कृषि-ऋषि सुभाष पालेकर को पद्मश्री सम्मान

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पालेकर जी को पद्मश्री पुरुष्कार मिलने की घोषणा होते ही समस्त किसान समुदाय अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा है पहली बार किसी किसान को उसकी खुद की उपलब्धियों के कारण कोई सम्मान मिल रहा है तो सबका आनंदित होना स्वाभाविक भी है सही अर्थों में तो पालेकर जी को यह सम्मान मिलना महज औपचारिकता ही है देश-दुनिया का कृषक समाज तो उन्हें यह सम्मान वर्षों से ही देता चला आ रहा है और सही अर्थों में इस सम्मान के वो हक़दार भी हैं 

पालेकर जी के शिष्य और जानकार उनको कृषि-ऋषि के नाम से संबोधित करते हैं। बहुत ही सामान्य सी कदकाठी और उस पर भी अत्यंत साधारण सा खादी का कुरता-पजामा ही उनकी पहचान नहीं है। साधारण सा दिखने वाला यह शक्स बहुत ही असाधारण व्यक्तित्व का धनी है और अपने अन्दर ज्ञान की अनंत गहराइयों को समेटे हुए है। खेती के प्राकृतिक तरीकों को सिखाते हुए उनकी इस विषय पर मजबूत पकड़ को आप सहज ही महसूस कर सकते हैं। अपनी बात को किसानों के बीच कहने का उनका तरीका भी बहुत ही सरल और रोचक है।  

पालेकर जी का एक सामान्य किसान से कृषि-ऋषि बनने तक का सफ़र बहुत ही चुनौती भरा रहा है। पालेकर जी का जन्म वर्ष 1949 में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में स्थित एक छोटे से गाँव बेलोरा में हुआ। अपनी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा आपने सामान्य बच्चों की तरह ही भारतीय परम्पराओं के अनुसार प्राप्त की। इसके बाद नागपुर कृषि विश्वविद्यालय से इन्होने कृषि स्नातक की शिक्षा पूरी की। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद आपने अपने पिताजी के साथ ही खेती करना प्रारंभ किया. आपके पिताजी तो प्राकृतिक खेती के ही पक्षधर थे परन्तु कृषि स्नातक पालेकर जी रासायनिक खेती के सम्मोहन से बच नहीं पाए. अपनी शिक्षा के दौरान आपने पढ़ा भी तो इन्ही सब तरीकों के बारे में ही था तो आकर्षण होना स्वाभाविक भी था। अपने खेतों में रासायनिक खेती शुरू करने के कुछ समय बाद ही इनको वास्तविकता का एहसास हो गया। रासायनिक खेती से खेतों का उपजाऊपन तो कम हुआ ही उत्पादन भी कम होने लगा। इसके साथ ही साथ कई अन्य समस्याएं भी आने लग गई। यहीं से चिंतन शुरू हुआ की बिना प्रकृति को नुकसान पहुँचाये कैसे उत्पादन लिया जाये। 

पालेकर जी को अपने अभियान की शुरुआत से ही किसी का भी कोई सहयोग नहीं मिला। सहयोग तो दूर की बात है उलटे लोग इनको पागल समझ कर विरोध और बहिष्कार तक करने लग गए। सारे सगे-सम्बन्धी इनको सिरफिरा समझ कर इनसे दूरी बना रहे थे। किसी भी तरह से कोई भी मदद करने को आगे नहीं आ रहा था। अपने प्रयोगों को करने के लिए पूँजी की आवश्यकता थी। परन्तु एक सामान्य कृषक के पास पूँजी होगी कहाँ से। उन कठिन क्षणों में भी अपने लक्ष्य की तरफ से ध्यान न भटकना इनकी मानसिक सुद्रढ़ता का परिचायक है।  

यह तो सच है की अगर मन में कुछ करने की दृढ इच्छा हो तो फिर भौतिक संसाधनों की कमी किसी भी तरह की कोई रूकावट पैदा नहीं कर सकती है। यहाँ पर पालेकर जी का संबल बढ़ाने के लिए उनकी अर्धांगिनी श्रीमती चंदा देवी और इनके दोनों पुत्र अमोल और अमित बड़ी दृढ़ता और समर्पण के साथ आगे आये और इनके पूरे सफ़र में ही साथ रहे। पालेकर जी भी अपनी सारी सफलता का श्रेय अपने बेटों और अपनी स्वर्गवासी पत्नी को देने में ख़ुशी महसूस करते हैं। पत्नी और बेटों के सहयोग से अपनी कृषि साधना को आगे बढ़ाने के लिए इनको अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े। जेवर और गहने बेचकर जो धन प्राप्त हुआ वो सब नए-नए प्रयोग करने में लगा दिया। 

यह 1989 से 1995 के मध्य का समय था जब उन्होंने अपने प्रयोग करने शुरू किये। गाय के गोबर और गौमूत्र का अलग-अलग अनुपात में, कई अन्य वस्तुओं के साथ मिश्रित करके, अलग अलग समयावधि और समयांतराल में, विभिन्न मात्राओं में आदि प्रकार से इन्होने कई प्रयोग किये। उन दिनों में लगातार पांच-पांच दिनों तक और लगातार 12-12 घंटो से ज्यादा खड़े रहकर काम करना इनके लिए सामान्य दिनचर्या का हिस्सा था। इन छह वर्षों में अलग-अलग 154 प्रयोगों व श्रमसाध्य प्रयत्नों का परिणाम बहुत ही सुखद सफलता लेकर आया। पालेकर जी ने एक ऐसा फार्मूला तैयार कर लिया जिसमे मृत मिट्टी को भी जीवन प्रदान करने की क्षमता थी। पालेकर जी ने अपने इस फार्मूले को जीवामृत नाम दिया। पालेकर जी के अनुसार जीवामृत में अद्भुद शक्ति है। जीवामृत का प्रयोग खेतों में करने से बाहर से अन्य कोई खाद डालने की जरूरत ही नहीं है। रासायनिक खाद डालने की तो बिलकुल भी नहीं। 

नवीन अन्वेषणों का सिलसिला यहीं नहीं रुका। ये तो मात्र शुरुआत थी। यह ध्यान में रखते हुए कि खेती में लागत कैसे कम की जाये या फिर खेतो में ही उपलब्ध संसाधनों का अधिकाधिक सदुपयोग कैसे किया जाये, इस विषय पर आपने गहन चिंतन करना शुरू कर दिया। इन सब की खोज में आने वाले समय के साथ पालेकर जी ने अपने प्रयोगों का दायरा बढाया। आपने अपने प्रयोगों के आधार पर बीज संस्कार और फसल सुरक्षा के भी बहुत ही असरकारक परन्तु आसानी से घर में तैयार हो सकने वाले फार्मूले विकसित किये। 

जहाँ एक ओर सरकार कृषि विश्वविद्यालयों और शोध केन्द्रों पर करोड़ों रुपए बहा रही है परन्तु किसी भी तरह के कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहे हैं। कहीं भी मौलिक शोध और प्रयोग नहीं किये जा रहे हैं। यदि कही यदा कदा कुछ प्रयोग किये भी जा रहे हैं तो वो भी विदेशी ज्ञान या तकनीकि पर ही आधारित हैं और अत्यंत खर्चीले भी हैं। वहीं दूसरी ओर पालेकर जी ने बिना किसी सरकारी मदद के सिर्फ अपने ही प्रयासों और सीमित संसाधनों के बल पर एक नई खेती पद्धति को ही विकसित और स्थापित कर दिया। आज लगभग पूरे दक्षिण भारत के सभी राज्यों सहित उत्तर भारत के गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा राजस्थान आदि के लगभग 50 लाख से ज्यादा किसान शून्य लागत प्राकृतिक खेती को अपनाकर जहरमुक्त भोजन का उत्पादन कर रहे है। ये सभी किसान अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि शून्य लागत प्राकृतिक खेती को अपनाकर ही किसान को उसकी समस्याओं से निजात मिल सकती है। शून्य लागत प्राकृतिक खेती की विधियों से ही खेती को लाभ का सौदा बनाया जा सकता है और किसानों की आत्महत्या रोकी जा सकती है। 

पालेकर जी सही मायने में कृषि ऋषि हैं। खेती के सभी आयामों में आपको महारत हासिल है। किसानों की हर जिज्ञासा और समस्या का आपके पास समाधान है, वो भी पूरे वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ। खेती का पालेकर मॉडल या शून्य लागत प्राकृतिक खेती मॉडल अपने आप में सम्पूर्ण कृषि पद्धति ही नही अपितु जीवन दर्शन का महाकाव्य भी है। पालेकर जी ने अपने संघर्ष के दिनों में भारतीय दर्शन का भी गहन अध्यन किया तभी तो इनकी खेती की विधियों में सभी प्राणियों के बीच सहजीवन पर बहुत जोर दिया गया है। पालेकर जी अपने मॉडल को शून्य-लागत आध्यात्मिक खेती नाम देते है। पालेकर मॉडल में पर्यावरण के सभी आवश्यक घटक जैसे भूमि, जल, पेड़-पौधे, सूक्ष्मजीव आदि के मध्य संतुलन और समन्वय के साथ कृषि क्रियाएं सम्पादित करने का अनुग्रह किया गया है। इस पद्धति को अपनाकर ही किसानों की जमीनी स्तर की समस्याओं का सफलतापूर्वक समाधान किया जा सकता है। 

बहुत थोड़े से शब्दों में शून्य-लागत खेती की बारीकियों को नहीं समझाया जा सकता है। फिर भी किसी सामान्यजन के समझने के लिए इस पद्धति की मुख्य विशेषताए या सिद्धांत निम्लिखित हैं:  

1. आध्यात्मिक खेती में मृदा को सजीव माना गया गई अतः मृदा के पोषण के लिए उचित रूप से जीवामृत का उपयोग किया जाना चाहिए

2. बीजों का चुनाव किसान को अपनी ही फसल से करना चाहिए। किसानों के खुद से तैयार देशी बीज उस स्थान की जलवायु, मिट्टी और अन्य कारकों के अनुकूल होते हैं। 

3. बीजों को बोने से पहले उनका उचित तरीके से बीजोपचार या बीजसंस्कार करके ही बोना चाहिए। ऐसा करने से बीजों का अंकुरण बढ़ जाता है और फसल में बीजजनित या मृदाजनित रोग नहीं होते हैं।  

4. एकल फसल की बजाय एक दूसरे की पूरक मिश्रित फसलों को बोना चाहिए ताकि सभी फसलें एक दूसरे के साथ सहजीवन रखते हुए आपस में पोषण की पूर्ति कर सकें

5. सूर्य ही उर्जा का मूल स्रोत है अतः सूरज की धूप को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। अधिक से अधिक सूरज की रोशनी को समेटने के लिए अलग-अलग ऊंचाई और सूर्य-उर्जा की जरुरत वाली सही फसलों के मिश्रण का चुनाव करना चाहिए। 

6. कोई भी जीव हमारा दुश्मन नहीं है अतः किसी भी कीट को मारने के लिए जहर का छिड़काव फसल में नहीं किया जाना चाहिए। अगर जरुरत हो तो प्राकृतिक रूप से तैयार दवाओं का ही उपयोग किया जाना चाहिए

7. धरती (एवम् उसमे स्थित सूक्ष्मजीव) को सूर्य की तपन से बचाने के लिए भूमि का आच्छादन किया जाना चाहिए।

8. फसलों को अनावश्यक और अत्यधिक रूप से सिंचाई नहीं करना चाहिए।

पालेकर जी के बारे में कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाने के जैसा ही है। उनका समर्पण खेती के लिए इतना है कि आज भी वो महीने में 5-6 कार्यशालाएं करते हैं। इन सभी कार्यशालाओं को सेवाकार्य और किसान हित के लिए करते हैं तथा इसके लिए वो कुछ भी पारिश्रमिक नहीं लेते हैं। उन्होंने हिंदी, अग्रेजी और मराठी में लगभग 20 से ज्यादा पुस्तकें लिखी है। ये पुस्तकें किसान भाइयों के बीच में खेती की बाईबल की तरह पढ़ी जाती है। उनकी पुस्तकों का देश की अन्य भाषाओँ में भी अनुवाद किया जा रहा है। वे वर्ष 1996-98 के मध्य प्रसिद्द मराठी पत्रिका “बाली राजा” के संपादक मंडल का भी हिस्सा रहे परन्तु शून्य-लागत आध्यात्मिक खेती आन्दोलन के माध्यम से किसानों को जागरूक करने के लिए उन्होंने वर्ष 1998 में इस पत्रिका से त्यागपत्र दे दिया। पालेकर जी को वर्ष 2005 में कर्णाटक के चित्रदुर्गा मठ ने अपने संत बासव के नाम से स्थापित “बासव श्री” उपाधि से सम्मानित किया। वर्ष 2007 में रामचंद्रपुर मठ ने “गोपाल गौरव पुरुस्कार” से सम्मानित किया। पालेकर जी भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया जाना सही अर्थों में पुरुस्कार को सार्थकता देने जैसा है

लेखक – डॉ जितेंद्र सिंह

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