ग्रामीण इलाकों में स्कूलों की कमी नहीं है, प्रत्येक पंचायत में कई प्राइमरी स्कूल हैं और कम से कम एक जूनियर हाई स्कूल। पांच से सात किलोमीटर पर हाई स्कूल भी है। पर आगे की शिक्षा के लिए शहर जरूर जाना होता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने मॉडल स्कूलों की योजना बनाई है जिसके तहत प्रत्येक अध्यापक पर 25 छात्रों का अनुपात रखा गया, जिस प्रदेश में तीन दर्जन विश्वविद्यालय हैं और 700 से अधिक कालेज हैं, उस प्रदेश को अकादमी प्रशस्ति के पथ पर होना चाहिए था। लेकिन प्राइमरी शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ने वालों में सर्वाधिक मुस्लिम, महिलाएं और दलित रहते हैं। आमतौर से शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है।
शिक्षा में गुणवत्ता
इस अभियान के अतर्गत सभी बच्चों को दोपहर का ताजा भोजन, किताबें और वजीफा मिलता है। स्कूलों के पक्के भवन हैं, शिक्षित और प्रशिक्षित अध्यापक हैं जिन्हें 25 से 50 हज़ार तक का वेतन मिलता है। फिर भी मजदूर और किसान अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल भेजना चाहते हैं जहां सैकड़ों रुपए फीस देनी पड़ती है। सच्चाई यह है कि सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत नि:शुल्क परन्तु निम्न स्तर की शिक्षा दी जाती है उससे कहीं बेहतर है फीस लेकर अच्छी शिक्षा दी जाए।
अध्यापकों की कमी
छात्र संख्या के हिसाब से अध्यापकों की गिनती तो बाद की बात है कक्षाओं के हिसाब से भी अध्यापक नहीं हैं। गाँवों के सरकारी और अनुदानित स्कूल कालेजों में अध्यापकों की अक्सर कमी रहती है। कितने अध्यापक रिटायर होंगे और कितने नए स्कूल/कालेज खुलेंगे और भविष्य में किस विषय के कितने शिक्षक चाहिए होंगे इस पर चिन्तन होता ही नहीं। विज्ञान, गणित, कम्प्यूटर साइंस पढ़ाने के लिए तो बढ़े वेतन पर भी अध्यापक नहीं मिलते हैं। आवश्यकता है कि प्राइमरी कक्षाओं के लिए प्रत्येक पंचायत में एक ऐसा स्कूल जरूर हो जिसमें आठ कक्षाओं के लिए आठ अध्यापक हों। इसके लिए भले ही एकल विद्यालयों को समाप्त करना पड़े। समाज को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और देश के शिक्षित बेरोजगार नौजवानों पर भरोसा करना चाहिए, उन्हें मौका देना चाहिए ।
अध्यापक पढ़ाते नहीं
सरकारी प्रयासों के बाद सभी को सन्तुष्ट होना चाहिए था। अध्यापक को अच्छा वेतन पाकर, अभिभावकों को फीस न देकर और छात्र-छात्राओं को दोपहर का गरम भोजन खाकर। लेकिन अध्यापक आते नहीं और आते हैं तो पढ़ाते नहीं। बच्चों की भूख मिटा दी लेकिन अध्यापकों की वेतन भूख मिटाने में सरकार असमर्थ है। इसलिए उपाय ऐसा सोचना होगा कि अध्यापक रोज स्कूल आएं और पढ़ाएं, पैसे की भूख मिटे या न मिटें, उनमें प्रतिबद्धता जगानी होगी, प्रतिस्पर्धा के माध्यम से उनसे केवल शिक्षण कार्य ही कराया जाए। उनसे शिक्षणेतर काम न कराए जाए। आज गाँवों में बीए और एमए पास शिक्षित बेरोजगारों की कमी नहीं है, उन्हें शिक्षणेतर काम दिया जा सकता है।
राजनीति से दूरी
अध्यापक राजनीति करने और चुनाव लड़ने के लिए आज़ाद हैं। प्रधानी के चुनाव से लेकर सांसद तक चुनाव लड़ते हैं, शिक्षकों का प्रतिनिधि बनना हो या स्नातकों का, सब जगह अध्यापक दिखाई देंगे। विडम्बना यह है कि जिस सरकारी खजाने से अध्यापक वेतन पाता है उसी खजाने से बाबू और अधिकारी जिनको सेवा शर्तों के अनुसार चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं हैं। अध्यापकों की सेवा शर्तें बदली जानी चाहिए और उनका राजनीति में भाग लेना प्रतिबन्धित होना चाहिए। अध्यापकों की अपनी यूनियनें हैं जिनके माध्यम से वे सरकारों के साथ सौदेबाजी करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि उनका वेतन तो बढ़ता गया परन्तु जिम्मेदारी, प्रतिबद्धता और सम्मान घटता गया। शिक्षक संघ और मजदूर संघ में कोई अन्तर नहीं रह गया है। उनकी भी राजनैतिक दलों से साठ-गांठ रहती है। अध्यापकों की भूमिका राष्ट्रनिर्माण की है अत: उनकी सेवाएं अनिवार्य घोषित हों और उनकी यूनियनबाजी समाप्त होनी चाहिए। स्कूल या कालेज में अध्यापक केवल छह घन्टे रहता है जिसमें से कुछ घन्टे काम करता है। अध्यापकों के काम के आठ घन्टे होने चाहिए जो सरकारी कर्मचारियों के हैं। अध्यापक को मजदूरों की तरह हड़ताल करने में कोई परहेज नहीं तो उनके साथ नियम कानून भी वैसे ही होने चाहिए। स्कूल जाने के लिए बाध्य हो जाएंगे यदि परफारमेंस को आधार माना जाए, बायोमीट्रिक हाजिरी की व्यवस्था लागू कर दी जाए।
सर्व शिक्षा अभियान
सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत 6 से 14 साल की उम्र के सभी बच्चों को स्कूल जाना अनिवार्य है। इसके साथ ही सफाई के संस्कार डालना भी जरूरी है। गाँव के अभिभावक आदर्श नहीं बन पाते परन्तु अध्यापकों को छात्र-छात्राओं का आदर्श बनना होगा। शौच के बाद और भोजन के पहले साबुन या राख से हाथ धोना बिना पैसे के सिखाया जा सकता है। सभी स्कूलों में शौचालय बने हैं परन्तु उनका उपयोग नहीं के बराबर होता है। एक बार ऐसे आदेश निकाले गए थे कि अध्यापिकाएं छात्राओं को चोटी करना, हाथ-मुंह धोना सिखाएं लेकिन अध्यापिकाओं से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे बच्चों को नहलाएं, धुलाएं और कंघी करें परन्तु अभिभावकों को बुलाकर समझाया जा सकता है कि वे बच्चों को साफ-सुथरी हालत में स्कूल भेजें यह सब कक्षा एक और दो में यदि ठीक से बता दिया जाए तो आगे आदत पड़ जाएगी।
पढ़ाई के दिन बढ़ें
साल में पढ़ाई के दिन बहुत कम हैं, करीब 180 दिन हैं और 185 ऐसे दिन हैं जब पढ़ाई नहीं होती। बिना पढ़ाई वाले दिनों की गिनती करें तो इतवार 48 दिन, ग्रीष्मावकाश 40 दिन, गजटेड अवकाश 51 दिन, परीक्षाएं 30 दिन, प्रवेश 30 दिन, अतिशीत, अतिग्रीष्म, विविध हड़तालें और वार्षिकोत्सव आदि अलग। महापुरुषों के जन्म और मरण के दिनों पर अवकाश न हो जैसा पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्दुल कलाम ने कहा था। आवश्यकता है 30 दिन के बजाय 10 दिन में प्रवेश प्रक्रिया समाप्त हो और इतने ही समय में परीक्षाएं हो, जिससे शिक्षा सत्र के दिन बढ़ सकते हैं। महापुरुषों के नाम से अवकाश के बजाए उस दिन उस महापुरुष के नाम पर सभा की जाए और अध्यापक बच्चों को बताएं उस महापुरुष के विषय में।
शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने और पढ़ाई के दिन बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि राजनीति से प्रेरित अवकाश समाप्त हों। पुराने समय में साल में करीब 24 सार्वजनिक अवकाश होते थे, राजनैतिक कारणों से अब 51 अवकाश होते हैं। पढ़ाई के लिए 220 दिन का प्रावधान करना है तो निष्पक्ष भाव से तर्कसंगत अवकाश घोषित करने होंगे। परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन विधा में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। आज के डिजिटल युग में थोकभाव मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए जिसमें परीक्षक अधिक से अधिक कापियां जांचने का प्रयास करते हैं।
शिक्षित बेरोज़गारों की भागीदारी
सरकार यदि चाहे भी तो सर्वशिक्षा और शिक्षा में गुणवत्ता की पूर्ति नहीं कर सकती। वांछनीय है यदि कोई व्यक्ति अथवा संस्था गाँव में स्कूल खोलकर पढ़ाना चाहे तो उसे कक्षा 1-8 तक एकीकृत विद्यालय चलाने की अनुमति और मान्यता लेने में बाधाए न आएं। सर्वसमाज की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मान्यता की शर्तों को शिथिल किया जाएं। प्रत्येक पंचायत में कम से कम एक ऐसे प्राइवेट स्कूल को मान्यता दी जाए जिसमें आठ अध्यापक रहें।
यदि ऐसा होगा तो 58,000 पंचायतों में करीब चार लाख शिक्षित बेरोजगारों को काम मिल जाएगा, सरकार का कुछ खर्चा नहीं होगा। इसी प्रकार ग्राम पंचायत के सभी सरकारी स्कूलों को मिलाकर एक इन्टीग्रेटेड स्कूल कक्षा 1 से कक्षा 8 तक का बनाया जाए, जिसमें भी कम से कम 8 सरकारी अध्यापक हों। इस प्रकार प्रत्येक पंचायत में दो ऐसे स्कूल होंगे जिन्हें ज्ञान बांटने की संस्थाएं कहा जाएगा, भोजन बांटने की नहीं। कक्षा 5 की ब्लॉक स्तर पर बोर्ड परीक्षा हो जो सरकारी और प्राइवेट दोनों प्रकार के स्कूलों के लिए अनिवार्य हो।
कक्षा-8 की भी परीक्षा तहसील स्तर पर हों जिसमें दोनों प्रकार के स्कूलों को सम्मिलित रूप से कराई जाए। कक्षा-5 तथा कक्षा-8 की परीक्षाओं का परीक्षाफल सार्वजनिक किया जाए। इस प्रकार सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों की स्वत: तुलना हो जाएगी और अभिभावक जिस स्कूल को चाहेंगे बच्चे भेजेंगे। अपना सम्मान और नौकरी बचाने के लिए सरकारी अध्यापक भी मेहनत करेंगे। इस प्रकार सर्वशिक्षा के साथं गुणवत्ता आएगी।
परीक्षा
शिक्षा, परीक्षा और परीक्षा केन्द्रों के निरीक्षण की व्यवस्था उन अध्यापकों के हाथ में होनी चाहिए जो कम से कम 10 साल का पढ़ाने का अनुभव रखते हों। परीक्षाएं स्वकेन्द्र पर हों, निरीक्षण दूसरे कालेजों के अध्यापक करें। आवश्यकता पड़ऩे से पुलिस की मदद ली जा सकती है। परीक्षा केन्द्र बनाने का व्यापार समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार कक्षा 5 और कक्षा 8 की व्यवस्था की जाए स्वकेन्द्रों पर दूसरे स्कूलों के अध्यापकों द्वारा।
संविदा पर नियुक्ति
सरकारी अध्यापकों की नियुक्ति पांच साल के लिए की जाए और सन्तोषजनक सेवा रहें तो अगले पांच साल के लिए बढ़ाया जाए। शिक्षामित्रों की पिछले दरवाजे से नियुक्ति की गई थी, बाद में उन्हें ही नियमित करना पड़ा। यदि उस योजना को योजनाबद्ध तरीके से वोट राजनीति से ऊपर उठकर चलाया गया होता तो बहुत भला हो सकता था, परन्तु जॉब सिक्योरिटी की अपनी एक अलग सोच है।
मूल्यांकन
उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के लिए परीक्षक लोग एक हाल में एकत्रित होते हैं और प्रति कापी मानदेय कमाते हैं। उनका प्रयास रहता है दिनभर में अधिक से अधिक कापियां जांची जाए। इस प्रकार के थोक मूल्यांकन में नुकसान छात्रों का ही होता है। नौकरी देने वाली संस्थाएं इस मूल्यांकन पर भरोसा नहीं करती अलग से अपनी परीक्षा कराती हैं। तब किस काम का नम्बरों का तराजू जिसे नौकरी देते समय न तो सरकार प्रयोग में लाती है और न ही प्राइवेट कम्पनियां।
पश्चिमी देशों की संस्थाएं भी जीआरए और टोएफेल जैसी परीक्षाएं स्वयं कराती हैं और उन्हीं के आधार पर छात्र छात्राओं की प्रतिभा का आंकलन करती हैं। देश में उच्च शिक्षा तक अनुमानत: 10 प्रतिशत लोगों की पहुंच है, जिसमें ग्रामीण आबादी का अंश तो 4 प्रतिशत से भी कम है। इस विसंगति को दूर करने का तरीका है कि सुदूर गाँवों में महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खोले जाए, कम से कम कृषि विश्वविद्यालय तो गाँवों में जरूर ही खुलें। गाँव के उन लोगों को जो माध्यमिक शिक्षा के बाद आगे नहीं पढ़ते उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण देकर जीविका चलाने के लिए तैयार किया जा सकता है।
लेकिन उनके लिए बढ़ईगीरी, लोहारगीरी, चर्मकारी, थवईगीरी के अलावा कुछ नहीं सोचा जाता। पंचायत में लघु उद्योग, सिलाई कढ़ाई, इंजन रिपेयरिंग, मोबाइल और कम्प्यूटर रिपेयरिंग आदि का प्रशिक्षण भी देना चाहिए, इससे उच्च शिक्षा पर से दबाव घटेगा।
कमिश्नरी कैडर बने
अभी प्राइमरी अध्यापकों का जिला कैडर होता है इसके स्थान पर मंडलीय कैडर बनाया जाए और तैनाती के गाँव में रहना अनिवार्य हो। अभी जिला कैडर में रोज़ का आना-जाना रहता है, देर से पहुंचना और जल्दी चल देना सामान्य बात है। गाँव में रहते नहीं हैं फिर भी मकान भत्ता लेते हैं। मंडलीय कैडर लागू होने से कुछ अंकुश लगेगा, रोज का आना-जाना घटेगा। शिक्षा विभाग में ट्रांसफर-पोस्टिंग बड़ा उद्योग है ठीक उसी प्रकार जैसे मान्यता और परीक्षा सेन्टर। इन पर गम्भीरता से चिन्तन करके भ्रष्टाचार घटाने की जरूरत है।
विद्यालय मान्यतापाठ्यक्रम पूर्वनिर्धारित हो
पाठ्यपुस्तकें नि:शुल्क बांटी जाती हैं लेकिन सालभर में उनमें से कितना पढ़ाया गया कुछ नियंत्रण नहीं रहता। पुस्तकों में प्रत्येक तिमाही के हिसाब से पाठ्यक्रम विभाजन रहे और प्रत्येक तीन महीने पर निरीक्षकों से कोर्स समाप्ति का सत्यापन हो तथा उन्हीं अध्यापक निरीक्षकों से प्रत्येक तिमाही पर परीक्षा हो। इसी के आधार पर अध्यापकों का मूल्यांकन और प्रमोशन हो।
हमारे देश में विद्यादान को महादान माना जाता था लेकिन सरकारों ने कुछ ऐसा कर दिया है कि यह दान देने के लिए उन्हीं को अनुमति और मान्यता मिलेगी जो धनाढ्य हैं। स्कूल चलाने के लिए भवन की शर्त समाप्त होनी चाहिए और योग्य शिक्षित अध्यापकों की चाहे प्रशिक्षित न भी हों, शर्त रहनी चाहिए। मान्यता जो मांगे उसे मिलनी चाहिए परन्तु इसे ग्रान्ट से नहीं जोड़ना चाहिए, समाज अपने संसाधनों से संस्थाएं चलाए। कन्ट्रोल मान्यता पर नहीं शिक्षा की गुणवत्ता पर होना चाहिए। भ्रष्टाचार का बाजार समाप्त हो जाएगा।
माध्यमिक शिक्षा
शिक्षा व्यवस्था देखने वालों को पता है कि छात्र जो प्रमाणपत्र हासिल करते हैं उसके आधार पर मनपसन्द जीवनयापन का साधन नहीं बन सकता। शिक्षा की दयनीय दशा को समझते हुए वर्ष 2009 में माध्यमिक शिक्षा अभियान के अन्तर्गत शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए कुछ चिन्तन हुआ था। प्रत्येक अध्यापक पर छात्रों की संख्या 31 रहे जिसके लिए अतिरिक्त भवन, अध्यापक, पुस्तकालय और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जानी थी। किसी भी विकसित देश में शिक्षा को पूरी तरह सरकार नहीं चला सकती। इसके लिए प्राइवेटजनों को आगे आना होता है।
उच्च शिक्षा जन्म सिद्ध अधिकार
यह धारणा ठीक नहीं है कि उच्च शिक्षा जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसा किसी देश में नहीं होता। कुछ छात्र तो उच्च शिक्षा में इसलिए जाते हैं कि उनके पास कुछ बेहतर करने को नहीं होता। उच्च शिक्षा पर से दबाव घट सकता है यदि इन्टरमीडिएट के बाद छात्र-छात्राओं को स्किल विकास का अवसर मिले और नौकरियों के लिए डिग्री की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए। यदि बौद्धिक क्षमता को नम्बरों के तराजू पर न तौलकर उनके बौद्धिक रुझान को आंका जाए तो शायद गाँव के नौजवानों को भी उनका हक मिल सकेगा।
सिविल सेवाओं में मुट्ठीभर सम्भ्रान्त लोगों का कब्जा है क्योंकि अंग्रेजी पर उनका एकाधिकार है। देश की 70 प्रतिशत आबादी वाले गाँव देहात के पढ़े लिखे लोग अंग्रेजी में कमजोर हैं। प्रशासनिक सेवाओं और तकनीकी विषयों की परीक्षाएं अंग्रेजी में होने के कारण गाँव देहात और कस्बों के छात्र अपने हक के लिए नज़र गड़ाकर देखते रहते हैं। गाँवों में उच्च शिक्षा के लिए डिग्री कालेज अथवा विश्वविद्यालय खोलने की आवश्यकता समझी ही नहीं जाती।
अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वालों को ही मौका मिलता है। इसलिए गाँव के छात्र छात्राओं को शायद ही कभी अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिल सकें। उत्तर प्रदेश और बिहार शिक्षा बोर्डों की 2014 की परीक्षा में क्रमश: 98 और 85 प्रतिशत अंक पाकर प्रथम स्थान पाने वालों को दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाया। गाँवों से पढ़कर आने वाले छात्रों के अंक तो और भी कम होते हैं।
कड़वी सच्चाई यह है कि आजाद भारत में शिक्षा पाया हुआ कोई व्यक्ति नोबल पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सका। रवीन्द्र नाथ टैगोर और सीवी रमन की शिक्षा आजादी के पहले हुई थी और खुर्राना, चन्द्रशेखर तथा अमर्त्यसेन विदेशों में की गई रिसर्च पर पुरस्कृत हुए। इसके विपरीत इस अवधि में अमेरिका से 309, इंग्लैंड से 114, जर्मनी से 101, फ्रांस से 57, हंगरी से 10 और आस्िट्रया जैसे छोटे देश से 19 नोबल पुरस्कार विजेता निकले हैं।
देश के नेताओं ने अपने बच्चों को विदेशों में अंग्रेजी पढ़ाकर देश में अंग्रेजी का दबदबा जारी रखा। निहित स्वार्थ के कारण हमारे नेताओं और नौकरशाहों ने क्षेत्रीय भाषाओं को पास नहीं फटकने दिया वरना देश के दलित, फटीचर, किसान सब प्रशासनिक कुर्सी के दावेदार बन जाते।
उच्च शिक्षा में सुधार के लिए लिंगदोह कमीशन ने कुछ सुझाव दिए थे जिन्हें माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी ठीक माना था। बड़ी संख्या में ऐसे छात्रों का प्रवेश होता है जो पढ़ाई के प्रति गम्भीर नहीं होते और जिनका प्रवेश किसी न किसी दबाव में करना पड़ता है। इनमें से बहुत से छात्र राजनैतिक दलों से सम्बन्धित होते हैं और उनका लक्ष्य दलगत राजनीति होता है। इसलिए शिक्षा संस्थानों में छात्रसंघों और छात्रनेताओं का अपना ही एजेंडा रहता है।
छात्रसंघों में रुचि न रखने वाले छात्रों के लिए भी सदस्यता अनिवार्य है जिसके कारण उनका बजट भी काफी रहता है। छात्रनेताओं के लिए विश्वविद्यालय अथवा कालेज परिसर राजनीतिक प्रशिक्षण का अच्छा केन्द्र बन गए है और उनमें से बहुत से छात्रनेता बाद में एमपी, एमएलए और मंत्री बनते हैं। उपकुलपति के नाम से चलते थे विश्वविद्यालय जैसे डा. राधाकृष्णन, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आचार्य नरेन्द्र देव और डा. जाकिर हुसैन लेकिन उनके चित्र ही सजा सकते हैं, उस स्तर के कुलपति नहीं ढूंढ सकते।
उच्च शिक्षा में सुधार के लिए छात्रों की आयु सीमा निर्धारित करना आसान नहीं और यूनियनों की सदस्यता स्वैच्छिक करना भी कठिन है। छात्रावासों के कमरे राजनैतिक दलों के कार्यालय जैसे बन जाते हैं और कभी कभी तो अराजक तत्वों के अड्डे भी। ऐसी परिस्थिति में बिना पुलिस के उन्हें खाली भी नहीं कराया जा सकता। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता लाना शायद सबसे बड़ी चुनौती है।