सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की हो बॉयोमीट्रिक हाजि़री

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लखनऊ। हर वर्ष परिषदीय स्कूलों के लिए प्रदेश सरकार अरबों रुपए का बजट देती है, इसके बावजूद सरकारी स्कूलों में शिक्षण व्यवस्था पटरी पर नहीं आ रही है। बच्चे स्कूल आना ही पसंद नहीं करते हैं क्योंकि स्कूल में उन्हें आकर्षक माहौल नहीं मिल पा रहा। हर वर्ष करीब सवा चार खरब रुपए परिषदीय स्कूलों के शिक्षकों का वेतन चला जाता है। प्रदेश के 75 जि़लों के सरकारी स्कूलों के बच्चों को करीब सवा एक अरब रुपए की कॉपी-किताबें मुहैया कराई जाती हैं। साढ़े चौदह अरब रुपए बच्चों की ड्रेस के लिए इस साल लगा है। साढ़े तीन करोड़ से अधिक बच्चे इस समय परिषदीय स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। मिड-डे मील में दी जाने वाली कन्वर्जन कॉस्ट का अनुमान लगाया जाए तो साल में करीब 33 अरब रुपए कन्वर्जन कॉस्ट में जाते हैं। इसके अलावा हर स्कूल को विभिन्न मदों के लिए हर साल 13 हजार रुपए का बजट भी दिया जाता है। इसके साथ-साथ कंप्यूटर, डाटा इंट्री समेत अन्य मदों के लिए भी करोड़ों रुपए के बजट का प्रावधान है। इन आंकड़ों के अनुसार वेतन के अनुपात में शिक्षा व्यवस्था पर केवल एक प्रतिशत धन दिया जाता है, इसके बावजूद भी शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। 

परिषदीय स्कूलों में बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है। कॉपी-किताबें और दोपहर का भोजन दिया जाता है, ड्रेस के साथ-साथ अनेक बार वजीफा दिया जाता है। इसके बावजूद भी गाँवों के अभिभावक पूरी फीस देकर बिना किसी सुविधाओं के अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में भेजते हैं। स्पष्ट है कि सरकारी स्कूल जिस काम के लिए बने हैं अर्थात शिक्षा के लिए, वो पूरा नहीं हो पा रहा है। इन सरकारी स्कूलों में बच्चे हैं, शिक्षक हैं, संसाधन हैं लेकिन शिक्षा का स्तर नहीं है। बच्चे तो आते हैं लेकिन शिक्षक नहीं। कई बार तो शिक्षक स्कूल आते ही नहीं हैं और साथी शिक्षकों से रजिस्टर में उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। गाँव कनेक्शन का सुझाव है कि ऐसे में स्कूलों में बॉयोमीट्रिक मशीन की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि शिक्षक स्कूल गया है या कितने समय पहुंचा है, इसका विवरण मिल सकेगा।

उन्नाव जि़ला मुख्यालय से 15 किमी दूर पूरब दिशा में बिछिया ब्लॉक है। यहां पर स्थित प्राथमिक विद्यालय में जब गाँव कनेक्शन संवाददाता 26 नवंबर को सुबह 9:40 पर जब पहुंचा तो स्कूल में ताला पड़ा था। न कोई शिक्षक था और न ही कोई चपरासी। स्कूल में विजय लक्ष्मी और गजाला परवीन दो शिक्षिका नियुक्त हैं। यहां के एक छात्र दयाल पुत्र सजीवन लाल से जब ये पूछा गया कि मैडम कितने बजे आती है तो उसने बताया, ”रोज हम लोग टाइम पर आते हैं, मैडम दस बजे से पहले कभी न आती हैं।” जब उससे पूछा गया कि मैडम पढ़ाती है तो उसने बताया कि नहीं, बस बैैठकर स्वेटर बुनती रहती हैं। स्कूल खुलने का समय सुबह नौ बजे है। प्रदेश के अधिकांश स्कूलों का लगभग यही हाल है कि छात्र तो पहुंच जाते हैं पर शिक्षक नहीं।  

बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा अभी तक शिक्षकों की उपस्थिति की जांच करने के लिए केवल रजिस्टर ही उपलब्ध है, जिस पर हस्ताक्षर के नीचे समय लिखा जाना चाहिए। शिक्षक स्कूल में जितने भी समय आए, अधिकतर जांच आख्याओं में पाया जाता है कि शिक्षक स्कूल विलंब से आता है और रजिस्टर में समय नियत वाला लिख देता है। इस पर अंकुश लगाने के लिए स्कूलों में बॉयोमीट्रिक व्यवस्था सुनिश्चित कराई जानी चाहिए।

झांसी के बेसिक शिक्षाधिकारी सर्वदानंद बताते है, ”अभी तक शिक्षकों की मानीटरिंग मैन्यूल है। जि़ले में अभी जिलाधिकारी ने नगर क्षेत्र के स्कूलों में एक अभिनव प्रयोग किया है। इसके तहत स्कूलों में एक-एक टैबलेट दिया गया है। शिक्षक को स्कूल पहुंचते ही टैबलेट से फोटो खींचनी है। बच्चों का समूह बनाकर फोटो खींचनी है और उसे वेबसाइट पर अपलोड करना है। इससे हमें ये जानकारी मिल जाती है कि शिक्षक कब स्कूल पहुंचा और स्कूलों में बच्चों की संख्या का अनुमान लग जाता है।” वो आगे बताते है, ”कोई भी शिक्षक गाँवों में रहना नहीं चाहता। शहर से गाँव पहुंचने में आए दिन साधनों का भी टोटा रहता है, इस कारण शिक्षक स्कूल लेट पहुंचता है। परिवहन विभाग बसों का समय नियत कर दे तो ये समस्या कम हो जाएगी। अधिकतर स्कूलों के निरीक्षण में शिक्षक बगैर जानकारी के अनुपस्थित मिलता है। ऐसे मामलों में शिक्षकों पर कार्रवाई भी की जाती है, इसके बावजूद भी शिक्षकों की कार्यप्रणाली में बदलाव नहीं आ रहा है।”

सरकार को गाँव कनेक्शन के सुझाव:

केवल शिक्षण कार्य दिया जाए शिक्षकों को

शिक्षकों को शिक्षण के अलावा पल्स पोलियो टीकाकरण, चुनाव, मतदाता पुनरीक्षण आदि विभिन्न कार्यों में लगा दिया जाता है। इस कारण से स्कूलों में कई दिनों का शिक्षण कार्य बाधित हो जाता है। गाँव कनेक्शन का सुझाव है कि शिक्षकों से ये जिम्मेदारी हटा देनी चाहिए। उन्नाव जि़ले के सिविल लाइन निवासी श्रीकृष्ण परिषदीय स्कूल में तैनात थे। कुछ साल पहले ही उनका रिटायरमेंट हुआ था। वो बताते है, ”शिक्षकों पर अतिरिक्त जिम्मेदारियां तो हैं ही, रही-सही कसर मिड-डे मील ने पूरी कर दी है। शिक्षक का प्राथमिक काम है शिक्षण कार्य कराना लेकिन अब शिक्षक स्कूल जाते ही मिड-डे मील की तैयारियों में जुट जाता है। ऐसे में शिक्षक से उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वो पूरी तरह से अच्छी शिक्षा बच्चों को दे पाएगा।”

हर पंचायत में बने खेल का मैदान 

आरटीई एक्ट आने से पहले परिषदीय स्कूलों में बच्चों के लिए खेलकूद प्रतियोगिताएं कराई जाती थीं लेकिन एक्ट आने के बाद बच्चों से किसी भी मद में पैसा लेने की मनाही कर दी गई है। इस कारण से खेलकूद प्रतियोगिताएं बंद हो गईं। गाँव कनेक्शन का सुझाव है कि हर पंचायत स्तर पर एक खेलकूद का मैदान बनाया जाए, विभिन्न प्रतियोगिताओं के आयोजन और सामान के लिए सरकार फंड जारी कर सकता है, जिससे ग्रामीण प्रतिभाओं निखरने का मौका मिल सकेगा। सीतापुर जि़ले के मिश्रिख निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामआसरे सिंह बताते है, ”खेलकूद प्रतियोगिताएं पहले होती थीं, बच्चे भी इन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए उत्सुक रहते थे। अगर फंड सरकार दे दें तो बच्चों का शारीरिक विकास भी हो जाएगा।”

सरकारी छुटिटयों की सीमा हो निर्धारित 

प्रदेश में सरकारी छुट्टियों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। सरकारें बदलती रहती हैं और वो अपने अनुसार छुट्टियों की संख्या में इजाफा करती हैं। वर्ष में करीब डेढ़ सौ छुट्टियां अभी तक शिक्षकों को मिलती हैं। गाँव कनेक्शन का सुझाव है कि सभी राजनीतिक पार्टियां एक साथ बैठक करके ये तय कर लें कि इतनी संख्या में ही छुट्टियां होंगी, सरकार चाहे जिसकी भी आए। आम सहमति से बनी गाइडलाइन का पालन करना अनिवार्य कर दिया जाए। साथ ही विभिन्न महापुरुषों की जयंती पर छुट्टियां की बजाए स्कूल में ही उनके बारे में जानकारी दी जाए। इसके बाद उसी दिन छात्र-छात्राओं को विभिन्न तरीके के कोर्स का प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है जैसे जूडो, पुराने खेलों के बारे में जानकारी, ताईक्वांडो, यौन शिक्षा के बारे में जानकारी आदि। 

परिणाम के आधार पर शिक्षकों का मूल्यांकन हो

शिक्षकों को पता है कि शिक्षा की गुणवत्ता सुधरे या न सुधरे उनकी नौकरी लगातार चलती रहेगी। गाँव कनेक्शन का सुझाव है कि सरकार को शिक्षकों की नौकरी संविदा पर कर देनी चाहिए। बच्चों की पढ़ाई का परिणाम ही शिक्षक की प्रतिबद्धता का मूल्यांकन हो। जो भी शिक्षक इस पर खरे उतरें उन्हीं की नौकरी आगे बढ़ानी चाहिए। सर्व शिक्षा अभियान के विशेषज्ञ डॉ. मुकेश कुमार सिंह बताते है, ”हर शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। शिक्षक अगर इस बात पर प्रतिबद्ध हो जाए कि बच्चों को हर हाल में पढ़ाना ही है चाहे बच्चे पढऩा चाहे या न, तो सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर कुछ ही दिनों में इतना अच्छा हो जाएगा कि कॉन्वेंट स्कूल में जाने वाले बच्चों के माता-पिता भी उन्हें सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू कर देंगे। अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर इतना अच्छा हो जाएगा तो निम्न और मध्यम वर्ग को राहत मिलेगी।”

प्रति वर्ष खर्चों पर एक नज़र

  • 4.23 खरब रुपए हर साल शिक्षकों के वेतन के लिए दिया जाता है। (औसतन हर माह 35 हजार वेतन माना जाए तो)
  • 33.15 अरब रुपए हर साल कन्वर्जन कॉस्ट पर खर्च होता है । (औसतन हर दिन पांच रुपए एक बच्चे पर कॉस्ट मानी जाए तो) 
  • 1.12 अरब रुपए हर वर्षकॉपी-किताबों पर सरकार खर्च करती है। (औसतन हर वर्ष हर जि़ले को डेढ़ करोड़ रुपए दिए जाते हैं।) 
  • 14.73 अरब रुपए हर साल बच्चों की ड्रेस के लिए दिया जाता है।  (हर बच्चे को चार सौ के हिसाब से ड्रेस के दो सेट दिए जाते हैं)

बच्चों के बैठने व खेलने  की हो उचित व्यवस्था

सरकारी स्कूलों की हालत ये है कि सफाई तक के उचित इंतजाम नहीं हैं। बच्चे ही झाड़ू लगाते मिलते हैं। न ही बच्चों के खेलने के इंतजाम हैं और न ही उनके बैठने की उचित व्यवस्था। सर्व शिक्षा अभियान के विशेषज्ञ डॉ. मुकेश कुमार सिंह बताते है, ”अगर बच्चों को स्कूल में अच्छा माहौल मिले तो वो स्कूल आने में हिचकिचाएंगे नहीं। कॉन्वेंट स्कूलों में बच्चों को अच्छा वातावरण मिलता है, इस कारण ही वो स्कूल जाना पसंद करते हैं। शिक्षकों को भी शिक्षण कार्य के लिए प्रतिबद्ध होना होगा, जैसा कि अन्य प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक करते हैं। अच्छा शिक्षण कार्य करने वाले शिक्षकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जो भी शिक्षण कार्य में ढिलाई बरते उसे चेतावनी देनी चाहिए।” वो आगे बताते है, ”बच्चों का रुझान बढ़ाने के लिए विभिन्न खेलकूदों का आयोजन भी होना चाहिए ताकि उन्हें शिक्षा के साथ मनोरंजन भी उपलब्ध हो सके। यही नहीं बच्चों को रोज स्कूल भेजने वाले अभिभावकों का भी सम्मान किया जाना चाहिए। ये प्रक्रिया अपनाने से दूसरे अभिभावक भी अपने बच्चों को लगातार स्कूल भेजने के लिए प्रेरित होंगे।”

शिक्षकों से हटे मध्याह्न भोजन की जि़म्मेदारी

सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन की व्यवस्था है। स्कूलों में ही बच्चों के लिए रसोइयों द्वारा शिक्षकों की निगरानी में भोजन तैयार किया जाता है। भोजन निगरानी में ही शिक्षकों का काफी समय चला जाता है। उन्नाव जि़ले के आरएसएस इंटर कॉलेज के सेवानिवृत्त शिक्षक कान्ता प्रसाद सिंह बताते है, ”शिक्षक अब स्कूल जाते ही मिड-डे मील बनवाने की तैयारियों में जुट जाता है। अगर मिड-डे मील की जिम्मेदारी अभिभावक समिति या प्रधान आदि को दे दी जाए तो शिक्षण में सुधार आ सकता है।

रिपोर्टिंग – अंकित मिश्रा/श्रृंखला पाण्डेय 

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