किसानों की आय तय हो तभी होगा उनका भला

ऐसे में जब विश्व व्यापार संगठन भारत पर दबाव बना रहा है कि खाद्यान्नों के सार्वजनिक भंडारण की एक सीमा तय की जाए, किसानों को ऊँचे एमएसपी देने का वादा ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। व्यावहारिक उपयोगिता न होने से यह वादा खोखला साबित होगा।
#एमएसपी

बढ़े हुए एमएसपी का ऐलान एकदम सही समय पर किया गया लगता है । आम चुनाव से लगभग एक साल पहले 14 खरीफ फसलों के बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान एक किस्म का चुनावी बिगुल है। अब एक तरफ जहां यह बहस चलती रहेगी कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान किसानों से किया अपना वादा निभाया या नहीं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ बीजेपी हर मंच से इस ऐलान को भुनाने की कोशिश करती रहेगी। किसानों को इससे कितना फायदा होगा यह तो समय ही बताएगा।

कुछ साल पहले इसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने स्वामीनाथन आयोग की सी2 लागत पर 50 पर्सेंट लाभ देने की सिफारिश को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि यह मुमकिन नहीं है और ऐसा करने से बाजार उथल-पुथल हो जाएगा। लेकिन अब सरकार को अहसास हुआ है कि एमएसपी बढ़ाने से इनकार करना एक तरह से राजनीतिक खुदकुशी साबित होगी। सरकार के रुख में यह बदलाव किसानों के लिए फायदेमंद साबित हुआ है। यह बात और है कि सरकार ने एमएसपी में जितनी बढ़ोतरी का ऐलान किया है वह किसानों की मांग से काफी कम है। लेकिन फिर भी यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। पर यह कदम सार्थक साबित हो इसके लिए जरूरी है कि सरकार सभी फसलों की सरकारी खरीद के लिए आवश्यक तंत्र की स्थापना करे। अफसोस है कि फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है। इसके अलावा इस बढ़ोतरी में ऐतिहासिक जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि अतीत में कुछ कृषि उत्पादों के एमएसपी में इससे ज्यादा वृद्धि हुई है।

सरकार किसानों को लागत मूल्य पर 50 पर्सेंट मुनाफा देने का वादा पूरा करने पर अपनी ही पीठ जमकर थपथपा रही है लेकिन असलियत यह है कि सरकार ने लागत की गणना करने वाले सूत्र में ही हेरफर कर दी है। सरकार ने मूल्य निर्धारित करने वाले मानकों में बदलाव करके किसान की लागत में ही कमी दिखाई है। सी2 के आंकलन में पूंजी निवेश पर ब्याज और जमीन का किराया भी जोड़ा जाता है। लेकिन सरकार ने लागत के आंकलन में कमी लाने के लिए केवल ए2 और ए2+एफएल को जोड़ा है। ए2 लागत में किसानों के फसल उत्पादन में किए गए सभी तरह के नकदी खर्च शामिल होते हैं। इसमें बीज, खाद, केमिकल, मजदूर लागत, ईंधन लागत, सिंचाई आदि लागतें शामिल होती हैं। ए2+एफएल लागत में नकदी लागत के साथ ही परिवार के सदस्यों की मेहनत की अनुमानित लागत को भी जोड़ा जाता है। इसका मतलब है कि सरकार ने सी2 लागत पर 50 पर्सेँट मुनाफा न देकर केवल ए2+एफएल पर 50 पर्सेँट लाभ दिया है। दूसरे शब्दों में पुल ऊंचा बनाने की जगह सरकार ने नदी का स्तर ही नीचा कर दिया।


धान का उदाहरण लीजिए। सामान्य श्रेणी के धान का मूल्य पिछले साल 1,550 रुपए प्रति क्विंटल था इस साल इसे 200 रुपए बढ़ाकर 1,750 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) ने ए2+एफएल की गणना 1,166 रुपए प्रति क्विंटल की थी इस लिहाज से यह बढ़ोतरी ए2+एफएल पर 50 पर्सेंट मुनाफा है। पर किसानों की मांग यह नहीं थी, वे तो स्वामिनाथन कमिशन की सिफारिशों के आधार पर सी2 लागत पर 50 पर्सेंट मुनाफे की मांग कर रहे थे। सीएसीपी ने प्रति क्विंटल सी2 लागत की गणना 1,560 रुपए की थी इस पर 50 पर्सेंट मुनाफे का मतलब है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,340 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए था। इससे तुलना करें तो जो किसान को मिला है उससे उन्हें प्रति क्विंटल 590 रुपए का घाटा हुआ है।

इसी तरह, मक्का के लिए ए2+एफएल की गणना 1,131 रुपये प्रति क्विंटल पर की गई है। इस पर 50 पर्सेंट लाभकारी एमएसपी 1,700 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया। लेकिन मक्के की सी2 लागत 1,480 रुपए प्रति क्विंटल है, स्वामिनाथन आयोग के हिसाब से मक्के की एमएसपी 2,240 रुपए प्रति क्विंटल होनी चाहिए थी। इसका मतलब है कि मक्का किसानों को 540 रुपए प्रति क्विंटल का नुकसान हुआ। लेकिन नीति आयोग ने लागत तय करने के नए तरीके की यह कह कर वकालत की है कि देश भर में जमीन की कीमत अलग-अलग है इसलिए इसे किसान की लागत में जोड़ना अव्यावहारिक होता। लेकिन इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि खेती की लागत में शामिल दूसरे कारक भी देश भर में समान नहीं हैं जब उनकी गणना हो सकती है तो जमीन की कीमत का औसत निकाल कर उसे भी सी2 लागत में जोड़ा जा सकता था। मेरी समझ से बाहर है कि सीएसीपी ने जो सी2 लागत निकाली है उसे मानने में नीति आयोग को क्या समस्या हो सकती है।

भविष्य में खेती की लागत को मापने का आधार ए2+एफएल को बनाने की कोशिशों से पता चलता है कि नीति निर्माताओं को कृषि अर्थव्यवस्था की कितनी परवाह है। खेती को देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ माना जाता है इसीलिए पिछले कुछ दशकों से जानबूझकर इसे इसके अधिकारों से वंचित रखा गया है। इसके पीछे यह विचार है कि किसानों को खेती से बेदखल कर उनका शहरों की ओर पलायन कराया जाए जहां सस्ते श्रम की जरूरत है। दूसरे शब्दों में, आर्थिक सुधारों को कामयाब बनाने के लिए खेती को बलि चढ़ाया जाए। इसके अलावा, आम धारणा यह है कि किसानों को ज्यादा कीमतें देने से खाने-पीने की चीजें महंगी हो जाएंगी, इससे आर्थिक विकास दर में गिरावट आएगी और दूसरी तरफ देश का उपभोक्ता वर्ग नाराज होकर विरोध करने लगेगा। कुल मिला कर शहरी उपभोक्ताओं को खुश करने का पूरा बोझा बड़ी सुगमता से किसानों के ऊपर डाल दिया जाता है। 

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एमएसपी में बढ़ोतरी के कैबिनेट के फैसले के बाद गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रेसवार्ता में कहा था कि खरीफ फसलों की कीमतों में बढ़ोतरी से 15 हजार करोड़ का अतिरिक्त खर्चा होगा। उनके इतना कहने की देर थी कि अर्थशास्त्री और आर्थिक विश्लेषकों ने  ढेरों सवाल करना शुरू कर दिए जैसे कि, यह पैसा कहां से आएगा, एमएसपी बढ़ाने की राजनीतिक मजबूरी से आर्थिक अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलेगा और इस वजह से राजकोषीय घाटे निर्धारित सीमा से बाहर चला जाएगा वगैरह।

लेकिन जब 45 लाख केंद्रीय कर्मचारियों व 50 लाख पेंशनरों को लाभान्वित करने वाले सातवें पे कमिशन का ऐलान हुआ था तब भी वित्त मंत्री ने कहा था कि इससे सरकारी खजाने पर हर साल 1.02 लाख करोड़ रुपए का बोझ बढ़ेगा। लेकिन न तो तब किसी ने यह सवाल किया कि यह पैसा आएगा कहां से और न ही राजकोषीय घाटा बढ़ने की बात कही। इसके बाद स्विटजरलैंड के क्रेडिट सूज़ी बैंक की एक स्टडी में अंदाजा लगाया कि जब पे कमिशन सभी राज्यों में लागू होगा तब हर साल 4.50 से 4.80 लाख करोड़ रुपयों का अतिरिक्त बोझ उठाना होगा। लेकिन मुझे याद नहीं आता कि किसी भी अर्थशास्त्री ने यह पूछा हो कि यह पैसा आएगा कहां से। ना ही किसी ने यह गणना की कि बढ़ी हुई तनख्वाह का असर महंगाई पर क्या होगा। इसलिए किसानों के मामले में यह सवाल करना कि उन्हें देने के लिए पैसा कहां से आएगा, भेदभावपूर्ण मानसिकता का परिचायक है। ऐसी स्थिति में कोई हैरानी नहीं है कि इतने वर्षों में किसानों को उनका वाजिब हक नहीं मिला और वे कर्ज के तले दबते जा रहे हैं, इस सबका परिणाम यह हुआ कि कृषि संकट और गंभीर हुआ है।

जब तक खाद्यान्नों की विपणन व्यवस्था में जरूरी पूंजी निवेश नहीं होगा तबतक फसलों के एमएसपी बढ़ाने से कोई फायदा नहीं होने वाला। देश में लगभग 7600 मंडियां हैं लेकिन अगर हर 5 किलोमीटर पर मंडियों की सुविधा उपलब्ध करानी है तो देश को करीब 42,000 मंडियों की जरूरत है।

सरकार के तमाम दावों के बावजूद खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का लाभ महज 6 पर्सेंट किसानों को ही मिल पाता है। इस तथ्य का उल्लेख खुद उच्च स्तरीय शांता कुमार कमिटी ने किया है। खरीफ फसलों के बढ़े हुए एमएसपी का फायदा मुख्यत: हरियाणा और पंजाब के ही किसान उठाएंगे क्योंकि इन्हीं दो राज्यों में गेहूं और धान की सरकारी खरीद के लिए सुव्यवस्थित मार्केटिंग तंत्र है। बाकी की खरीफ फसलों के लिए एमएसपी से 1.5 गुना ज्यादा कीमत का ऐलान बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता क्योंकि अधिकतर राज्यों में इनके खरीदने की उचित व्यवस्था ही नहीं है। दालों का ही उदाहरण लें जिसके लिए दो वर्ष से सरकार ऊंचे दामों का ऐलान कर रही है लेकिन असलियत यह है कि दालों की सरकारी खरीद बहुत कम रही है। सरकारी खरीद की अनुपस्थिति में किसानों को अपनी उपज 25 से 40 प्रतिशत कम दामों पर बेचनी पड़ी।

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इसलिए जब तक खाद्यान्नों की विपणन व्यवस्था में जरूरी पूंजी निवेश नहीं होगा तबतक सभी फसलों के एमएसपी बढ़ाने से कोई फायदा नहीं होने वाला। देश में लगभग 7600 मंडियां हैं लेकिन अगर हर 5 किलोमीटर पर मंडियों की सुविधा उपलब्ध करानी है तो देश को करीब 42,000 मंडियों की जरूरत है।

इसके अलावा, फसलों की कीमतों में यह बढ़ोतरी उस समय हुई है जब दुनिया भर में कीमतों में गिरावट आ रही है। हाल ही में आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन और खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि आने वाला समय दुनिया भर के किसानों के लिए मुश्किल साबित होने वाला है। अनाज, रुई और दूध के दाम पूरे विश्व में अगले दशक के दौरान भी मंदी के शिकार रहेंगे। दूध के दाम पहले ही चार वर्षों से निम्नतम स्तर पर चल रहे हैं, परिणामस्वरूप अमेरिका और यूरोप में हजारों डेयरी फार्म बंद हो गए हैं। पिछले दशक में अमेरिका में 17000 डेयरी यूनिटें बंद हो चुकी हैं, पिछले तीन साल में यूरोपियन यूनियन में कम से कम तीन हजार डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं। यहां तक कि न्यूजीलैंड के सबसे कुशल डेयरी किसानों को भी लाभकारी दाम नहीं मिल पा रहे हैं। भारत में भी डेयरी सेक्टर गंभीर संकट से गुजर रहा है। महाराष्ट्र में दूध बोतलबंद पानी से भी कम कीमत पर बिक रहा है।

ऐसे में जब विश्व व्यापार संगठन भारत पर दबाव बना रहा है कि खाद्यान्नों के सार्वजनिक भंडारण की एक सीमा तय की जाए, किसानों को ऊँचे एमएसपी देने का वादा ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। व्यावहारिक उपयोगिता न होने से यह खोखला साबित होगा। किसान आंदोलनों को भी समझना होगा। अब समय आ गया है कि खाद्यान्नों की कीमतें तय करने की जगह किसानों की आय तय की जाए। मैं कई बार किसानों को एक सुनिश्चित मासिक आय मुहैया कराने पर जोर दे चुका हूं। ऐसा करना न केवल विश्व व्यापार संगठन के नियमों के हिसाब से संगत होगा बल्कि इससे किसानों को आर्थिक सुरक्षा भी मिलेगी। इसलिए मांग यह होनी चाहिए कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग का नाम बदलकर किसान आय एवं कल्याण आयोग कर दिया जाए। इस आयोग का मकसद हो कि प्रत्येक किसान परिवार को हर माह 18,000 रुपए प्रति माह की आय सुनिश्चित की जाए। तभी सही मायनों में सबका साथ, सबका विकास होगा। 

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। उनका ट्विटर हैंडल है @Devinder_Sharma उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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