिलाएं कार्यरत हैं।

यह योजना केवल सिमडेगा जिले तक ही सीमित नहीं है। इसे हजारीबाग समेत राज्य के कुछ अन्य जिलों के 10 प्रखंडों में भी लागू किया गया है।

झारखंड में वनोपज बेचती और खरीदती महिला किसान। 

परियोजना के हर चरण में महिलाओं को बनाया जा रहा सशक्त

इस योजना के प्रत्येक चरण में ग्रामीण महिलाएं भागीदार हैं। किसान दीदी महुआ, कुसुम, करंज और इमली जैसे वनोपज इकट्ठा करती हैं। इन उपजों को जेएसएलपीएस के स्वयं सहायता समूह के सदस्यों (सभी महिलाओं) द्वारा खरीदा जाता है। महिला समूहों के कुछ अन्य लोग इन बीजों से तेल निकालने और बिक्री के लिए तैयार करने का काम करते हैं। इस प्रकार, परियोजना के हर चरण में ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने का काम किया जा रहा है।

42 वर्षीय सुषमा ने गांव कनेक्शन को बताया, “किसान दीदी हमारे लिए वनोपज लाती हैं। हम उन से इसे बाजार मूल्य पर खरीदते हैं। इस तरह उनका आने-जाने खर्च बच जाता है। हम उपज इकट्ठा करते हैं और इसे जेएसएलपीएस केंद्र में भेज देते हैं।”

सुषमा ने आगे कहा, “यह परियोजना महिला किसानों को स्थानीय बिचौलियों के चंगुल से भी बचाती है।”

सुषमा और उनके जैसी अन्य ग्रामीण महिलाएं दफ्तर में चार से पांच घंटे काम करती हैं, इस तरह ये महिलाएं भी आत्मनिर्भर हो गई हैं।

सुषमा के परिवार में उनके पति और तीन बच्चे हैं। उनके पति किसान हैं। सुषमा हंसते हुए कहती हैं, “मैं अब अपने पैसों से ही घर चला लेती हूं। हाथ में पैसा आता है न दीदी तो अच्छा लगता है।” [कमाई के पैसे अपने हाथ में आते हैं तो अच्छा लगता है।

केंद्र पर वनोपज इकट्ठा करती महिलाएं।

कैसे काम करती है यह परियोजना?

सिमडेगा जिले में महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना तीन श्रेणियों में कार्य करती है – वनोपज एकत्र करना, उनका संग्रहण और प्रसंस्करण व तेल निकालना। जिले में इस परियोजना में कम से कम 3,000 महिला किसान, सुषमा जैसी 1,200 महिला संग्रहकर्ता और 150 महिला प्रोसेसर शामिल हैं।

जून के अंत तक वन उपज जैसे करंज पकने लगते हैं और किसान दीदी उन्हें पेड़ों से तोड़ लेती हैं। किसानों से यह उपज 18 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदी जाती है, जिससे किसानों को एक सीजन की फसल में औसतन 3,000 रुपये की अतिरिक्त आय होती है।

जेएसएलपीएस के स्टेट प्रोग्राम मैनेजर और राज्य स्तरीय वैल्यू चेन लीड आरिफ अख्तर ने गांव कनेक्शन को बताया, “पहले, किसानों को इन बीजों के बदले कोई पैसे नहीं मिलते थे। अब किसान दीदी एक सीजन में ही 3000 से 4000 रुपये तक कमा लेती हैं। संग्रहकर्ता पहले इसे बिचौलियों को औने-पौने दामों पर बेचते थे, लेकिन अब वे 6,000 रुपये तक कमा लेते हैं।”

उन्होंने आगे बताया, “इसी तरह, प्रसंस्करण व पैकेजिंग और निष्कर्षण से जुड़ी महिलाएं भी 4,000 से 5,000 रुपये तक कमाती हैं।

उनके अनुसार, इस परियोजना के शुरू होने से पहले, स्थानीय आदिवासियों को वन उपज से कोई लाभ नहीं मिल रहा था। अख्तर ने कहा, “इससे पहले केवल उद्योगपति और अन्य समूह लाभान्वित हो रहे थे। अब आदिवासी महिलाओं ने किसान के रूप में अपनी पहचान बना ली है। हम महिला कामगारों को मशीनों के संचालन और मरम्मत का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।”

आदिवासी महिला तेल की पैकिंग करते हुए।

वनोपज से होते हैं कई तरह के लाभ

इस परियोजना के माध्यम से समूहों के सदस्य (जिनमें सभी महिलाएं हैं) स्थायी कृषि पद्धतियों को भी सुनिश्चित कर रहे हैं।

अख्तर ने बताया, “पहले गांवों में महिला किसानों के पास गैर-लकड़ी के बीज काटने या बेचने का साधन नहीं था। ये आदिवासी समूह पर्यावरण से काफी जुड़े होते हैं लेकिन उनकी कटाई के तरीके से वनों की कटाई होगी क्योंकि वे शाखाओं को भी काट देते हैं।”

उन्होंने आगे कहा, “हमने सबसे पहले एक वैज्ञानिक कटाई प्रणाली विकसित की ताकि वनों की कटाई को रोका जा सके और इन उपजों को विलुप्त होने से बचाया जा सके। जब हमने किसानों को प्रशिक्षण दिया तो वे समझ गए कि उनकी उपज से आर्थिक लाभ होगा। इसके बाद उन्होंने और पेड़ लगाना शुरू कर दिया।”

करंज के बीज का तेल।

गैर-लकड़ी वनोपज जैसे करंज और कुसुम के स्वास्थ्य लाभ भी हैं। अख्तर ने बताया कि करंज का तेल नीम के तेल का बहुत अच्छा विकल्प है। यह खाने के लिए नहीं होता, लेकिन इसका उपयोग औषधीय तौर पर, जैसे त्वचा रोगों, एलर्जी और रूसी को रोकने के लिए किया जाता है। यह कीड़ों को भगाता भी है। करंज के विपरीत, कुसुम एक खाद्य तेल है।

जेएसएलपीएस के स्टेट प्रोग्राम मैनेजर ने कहा, “कुसुम तेल भी सफेद तेल (रिफाइंड तेल) का एक अच्छा विकल्प है। यदि आप सफेद तेल निर्माण की प्रक्रिया को देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि इसमें कैसे मिलावट होता है।”

इसके अलावा, कुसुम के बीजों से तेल निकालने के बाद बचा हुआ केक मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए एनपीके [नाइट्रोजन-फॉस्फोरस-पोटेशियम] के रुप में भी काम आता है।

मार्केटिंग और बिक्री

एक किलो कुसुम या करंज से कम से कम 300 मिलीलीटर तेल निकाला जा सकता है। इसके बाद जो बचता है उसे केक कहा जाता है। इस केक को भी 40 रुपये किलो बेचा जाता है। एक लीटर कुसुम तेल 165 रुपये व एक लीटर करंज तेल 155 रुपये में बिकता है। पिछले सीजन में, सिमडेगा जिले में परियोजना के तहत करंज और कुसुम दोनों का 10 मीट्रिक टन से अधिक तेल निकाला गया था।

अख्तर ने बताया, “यह एक बहुत ही आकर्षक व्यवसाय है। हम आदिवासी समूहों का सहयोग करने के लिए काम कर रहे हैं। अभी तक, हम अपने एफपीओ [किसान उत्पादक संगठन] और पलाश ऐप के माध्यम से तेल बेचते हैं। जल्द ही, हम एक सखी-ई-कार्ट ऐप लॉन्च करेंगे, जहां कोई भी इन तेलों को खरीद सकता है।”

उन्होंने आगे कहा, “हमें आपूर्ति को बढ़ाने के लिए उत्पादन इकाई को मजबूत करना होगा।”

ग्रामीणों की आजीविका के लिए यह योजना वरदान साबित हो रही है। सुषमा अब खुद को बिजनेस वुमन बताती हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “हम ग्रामीण महिलाओं ने व्यापार करना सीख लिया है। सौ का लेन-देन (व्यवसाय) करते थे। हमें उम्मीद है कि जल्द ही हमारा पचास हजार तक का कारोबार होगा। ये तो बस शुरुआत है।”

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