इन उपायों से किसानों की स्थिति आसानी से सुधारी जा सकती है

दुनिया के हर हिस्से में कृषि समाज में कल्याण के प्रवर्तक की भूमिका निभाती है। चाहे यह जनता, विशेष रूप से गरीबों को रोज़गार देने के रूप में हो या फिर भोजन, सामग्री और कच्चेमाल के आपूर्तिकर्ता आदि के रूप में हो। बावजूद इसके वर्तमान समय में हमारे देश में कृषि संकट के दौर से गुजर रही है।

Dr SB MisraDr SB Misra   13 April 2024 10:55 AM GMT

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इन उपायों से किसानों की स्थिति आसानी से सुधारी जा सकती है

लंबे समय से इस बात के लिए किसानों के आंदोलन चल रहे हैं कि उनको उनकी पैदावार का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले। यह उनको तात्कालिक लाभ तो दे सकता है, लेकिन क्या उसके दूरगामी परिणाम होंगे? क्योंकि दूसरी चीजों का समर्थन मूल्य तो दिया नहीं जाएगा, और जब अनाज महँगा होगा तो बाकी चीजें भी महँगी होंगी। उदाहरण के लिए कपास महँगा होगा तो कपड़ा भी महँगा होगा। गन्ना महँगा होगा तो चीनी भी महँगी होगी और इस तरह से तमाम चीजों की महँगाई का बोझ खुद किसानों पर आएगा। आजादी के पहले और बाद में भी लंबे समय तक किसान और अध्यापक कभी हड़ताल नहीं करते थे। यह यूनियन बाजी आज़ादी के करीब 20 वर्ष बाद अचानक किसान नेताओं ने आरंभ कर दिया, इसका परिणाम ठीक नहीं रहा है।

आज़ादी के बाद जब-जब किसानों के बेटों में बटवारा हुआ तो ज़मीन छोटी होती चली गई और वह लाभकारी नहीं रहा। किसानों के सामने कोई विकल्प नहीं पेश किये गए और वे ज़मीन से ही चिपके रहे। आवश्यकता यह थी कि किसानों को या तो वैकल्पिक व्यवसाय उपलब्ध कराए जाते या उनके गाँव में किसानों द्वारा पैदा की गई फसल के प्रोडक्ट बनाए जाते और फसल आधारित व्यवसाय गाँव गाँव में खड़े किए गए होते, तो यह दशा नहीं होती और किसानों को ना तो पलायन करना पड़ता और ना गरीबी और भुखमरी का सामना और ना आन्दोलन।

अभी हालत यह है की किसान अपने घर का 20 रुपए प्रति किलो गेहूँ बेचता है और उसके बेटे 40 रुपए या 50 रुपए प्रति किलो दलिया खरीदते हैं। क्या दलिया बनाने की मशीन गाँव-गाँव में नहीं लगाई जा सकती ? यही बात बेसन, विविध दालों से मंगोड़ी, दही बड़ा पाउडर, इडली पाउडर, दोसा पाउडर और जितने भी खाद्य पदार्थ हैं सब पर लागू होती है। यदि गाँव में कुटीर उद्योग होते तो किसान और उसके बेटों को कुछ तो रोज़गार मिलता। आज की तारीख़ में किसान अधिकतम एक महीना या दो महीना खेती करता है, क्योंकि खेती मशीनों से होती है। बाकी 10 महीना किसान के पास कोई काम नहीं रहता वह बेकार रहता है,क्या करेगा किसान? शराब पिएगा। क्यों कि सरकार ने गाँव गाँव शराब की दुकानें खोल दी है, वह आपस में लड़ाई झगड़ा करेगा और उसका जीवन कष्ट मय होता चला जाएगा। किसानों को तकलीफ पहले भी थी जब तक 1954 में जमींदारी उन्मूलन नहीं हुआ।


मुझे याद है गाँव में ज़मींदार के गुमास्ते आते थे और एक किसान के दरवाजे पर बैठ जाते थे। गाँव के किसान अपनी पैदावार का एक तिहाई या शायद एक चौथाई हिस्सा ला- लाकर के वही इकट्ठा करते थे और ज़मींदार के गुमास्ते उसे ले जाते थे शायद जैसे मराठों के समय चौथ या मुगलों के समय जजिया का रिवाज रहा होगा। इसी तरह गाँव में मुगलिया और लाला लोगों के गुमास्ते ब्याज पर पैसा देने के लिए आया करते थे । वे लोग 10 रुपए कर्ज दिखाने को देते थे, मगर देते थे 9 रुपए और लिखते थे 10 रुपए कहते थे 1 रुपए लिखाई का पड़ गया फिर साल भर हर महीना 1 रुपए वसूलते थे यानी 9 रुपए देकर 12 रुपए साल भर में लेते थे। इसका अर्थ हुआ कि किसान इन सबको लगभग 33% ब्याज देता था। उससे तो अब छुटकारा मिल चुका है। ज़मींदार के गुमास्ते एक और काम करते थे वह शाम के समय जिस किसान के छप्पर पर घास का एक मुट्ठा रख जाते थे इसका मतलब था कि उस किसान को अगले दिन ज़मींदार के वहाँ काम करने जाना है इसे बेगार कहते थे, कोई मजदूरी नहीं मिलती थी।

आजकल जो किसान आंदोलन कर रहे हैं वह बड़े किसान हैं। लघु और सीमांत किसान अपने परिवार का पेट पालने भर का ही अनाज पैदा कर पाते हैं और उनके पास बेचने के लिए अनाज बचता ही नहीं, तब उन्हें समर्थन मूल्य से कोई मतलब नहीं। आंदोलन करने वाले या तो पंजाब और हरियाणा के या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान हैं जो संपन्न हैं और सरकार को अनाज बेचते हैं। लघु और सीमांत किसान के पास इतना समय नहीं कि वह महीना दर महीना राशन लेकर आंदोलन पर बैठा रहे, अगर वह आंदोलन करेगा तो उसके बच्चे भूखों मर जाएंगे। यदि गरीब किसानों को खाली समय में काम दिलाने के लिए आंदोलन होता तो समझ में आ सकता था। लेकिन यदि जिनके पास इतना अनाज है कि वह सड़क पर भंडारा खोलकर आंदोलन चला सकते हैं तो वे छोटे किसान नही हो सकते। खाने-पीने की तंगी 60 के दशक में सूखा पढ़ने के बाद शुरू हुई थी और तब छोटे प्रजाति वाले मैक्सिकन गेहूँ आयात किए गए थे। उसे अधिक से अधिक खाद और पानी चाहिए थे। हमारे देश के किसानों ने यूरिया का इतना अधिक प्रयोग किया की मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटती चली गई।

आज बहुत से इलाकों में ज़मीन अन उपजाऊ हो गई है, यदि इसी तरह ज़मीन का दोहन जारी रहा तो यूरिया तो मिलेगी दूसरे पोषक तत्व जैसे फास्फोरस,पोटास, कैल्शियम, आयरन और जिंक समाप्त होते चले जाएंगे और बहुत बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा ।

पुराने समय में किसान कभी बेकार नहीं होता था उसके पास हर समय काम रहता था। तब वह बैलों से खेती करता था जिसमें समय अधिक लगता था और जानवर पालता था जो सभी गोबर देते थे खेतों में यूरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वह दुधारू जानवरों से मिलने वाले दूध ,मट्ठा और घी का सेवन करता था खूब मेहनत करता था और वह स्वस्थ रहता था। लेकिन अब गाँव में भी वे सारी बीमारियाँ फैल रही हैं जो शहरों में हुआ करती थी, जैसे कैंसर, टी बी और न जाने कितनी बीमारियाँ मधुमेह खून की कमी आदि-आदि। ऐसे में हम देखते हैं कि एक तरफ पुराना ज़माना जिसमें स्वस्थ और निरोग ग्रामीण होते थे, और दूसरी तरफ आज का ज़माना जिसमें भुखमरी, कमजोरी और रोगी लोग हैं, फैसला करना कठिन नहीं है,कि हम प्रगति किए हैं या प्रतिगामी रहे हैं।


देश की 70% आबादी में से कितने प्रतिशत डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासक गाँवों से निकलते हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि आबादी के हिसाब से उनकी संख्या बेहद कम है । इसका कारण यह नहीं कि गाँव के बच्चों की बुद्धि कुशाग्र नहीं है, बल्कि यह है कि गाँव के स्कूलों की बुरी हालत है।

शहरों की अपेक्षा ग्रामीण स्वास्थ्य और मानसिक विकास पहले बेहतर था। इसका एक कारण यह भी है कि पहले गाँव में मोटे अनाज जैसे ज्वार बाजरा,मक्का आदि बड़ी मात्रा में पैदा होते थे,दालें खूब पैदा होती थी ,अब इनमे कमी आई है। इतने वर्षों बाद आज के राजनेताओं की समझ में आया है कि मोटे अनाज स्वास्थ्य के लिए बेहतर होते हैं और अब उन पर जोर दिया जा रहा है। कई बार यह तर्क भी दिया जाता है कि किसान क़र्ज़दार इसलिए हो रहा है कि उसे अपनी उपज का सही दाम नहीं मिलता। लेकिन सच्चाई यह है की शहरों की देखा देखी गाँव के किसानों और गाँव के दूसरे लोगों ने शादियों, त्योहारों में फिजूल खर्ची आरंभ कर दी है, जो पहले कभी नहीं होती थी। पहले गाँव में यदि किसी की लड़की की शादी होती थी तो गाँव भर के सब लोग एक साथ जुट जाते थे। और किसी बाग में बारात को टिकाकर उसकी सारी व्यवस्था गाँव वाले खुद कर देते थे। अब गाओं में भी शहर जैसा तंबू, नाच गाना, बैंड बाजा और आतिशबाजी सब कुछ होने लगा, इसके लिए उन्हें बैंक से कर्ज लेने में भी परहेज नहीं होता। किसानों का खेती से लगाव कम हो रहा है और उनके बच्चे खेती करने से दूर भागते हैं। जब कि पुराने समय में कहा जाता था “उत्तम खेती मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान”।

मैंने बहुत पहले 60 के दशक में कनाडा के गाओं को देखा था और वहाँ गाँव और शहर में इतनी बड़ी खाई नहीं थी, जितनी भारत में है । वहाँ के किसान बड़ी जोत वाले हैं, इसलिए मशीनीकरण स्वाभाविक ही नहीं आवश्यक भी है। भारत में छोटी-छोटी जोत वाले किसान हैं और बहुत कम साधन वाले हैं इसलिए जब वह खेती के साथ कोई दूसरा व्यवसाय नहीं करेंगे तो खेती से पूरा नहीं होगा। दूसरा व्यवसाय पशुपालन हुआ करता था जिसके लिए देश में चरागाह होते थे जिससे पशुओं के लिए बिना पैसे का चारा मिल जाता था। खेतों को पशुओं से स्वाभाविक खाद मिलती थी और यह केमिकल वाली अंग्रेजी खाद नहीं चलती थी । मिट्टी और मनुष्य का रिश्ता बहुत ही स्वाभाविक और सरल था, वह अपने स्वार्थ के लिए ज़मीन का अति दोहन नहीं करते थे। आज बिना मृदा परीक्षण के खाद डालते रहते हैं उन्हें यह नहीं पता कि मिट्टी में उर्वरकों का संतुलन किस सीमा तक बिगड़ रहा है। यदि बिगड़ रहा है तो उसके लिए क्या किया जा रहा है? खेतों में समय-समय पर हरी खाद उगाने की बात कही तथा सुझाई जाती है, लेकिन किसान खेत को आराम देने के लिए तैयार नहीं है उसको अधिक से अधिक आमदनी चाहिए।

पुराने समय में खेतों को एक फसल का आराम दिया जाता था और खेतों में बहु फसली खेती की जाती थी। बहु फसली खेती में कुछ दलहनी और कुछ अन्य अनाज बोये जाते थे दलहनी फसल की जड़ों में राइज़ोबियम नामक बैक्टीरिया रहते हैं जो ज़मीन को उपजाऊ बनाते हैं। इनके साथ ही जौ, गेहूँ , अलसी आदि बोए जाते थे तो उर्वरा शक्ति का उतना नुकसान नहीं होता था या पूर्ति हो जाती थी। इसी तरह फसल चक्र अपनाया जाता था जिस खेत में एक साल दलहनी फसल बोते थे । आवश्यक है कि चौमासा छोड़ने, बहु फसली खेती और फसल चक्र के विकल्प खोजे जायँ। जब ट्रैक्टर के द्वारा बहुत गहरी जुताई की जाती है तो ऊपर की उपजाऊ मिट्टी कई बार नीचे चली जाती है और नीचे की अन उपजाऊ मिट्टी ऊपर आ जाती है। छोटी-छोटी जोत वाले किसानों के लिए ज़मीन तो बढ़ी नहीं मगर आबादी बराबर बढ़ती जा रही है। ज़मीन पर आबादी का दबाव बढ़ रहा है इसलिए ज़मीन में अधिक से अधिक अंग्रेजी खाद और अधिक से अधिक पानी देकर कम समय में ज़्यादा उपज लेने का प्रयास रहता है। ऐसी खेती बहुत दिनों तक नहीं चलेगी।

पहले तालाबों में इकट्ठा वर्षा जल सिंचाई के लिए पर्याप्त हो जाता था। लेकिन अब भूमिगत जल का उपयोग खेती में अधिक से अधिक हो रहा है । परिणाम यह हुआ है के ग्राउंड वाटर लेबल नीचे गिरता जा रहा है और ज़मीन के अंदर वर्षा जल इकट्ठा नहीं हो रहा है, क्योंकि सड़क बनाने तथा वृक्षों के काटने और दूसरे प्रयोंगों से ज़मीन इतनी कड़ी होती जा रही है जिसके कारण रन्ध्रता और पारगम्यता समाप्त हो रही है। नतीजा किसी दिन दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन जैसी हालत न हो जाए। वहाँ जल समाप्त हो चुका है। देश में अगर जल समाप्त हो जाए तो आप कल्पना कर सकते हैं, क्या होगा? हमारे देश में मैंने स्वयं देखा है आज़ादी के समय जहाँ पर गंगा जमुना के मैदान में 10 से 12 फीट की गहराई पर पानी रहता था आज वहाँ भी 30 से 40 फीट पर पानी रहने लगा है। इस तरह जल स्तर अगर नीचे गिरता गया तो कल्पना नहीं की जा सकती है कि मनुष्य का क्या होगा? भविष्य का तो जो होगा वह होगा ही।


जब तालाबों से सिंचाई होती थी तो किफायत के साथ पानी का उपयोग होता था। किसान अपने खेत में क्यारियाँ बनाकर पानी उतना ही भेजता था जितना आवश्यक हो। उसके बाद नहरों से सिंचाई का दौर आया और आलसी किसान नहर से पानी खेत में काट देता था और घर में बैठ जाता था खेत में पानी भर जाता था । इसका नतीजा यह हुआ कि मिटटी की क्षारीयता बढ़ती गयी । अब तो नहरे भी समाप्त हो रही है। हर हाल में भूमिगत पानी पर दबाव घटना चाहिए नहीं तो एक दिन पीने के लिए पानी का संकट ज़रूर आएगा । नदियों के किनारे जो उद्योग कल कारखाने लगाए गए उनसे नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है और वह पीने के लिए तो क्या? सिंचाई के योग्य भी नहीं बचा है ।

जल प्रदूषण अपने में एक बड़ी समस्या है। पहले किसान फसल काटने पर अनाज का भंडारण अपने घर में कर लेता था और अगली फसल की बुवाई के लिए बीज भी बचा लेता था। अब बीजों की ऐसी प्रजातियाँ आ गई हैं कि वह अगली फसल में काम नहीं करती और किसान को हर फसल के लिए बीज खरीदना पड़ता है। बीजों की पुरानी प्रजातियाँ जो उपज तो कम देती थी लेकिन बहुत पौष्टिक होती थी, विलुप्त होती जा रही हैं। अब किसान के पास कोई विकल्प नहीं, सिवाय व्यापारी से बीज खरीदने के। रासायनिक खाद मिट्टी का उपचार क्षणिक रूप से इस तरह करती हैं जैसे शरीर का उपचार एलोपैथिक दवाइयाँ करती हैं।

गाँव की तरफ कुछ लोग ज़मीन खरीदने आते हैं और बड़े-बड़े फॉर्म बनाते हैं अपनी शहरी कमाई को खेती की कमाई दिखाते हैं। ऐसे नकली किसान गाँव को इसलिए आते हैं क्यों कि खेती की आमदनी पर टैक्स नहीं पड़ता ऐसे लोगों में डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता, व्यापारी और वे सभी लोग हैं जो काली कमाई को खेती की कमाई बताकर टैक्स बचाते हैं।

सरकार न जाने क्या समझ रही कि किसान के लिए तो जोत की सीमा निर्धारित की है लेकिन फार्म हाउस वाले किसान ज़मीन खरीद-खरीद कर बड़े फॉर्म बनाते हैं और कई बार उन्ही फार्मो पर किसानों को मजदूरी करनी पड़ती है जो कभी उनकी ज़मीन हुआ करती थी। ऐसे नकली किसानों का ना कोई मतलब गॉँव से है ना ज़मीन से, उनका मतलब है केवल टैक्स बचाने से। सरकार इसको कैसे रोकती हैं, यह सरकार जाने। किसानों की समस्याएँ एक दिन की नहीं है यह 70 साल में पैदा हुई हैं। इसका कारण यह है कि किसानों की नीतियाँ उन लोगों ने बनाई जिन्हें खेती किसानी का कोई अनुभव नहीं था गाँव में रहने का उन्हें अवसर नहीं मिला था। अब यदि हम औद्योगीकरण के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो औद्योगिक देशों का मॉडल अपनाना होगा और यदि कृषि प्रधान व्यवस्था रखना चाहते हैं तो किसान को अधिक से अधिक वैकल्पिक जीविका के साधन देने होंगे। जब तक ज़मीन पर से आबादी का दबाव घटेगा नहीं तब तक कोई भी समाधान कारगर नहीं होगा।

अब सवाल यह है कि क्या किसानों को फसल बीमा की सुविधा देने, दैवी आपदाओं से हुए नुकसान का मुआवजा देने, घर बैठे बैंक में पैसा भेजने, लगान माफ करने, खेती की आमदनी पर टैक्स न लगाने जैसी अनेक खैराती सुविधाओं के चलते देश के 140 करोड़ नागरिकों का पेट भर जाएगा? वर्तमान में सरकार चला रहे लोग 50 और 60 के दशक में भारतीय जनसंघ के रूप में एक नारा दिया करते थे “हर हाथ को कम हर खेत को पानी” तो फिर क्या हर हाथ को कम गाँव के लोगों को नहीं दिया जाएगा । यदि गाँव में हर हाथ को कम देना है तो फिर ट्रैक्टर और हार्वेस्टर तो उनके हाथ का काम छीन रहे हैं । यह मशीनरी वहाँ पर कामयाब होती है जहाँ आबादी बहुत कम है श्रम की कमी है

पूंजी की प्रधानता है और मशीन मनुष्य की जगह काम करती हैं । मशीनों ने किसानों के हाथ का काम छीन लिया और मशीन के मालिकों ने उसकी जेब का पैसा निकलवा लिया अब ऐसी हालत में जब कोई वैकल्पिक समाधान नहीं निकलता तो किसान अपनी समस्याओं से कैसे उबर पाएगा। भारतीय परिपेक्ष में अपनी समस्याओं का समाधान अपने परंपराओं क्षमताओं और परिस्थितियों को देखते हुए खोजना होगा ।

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