किस-किस को याद है, दादी का, नानी मां का, अम्मा का रोटी बनाते में, आटे की लोई से चिड़िया बना कर देना? जिसकी टांगे झाड़ू की सींक से बनती थीं? मैं अपनी चिड़िया कभी सेंकने न देती। मेरा भाई सेंक कर घी चुपड़ कर खा जाया करता। आह बचपन! वाह बचपन!
तब हम गौरैया को चिड़िया ही नाम से पहचानते थे। हां भई हां! कौन नहीं जानता कि चिड़िया पक्षी का पर्याय है न कि गौरैया का। हमारी कहानी, एक थी चिड़िया, एक था चिरौटा। चिड़िया दाल लाई, चिरौटा चावल लाया के नायक-नायिका भी नर-मादा गौरैया होते थे। क्योंकि गौरैया हमारी दिनचर्या का हिस्सा थी। कभी आंगन की धूल में फुर्र-फुर्र नहाती हुई। कभी मटके के पास बैठी हुई। कभी आटा गूंथती मां की परात से आंख बचा कर आटा ले जाती हुई, कभी घास के तिनकों से घर की दीवारों के छेदों, रोशनदानों में घोंसला बनाने में व्यस्त चिड़िया यानि गौरैया। अंग्रेज़ी में ‘हाउस स्पैरो’ यानि घरेलू गौरैया।
आपको याद नहीं आती वह? कभी गौर किया है कि उन्होंने पहले की तरह इंसानों के निकट आना बंद कर दिया है! घरों में घोंसले बनाना भी। कहां चली गई वह? वाहनों के शोर से भाग गई? मोबाईल की तरंगों से परेशान हो गए उसके कान? या उसके लिए भोजन-पानी निकालना बंद कर हम फ़्लैटों में, बंद घरों में सिमट गए? बहुत स्वार्थी हो गए न हम? अब वह बहुत कम, शोर से दूर पुरानी खाली इमारतों में, बोगेनविलिया की झाड़ियों में, खेतों-खलिहानों में दिखती हो तो दिखती हो। घरों के आस-पास नहीं दिखती।
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वह तो दुख में भर कर आपको याद करती ही रहती है, कहां गए वो बच्चे? जो ‘चिड़िया उड़’ खेला करते, अपने चना-चबैना बिखरते थे। वो गृहणियां जो धूल में नहाती चिड़ियों के शगुन में बरसातों का स्वागत करतीं और आंगन में धान फेंका करती थीं उनके लिए। अब बच्चे मोबाईल, विडियो गेम्स में फंसे हैं और औरतें टीवी में। गोरैय्या बिसरा दी गई।
हमारे घर बड़े हो गए मगर दिल छोटे। पैसा आ गया पर हर किस्म के नन्हें जीवों के लिए दया मिट गई। पूरे विश्व में ‘ द हाउस स्पैरो’ यानि गौरेया पहले की बनिस्बत 20 प्रतिशत रह गई है। वजह हमारी आधुनिक जीवन शैली। सीधे आटा लाते हैं हम, गेंहूं कुठार के बाहर नहीं बिखरता कि गौरेया आए ले जाए। पानी तो हम कहीं बाहर मटकों में रखते नहीं, फ्रिज में बोतलों में बंद। घरों में घोंसले लायक कोई जगह, कोई छेद, गड्ढा नहीं।
गौरेया छोटे पेड़ों या झाड़ियों में भी घोंसला बनाती है। उन्हें भी नष्ट करते जा रहे हैं हम। नए लगा नहीं रहे हैं। कनेर, बबूल, बंसवारियों, नींबू, अमरूद, अनार आदि पेड़ों में रहना पसंद करती है गौरेया। अब इन्हें लगाने के लिए हमारे पास जगह नहीं है। इनकी जगह पर हम एक कमरा और बना लेंगे। गौरेया के लिए सोचने की हमारे पास फुर्सत नहीं है। घास के भी बीज खा लेती गौरेया मगर गार्डन हम पक्के करा लेते हैं कि कौन मेहनत करेगा? शहरों और गांवों में लगे मोबाइल टावर भी गौरेया के लिए घातक हैं। इनसे निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें उनकी प्रजनन क्षमता समाप्त कर रही हैं। गौरेया बाजरा, धान, पके चावल के दाने और कीड़े खाती है। हमारे जीने के आधुनिक तरीक़ों ने उनसे प्राकृतिक भोजन के ये स्रोत भी छीन लिए हैं।
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हमारी छोटी-छोटी कोशिशें गौरेया को लौटा ला सकती हैं, अगर वह हमारे घर में घोंसला बनाए, तो हम हटाएं नहीं। हम नियमित रूप से अपने आंगन, खिड़कियों और घर की बाहरी दीवारों पर उनके लिए दाना-पानी रखें। गर्मियों में न जाने कितनी गौरेया प्यास से मर जाती हैं। इसके अलावा उनके लिए हम भी तो घोंसले बना कर टांग सकते हैं, मटकियों में छेद करके। जब वे अंडे दें तो बिल्ली, बाज, चील-कौओं से उनके अंडों की सुरक्षा भी करनी जरूरी है।
गौरेया से हमारा बचपन की चिड़िया का नाता है। तुम्हें वही पुरानी चिड़िया वापस चाहिए न? तो बस उसे प्यार, पानी, दाने, रहने को थोड़ी-सी जगह दे कर पुकार लो। वह लौट आएगी…हमारे घर में और हमें ले जाएगी हमारे बचपन में।
(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। इनका जन्म और शिक्षा राजस्थान में हुई। फौजी परिवेश ने इन्हें यायावरी दी और यायावरी ने विशद अनुभव। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप्स से सम्मानित मनीषा के सात कहानी कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मनीषा आज कल संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो हैं और ‘ मेघदूत की राह पर’ यात्रावृत्तांत लिख रही हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास रूसी, डच, अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुके हैं।)