मोईनुद्दीन चिश्ती,
कुछ कर गुजरने की चाह मन में हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। यह बात राकेश चौधरी ने साबित कर के दिखाई है। राजस्थान में औषधीय खेती को प्रोत्साहित करने, किसानों को इसकी खेती से जोड़कर उनकी आर्थिक स्थिति को संबल देने में आज राकेश की अहम भूमिका है।
इतना ही नहीं, आज की तारीख में राकेश किसानों के साथ मिलकर हिमालयन ड्रग्स, एम्ब्रोसिया फूड्स, गुरुकुल फार्मेसी, पतंजलि सरीखी कंपनियों को आयुर्वेद महत्व की जड़ी बूटियां- औषधियां उपलब्ध भी करवा रहे हैं। अपनी हर्बल कंपनी के माध्यम से वे किसानों को उच्च कोटि के बीज उपलब्ध करवा रहे हैं, साथ ही उनकी उपज के अच्छे दाम भी दिलवा रहे हैं। इस प्रकार राज्यभर के किसानों को औषधीय खेती से जोड़ने के लिए उन्होंने कार्य किया है।
ग्रामीण परिवेश में जन्म लेने के चलते राकेश को बचपन से ही प्रकृति से गहरा लगाव रहा। पेड़ पौधे लगाना और वृक्षारोपण से जुड़ी जानकारी हासिल करने में उनकी गहरी रुचि रही। राकेश के मुताबिक सन 2004 में मैंने एक अखबार में ‛राजस्थान मेडिसिनल प्लांट बोर्ड’ द्वारा जारी विज्ञप्ति देखी जिसमें औषधीय खेती के लिए किसानों से प्रस्ताव मांगे गए थे।
इस विज्ञप्ति ने मुझे अपनी ओर खींचा जिसके चलते मैं जयपुर स्थित पंत कृषि भवन में आरएसएमपीबी के दफ्तर तक चला गया। पूरी जानकारी प्राप्त की, औषधीय व सुगंध पौधों की खेती कब की जाती है, फसलों को कब बोया जाता है, किस समय पर हार्वेस्ट किया जाता है। कुछ फसलों के फोल्डर लेकर मैं गांव आ गया। यहीं से मन बदला कि जीवन में कुछ बदलाव लाना चाहिए।
राकेश ने बताया सन 2005-06 में मैंने सबसे पहले इस प्रकार की खेती की शुरुआत अपने घर से ही की। अपने पिताजी, ताऊजी, चाचा व कुछ रिश्तेदारों को औषधीय फसलों की खेती के लिए मनाया, उनके परियोजना प्रस्ताव तैयार किए और आरएसएमपीबी में जमा करवाए जहां से इन प्रस्तावों को एनएमपीबी भेजा गया। इस बीच मुझे ‛रिलांयस लाइफ साइन्स’, जामनगर की एक संस्था के बारे में पता चला। मैंने वहां से ऐलोवेरा प्लांट लाकर किसानों में बांटे। ऐसा करने पर स्थानीय किसानों में उत्सुकता बढ़ी।
समुचित जानकारी के अभाव के चलते शुरुआत में सही फसलों का चयन नही हो पाया जिसके चलते इन फसलों को लगाने का फायदा नही मिल पाया। दूसरे शब्दों में वे फसलें हमारे स्थानीय वातावरण के अनुकूल नहीं थीं। मुलेठी, स्टीविया, सफेद मूसली जैसी फसलों के कारण किसानों को नुकसान हुआ।
इस कारण मन विचलित हो गया पर मैंने हार नहीं मानी। फिर से जानकारी हासिल करते हुए गर्म जलवायु व कम पानी वाले वातावरण के लिए कुछ फसलों का चुनाव किया जिससे न सिर्फ लाभ हो बल्कि किसानों को इसका बाजार भी आसानी से मिल जाए। इस बार ऐलोवेरा, सोनामुखी, तुलसी, आंवला, बेलपत्र, गोखरू और अश्वगंधा को चुना। यह वह समय था, जब मैं सब कुछ भूलकर किसानों को औषधीय खेती के लिए जागरूक करने में जुट गया था। समय-समय पर किसान भाइयों को लेकर आरएसएमपीबी द्वारा आयोजित कार्यशालाओं व ट्रेनिंग प्रोग्रामों में ले जाता।
मैंने सोचा कि मैं अकेले कुछ करने की बजाय समूह बनाकर खेती क्यों न करुं? ऐसा करने से बाजार ढूंढने में भी आसानी रहेगी और समूह होने से एक दूसरे के प्रति विश्वास भी बढ़ेगा। इसी एनएमपीबी से हमारे प्रस्ताव पास होकर आ गए। किसानों द्वारा ऐलोवेरा की बुवाई की गई। शुरु शुरु में हमारी फसलों को खरीददार कम मिले। यह वह समय था जब पतंजलि भी बहुत कम मात्रा में ऐलोवेरा खरीदती थी। इस बीच आरएसएमपीबी के अधिकारी राम तिवाड़ी द्वारा एचएचसी कंपनी, बिहारीगढ के बारे में पता चला जो ऐलोवेरा की खरीद फरोख्त करती थी। इस कंपनी का खरीद मूल्य एक रुपया 40 पैसे प्रति किलो था। मूल्य भले ही कम था, पर हमारे लिए यह प्रयास बहुत ही उत्सावर्धक और प्रेरणादायी साबित हुआ।
सन 2007 में नागौर जिले के कुछ किसानों के साथ मिलकर एक समूह बनाने का निर्णय लिया। उद्देश्य था की अब समूह में खेती करेंगे। आरएसएमपीबी में ‛मारवाड़ औषधीय पादप स्वयं सहायता समूह’ का पंजीकरण करवाया। मैं समय-समय पर एनएमपीबी के सम्पर्क में रहा और तकनीकी जानकारियों को सहेजना जारी रखा। किसानों के मध्य जाकर उनको भी औषधीय महत्व के पौधों की जानकारी देना जारी रखा।
ये भी पढ़ें- एलोवेरा की खेती का पूरा गणित समझिए, ज्यादा मुनाफे के लिए पत्तियां नहीं पल्प बेचें, देखें वीडियो
ये भी पढ़ें- औषधीय पौधों की खेती:
सुनियोजित व्यवस्था की कमी
परिणाम स्वरूप किसानों को इन सबमें रुचि जाग्रत होने लगी। इसी बीच औषधीय फसलों और जड़ी बूटियों को खरीदने के लिए नई कंपनियां और फार्मेसियां भी बाज़ार में आईं, इससे किसानों को बेचने की समस्या में आसानी होने लग गई। यह वह समय था जब हमने अन्य राज्यों में भी सम्पर्क स्थापित किए, अब किसान भाइयों की उपज बाहर जाने लगी। गुड़हल, लाजवन्ती, कपूर, तुलसी, अकरकरा जैसी औषधियां हमने उपजाई जिनके परिणाम बेहद संतुष्टि देने वाले रहे।
राकेश ने बताया कि हमारे स्वयं सहायता समूह के एक नवाचारी किसान गोरुराम सबलपुरा निवासी हैं। आपने 2005 में मात्र एक एकड़ खेत से ऐलोवेरा की खेती की शुरू की थी। आज यह अपने भाइयों के साथ मिलकर लगभग 12 एकड़ में ऐलोवेरा की खेती कर रहे हैं, साथ ही इन्होंने इंटरक्रॉपिंग में अरलू कि खेती भी की है जिससे आय के समीकरण में इज़ाफ़ा हुआ है। आज गोरुराम जी सालाना 10 से 12 लाख रूपये औषधीय खेती से कमाते हैं।
आज जोधपुर, बीकानेर, चुरू, सीकर, जैसलमेर आदि जगहों के 300 से ज्यादा किसान जुड़े हुए हैं। राज्य के 11 जिलों के किसानों के तकनीकी शिक्षा देकर औषधीय खेती के लिए प्रेरित किया है। पहले जो किसान 10-12 हज़ार कमाते थे, वही अब 4 से 5 लाख सालाना कमाने लगे हैं जड़ी बूटियों की खेती से।
सम्पर्क: गांव राजपुरा, पोस्ट परेवड़ी, तहसील कुचामन सिटी, ज़िला नागौर- 341516 (राज.) फोन न. 09413365537
(लेखक कृषि और पर्यावरण पत्रकार हैं)