जलंधर गाँव (ललितपुर)। बुंदेलखंड के एक पिछड़े इलाक़े में, सामाजिक लक्ष्मण रेखाओं को तोड़ कर, चार साल तक आदिवासी समुदाय के कमल कुमार सहरिया (48 वर्ष) अपनी बेटी रूपा को साइकिल पर स्कूल ले जाते रहे, जब तक वो ग्रेजुएट नहीं हो गयी। रूपा देवी सहरिया अब 24 साल की हैं और आदिवासी समाज में अपने क्षेत्र की एकमात्र स्नातक हैं। जंगल से लकड़ी बीन कर लाने वाली रूपा अब तक एक कंप्यूटर सेंटर में 300 आदिवासी बच्चों को कंप्यूटर शिक्षा दे चुकी है।
“मैंने कभी मोबाइल तक नहीं चलाया था, कम्प्यूटर सीखने के लिए जब कहा गया तो मुझे बहुत डर लग रहा था। मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैं कम्प्यूटर चलाना सीख गयी। मैं चाहती हूं मेरे समुदाय का हर बच्चा पढ़े, जिससे वह समाज की मुख्यधारा में आ सके और लोगों को ये पता चले कि अगर इस तबके को थोड़ी सी भी सहूलियत दी जाएं तो ये लोग भी आगे बढ़ सकते हैं।” ललितपुर से 70 किलोमीटर दक्षिण दिशा में मडावरा ब्लॉक के जलंधर गाँव में रहने वाली रूपा ने गाँव कनेक्शन को बताया।
पिछले कुछ वर्षों में बुंदेलखंड के आदिवासी समाज की सोच में अभूतपूर्व बदलाव आ रहे हैं, जो इस इलाक़े की अन्य मुश्किलों और चुनौतियों के बीच में सुर्खियाँ नहीं बन पाते। रूपा के पिता कमल कुमार कहते हैं, “जब भी मैं किसी पढ़े लिखे बच्चे को देखता तो सोचता था कि मैं भी अपने बच्चों को खूब पढ़ाऊंगा। मुझे ख़ुशी है कि आज मेरी बेटी ग्रेजुएशन कर चुकी है, जब भी हमारे गाँव में किसी की चिट्ठी आती है, या फिर किसी संस्था के साथी विजिट करने आते हैं तो सबसे पहले रूपा को ही पूछा जाता है।”
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक बुदेलखंड के ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर करीब 65 फीसदी है। लेकिन इनमें महिलाओं का औसत 50 फीसदी है। ऐसे में रुपा की सफलता गौर करने वाली है। ललितपुर जिले के इन इलाकों में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था साईं ज्योति संस्थान के मुताबिक जिले के 71610 सहरिया आदिवासियों में सिर्फ 150 लोग हाईस्कूल तक पहुंचे हैं। जबकि इनके बीच के 60 बच्चे स्नातक तक पहुंचे हैं, जिसमें 40 लड़के और 20 लड़कियां हैं।
करीब सवा 12 लाख आबादी वाले ललितपुर जिले के जलधंर गाँव में 800 लोग रहते हैं। सभी आदिवासी मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, शिक्षा इस समुदाय से कोसों दूर रही है। लड़की की शादी 12 साल से 15 साल की उम्र में ही कर दी जाती है।
बदलते वक़्त के साथ शहरी आदिवासी समुदाय की तस्वीर पहले से अब बेहतर हो रही है,इसका उदाहरण हैं मडावरा ब्लाक के 900 बच्चे,जो अब कंप्यूटर सीख चुके हैं। डिजिटल इम्पावरमेंट फाउंडेशन के संस्थापक ओसामा मंजर के सहयोग से चल रहे बुंदेलखंड सेवा संस्थान के प्रमुख वासुदेव जी कहते हैं, “सूखे की मार झेल रहे यहाँ के किसान स्कूल की फीस के साथ-साथ ज्यादा फीस देने में सक्षम नहीं हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए यहाँ के कम्प्यूटर सेंटर की फीस सिर्फ प्रति माह 50 रुपये है, जो बच्चे फीस देने में असमर्थ हैं उनको यहाँ नि:शुल्क सिखाया जाता है।”
कम्प्यूटर सीख रहे कक्षा 6 में पढ़ने वाले सोनू (12 वर्ष) की कहानी बेहद तकलीफ भरी रही है। एक साल पहले बिजली गिरने से उसके पिता का देहांत हो गया था। उसकी बड़ी बहन लम्बी बीमारी से जूझ रही थी। पैसे के अभाव में और बेहतर इलाज न मिल पाने की वजह से 6 महीने पहले 18 साल की उम्र में वो गुज़र गयी। उसके परिवार में अब दो बहनें और दो भाई हैं। माँ पूरे परिवार के खर्चे के लिए सरकारी स्कूल में मिड-डे मील का खाना बनाने जाती है। माँ की आमदनी से ही पूरे परिवार का खर्चा चलता है।
लेकिन सोनू ने हार नहीं मानी है। वो पिछले एक महीने से कम्प्यूटर सीखने आ रहा है। “चित्रकारी कर लेता हूँ, टाइपिंग भी करना सीख रहा हूँ, गेम खेलने में भी बहुत मजा आता है,” सोनू ने बताया। “माँ ने बोला है कि 10 जुलाई को मेरे जन्मदिन पर वो मुझे लैपटॉप देंगी। इस कम्प्यूटर सेंटर में मेरी फीस माफ़ है इसलिए मैं कम्प्यूटर सीखने आ पा रहा हूँ, अगर मेरी फीस माफ़ न होती तो मैं कभी कम्प्यूटर न सीख पाता।”
बच्चे ही नहीं, माता पिता भी कंप्यूटर शिक्षा में बेहद रूचि दिखा रहे हैं
हरदेव (40 वर्ष) अपनी बेटियों के साथ कम्प्यूटर सीखने आते हैं। उनकी तीन लड़कियां बैजंती (19), सुमित्रा (17) व प्रसन्न कुमारी (15) पिछले तीन महीने से लगातार कम्प्यूटर सीखने आ रही हैं। हरदेव का कहना है, “आने वाले समय में हम सब डिजिटल इंडिया से जुड़ने वाले हैं, हमें हर सरकारी योजना की जानकारी इंटरनेट पर मिल रही है,बहुत जल्द कॉपी पेन का काम खत्म होने जा रहा है, ऐसे में कम्प्यूटर सीखना हम ग्रामीणों के लिए बेहद जरूरी है, इसलिए मैं भी अपनी उम्र को लेकर शर्म न करते हुये कम्प्यूटर सीखने आने लगा।”
बुजुर्ग कंप्यूटर सीख रहे हैं लेकिन देश के युवाओँ का हुनर बढ़ाकर उन्हें रोजगार दिलाने की सबसे बड़ी योजना कौशल विकास मिशन यहां कागजों से परे नहीं निकल पा रही है। दो वर्ष पहले चेन्नई की कंपनी ऐवरॉन ने कंपनी सामाजिक दायित्व के तहत सेंटर खोला था। चार बैच में कुछ युवाओं को प्रशिक्षित भी किया गया लेकिन अब सब बंद है। कंपनी के सहयोगी रहे सेंटर संचालक डॉ. सुनील खजुरिया बताते हैं, केंद्र और प्रदेश सरकार के पास इस योजना के तहत न कोई लक्ष्य और न योजना और न ही बजट है। सिर्फ कागजों में प्रचार है। जमीनी लेवल पर कोई काम नही हो रहा है।”
कुछ गुस्से में वो आगे बताते हैं, “सेंटर बनाने में मैंने 2 लाख रुपये खर्च कर दिए। शुरुआत के चार बैच का अब तक पैसा नहीं मिला और नए बैच आवंटित किए गए। जिले में 6 सेंटर थे सब बंद हैं। पुराना भुगतान किया जाये और नये बैच दिए जाएं, जिससे ये प्रशिक्षण पुनः शुरू हो पाये।”डॉ. खजुरिया के मुताबिक हुनर मिले, रोजगार मिले तो तस्वीर अपने आप बदल जाएगी। वो उनका दावा सही भी है, जिस जिले में बाल विवाह सुर्खियां बनते हों वहां जलंधर गाँव में रूपा के पिता कमल कुमार कहते हैं, “गाँव के तमाम लोग पूंछते हैं अपनी बेटी की शादी कब करोगे तो मैं कहता हूँ कि जब वो अपने पैरों पर खड़ी हो जायेगी।” रूपा अब नौकरी करके बुंदेलखंड की आदिवासी लड़कियों के लिए मिसाल बनना चाहती हैं। वो दुखी मन से कहती हैं, “अगर मेरी नौकरी नहीं लगी तो हमारे सुमदाय की कोई भी लड़की या लड़का को पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा।”