औषधीय पौधों की खेती: सुनियोजित व्यवस्था की कमी 

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हमारी अर्थव्यवस्था में मात्र किसान ही ऐसा व्यक्ति है जो अपने बीज, खेती-बाड़ी के माल-सामान, खाद आदि फुटकर बाजार से खरीदता है और अपने उत्पादन को थोक बाजार में बेचता है और दोनों तरह की प्रक्रिया में माल सामान लाने और ले जाने के लिए भाड़े का भुगतान भी खुद करता है और जब कभी यह किसान फुटकर बाजार में चादर बिछाकर अपने उत्पादों को बेचने बैठता तो हम शहरी लोग 2-2 रुपयों के लिए खींचतान करने में चूकते भी नहीं।

बाजारीकरण की प्रक्रिया इतनी पेचिदा हो चली है कि किसान खुद को असहाय सा महसूस करने लगा है। एक तरफ अर्थव्यवस्था की मार और दूसरे तरफ मौसम की ठोक-बजाई, साधारण किसान खेती को लेकर दिन-ब-दिन खुद को कमजोर महसूस करने लगा है। खेती-किसानी को लेकर सरकारी योजनाएं हकीकत में कितनी सफल हो पाती हैं ये तो भगवान ही जाने लेकिन इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि एक आम किसान आंकड़ों पर नहीं अपनी फसल की क्वालिटी और उत्पादन के आधार पर आय अर्जित करता है।

किसी वजह से उसकी फसल बिगड़ जाए तो उसके पूरे परिवार का सालाना बजट भी पटरी से उतर जाता है। मौसम की मार हो या बाजार की तेजी नरमी, किसान की ही आंखें हैं जो सबसे पहले नम होती हैं। किसान को पारंपरिक खेती में नुकसान होता दिखाई देता है या कम नफा दिखाई देता है तो वो गैर पारंपरिक तरीकों और गैर पारंपरिक फसलों की तरफ अपना ध्यानाकर्षित करता है।

औषधीय पौधों की खेती के लिए सरकारी तंत्र और कई तरह की एजेंसियों की तरफ से बेजा प्रचार-प्रसार होता है, कुछ किसान इस खेती को अपनाते भी हैं लेकिन परिणाम देखे जाएं तो अंत अधिकतर बेहद दुखदाई होता है।

पिछले दो दशकों में औषधीय पौधों की खेती के लिए केंद्र और तमाम राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को काफी प्रोत्साहित किया गया ताकि वे इसे मुख्यधारा व्यवसाय की तरह अपनाएं। रोजगार केंद्रों और सरकारी प्रतिष्ठानों की तरफ से किसानों के आय स्रोतों की बेहतरी के उद्देश्य से अनेक योजनाओं को लागू भी किया गया।

फिर ऐसा क्या हुआ जो देश के ज्यादातर किसानों को यह भाया नहीं? बाजारीकरण की प्रक्रिया में देश के बड़े किसानों का केंद्रबिंदु बन जाना और योजनाबद्ध तरीके और बाजार की लय के हिसाब से खेती करना उन्हें सफल बना गया लेकिन बाजार की स्पष्ट जानकारी के अभाव में छोटा किसान हमेशा पिटता गया और अंत में उसके हाथों शून्य ही हासिल हुआ।

सेंट्रल मेडिसिनल प्लांट बोर्ड ने बतौर प्रोत्साहन औषधीय पौधों की खेती के लिए सब्सिडी का प्रावधान रखा और इस तरह की योजनाओं का खूब प्रचार-प्रसार भी हुआ। स्टेट मेडिसिनल प्लांट बोर्ड ने अपने-अपने प्रांतों में भी किसानों तक इस तरह की योजनाओं की जानकारी प्रेषित करी लेकिन जिस तरह का प्रतिसाद मिलना चाहिए था, मिला नहीं।

आज दुनिया में औषधीय पौधों का बाजार करीब 63 बिलियन अमेरिकन डॉलर का है, यानि करीब 378000 करोड़ रुपए जो सन 2050 के आते-आते यह करीब 5 ट्रिलियन अमेरिकन डॉलर (300 लाख करोड़ रुपए) का हो जाएगा, साधारण शब्दों में कहा जाए तो इस बाजार की रफ्तार काफी तेज है लेकिन भारत वर्ष दुनिया के इस फलते फूलते बाजार में सिर्फ 2 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है, यानि इतनी भरपूर संपदा और स्रोतों के होने बावजूद हम कहीं ना कहीं चूक रहे हैं।

आज फार्मा कंपनियां करीब 400 औषधीय पौधों को अपने उत्पादों में इस्तेमाल कर रही हैं लेकिन सरकार से प्राप्त सब्सिडी वाले पौधों की संख्या 60 से भी कम है, बाकी 340 पौधों की उपलब्धता कहां से हो रही? साधारण सी बात है, इसे जंगलों से प्राप्त किया जा रहा है यानि वन संपदा का बेजा दोहन हो रहा है। सब्सिडी दिए जाने वाले करीब 60 पौधों में से महज 20 पौधों को वृहत स्तर पर कुछ बड़े किसान बंधुओं ने अपनाया हुआ है।

साफ अर्थ निकाला जा सकता है कि औषधीय खेती के नाम पर संभावनाओं की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ दिशा और सटीक मार्गदर्शन की। अकेले हिन्दुस्तान में करीब 14 ऐसी हर्बल प्रोड्क्ट्स कंपनियां हैं जिनका व्यापार सालाना 50 करोड़ से ज्यादा है और करीब 36 ऐसी कंपनियां हैं जिनका व्यापार 5 से 50 करोड़ के बीच है और करीब 1500 ऐसी कंपनियां हैं जिनका सालाना व्यापार 1 से 5 करोड़ के बीच होता है।

करीब 8000 छोटी मोटी कई कंपनियां हैं जिनका सालाना व्यापार 1 करोड़ के अंदर है, तो फिर इन सारी कंपनियों को कच्चे माल की भरपायी कहां से होती है? जबकि अधिकारिक तौर पर महज 20-30 औषधीय पौधों को ही विस्तार से उगाया जा रहा है।

इस विषय पर गौर फरमाया जाए तो तय होता है कि औषधीय खेती के लिए बहुत बड़ा बाज़ार खुला पड़ा है लेकिन एक सुनियोजित और पारदर्शी व्यवस्था की कमी और फार्मा कंपनियों के साथ ताल-मेल में असमर्थता की वजह से हर्बल खेती को जिस कदर का प्रोत्साहन मिलना चाहिए, नहीं मिल पा रहा है और इस पूरी प्रक्रिया में छोटे किसान वंचित भी हैं।

यदि अपनी जानकारियों को एकत्र कर, स्वेच्छा से यदि कोई छोटा किसान औषधीय पौधों की खेती कर भी ले तो फसलोत्पादन को बेचना उसके लिए किसी सरदर्द से कम नहीं होता और जब सही दाम नहीं मिलता है तो किसान ठगा सा महसूस करता है।

आज आवश्यकता है कि सरकार, फार्मा कंपनियां, एजेंसियां और गैर सरकारी संगठन आपस में मिलकर इस बाजार को समझें और छोटे और कम विकसित किसानों को एक ऐसा मंच प्रदान करें जहाँ वे अपने उत्पादन की तय बिक्री होने को लेकर पूर्व से ही संतुष्ट रहें।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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