कर्ज़ के चक्रव्यूह में बुंदेलखंड

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झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार,

ललितपुर न छोड़िए, जब तक मिले उधार।

बुंदेलखंड की लोक कहावत बताती है कि कैसे कर्ज़ यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा है। सूखे ने फसलें बर्बाद की, तो बैंकों के बाहर घूम रहे दलालों ने उन्हें कर्ज़ के चंगुल में फंसा दिया। इससे बचने के लिए साहूकारों तक पहुंचे तो जान तक गंवानी पड़ रही है। जिंदगी कर्ज़ में ही डूबी है।

बांदा के जखनी गाँव में रहने वाले अशोक कुमार अवस्थी ने पांच साल पहले किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) से 65 हजार रुपये का कर्ज़ लिया था। जो अब तक सवा लाख हो गया है। बैंक ने दोबारा कर्ज़ देने से मना किया तो पिछले वर्ष गेहूं बोने के लिए 10 हजार रुपये एक साहूकार से तीन रुपये सैकड़ा ब्याज पर लेना पड़ा। अशोक अवस्थी (45 वर्ष) बताते हैं, “केसीसी पिता जी के नाम था, लोन लेने के कुछ दिनों बाद चुनाव हुए तो कई पार्टियों ने कहा कि 50 हजार तक माफ किया जाएगा। इसलिए हम लोगों ने तीन साल तक इस आस में रहे। तब पैसे भी थे, लेकिन इधर दो साल से इतना बड़ा सूखा पड़ा कि पैसा ही नहीं हैं। मजबूरी में एक जानकार (साहूकार) से पैसे लेने पड़े।”

अशोक अवस्थी की तरह बुंदेलखंड तमाम किसान कर्ज़ के मकड़जाल में फंसे हैं। वैसे तो कर्ज़ बुंदेलखंड के लोगों के जीवनयापन का अभिन्न अंग बन चुका है। लेकिन वर्ष 2009 में यूपीए सरकार द्वारा किसानों की सामूहिक कर्ज माफी के बाद समस्या और विकराल हो गई है। यहां बैंकों में डिफाल्टर खाता धारकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। 

डेढ़ लाख से ज्यादा संख्या वाले किसानों के संगठन ‘बुंदेलखंड किसान पंचायत’ के अध्यक्ष गौरी शंकर विधुआ कर्ज़ की समस्या के लिए बैंकों की गुंडागर्दी और धांधली को जिम्मेदार बताते हैं। वो कहते हैं, “पूरे बुंदेलखंड में बैंकिग सिस्टम दलालों के हाथ में है। किसान एक रुपया नहीं पा सकता दलालों के बिना। सूखा तो है ही लेकिन अगर कोई किसान एक लाख का कर्ज़ लेता है तो उसके हाथ में 60-70 हजार रुपये ही आते हैं। ये लोग ऐसे वर्ताव करते हैं जैसे पैसा अपनी जेब से दे रहे हैं।” 

वर्ष 2015 में झांसी में एक बैंक में फर्जीवाड़े का उदाहरण देते हुए विधुआ कहते हैं, “झांसी में मऊ तहसील मारकुआं कस्बे में रानी लक्ष्मी बाई ग्रामीण बैंक किसानों के हित के लिए आए 25 लाख रुपये का घोटाला हुआ। हम लोगों की शिकायत पर जांच हुई लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। जिले के अधिकारी बोलते हैं ये मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं, और केंद्र में बैठे लोग इस पर ध्यान नहीं देते।” बुंदेलखंड के लोग खुलकर कहते हैं। एक बार जिसने कर्ज़ ले लिया वो ऊबर नहीं पाता। पिता लेते हैं तो पोते तक कर्ज़ उतारते हैं। ललितपुर जिले में रजवाड़ा में इमलीपुरा गाँव के करोड़े कुशवाहा की कहानी कर्ज़ के चक्रव्यूह की तस्वीर और साफ करती है। इमलीपुरा के किसान करोड़े ने कुछ साल पहले केसीसी से बेटी की शादी के लिए लोन लिया था, लेकिन फसल पर मौसम की मार पड़ गई। कर्ज़ के बोझ तले दबे करोड़े कुशवाहा ने अपनी जान दे दी। अब उनके दो बेटों न सिर्फ पिता का कर्ज़ चुका रहे हैं बल्कि अपना जीवन चलाने के लिए साहूकारों के चंगुल में फंस गए हैं।

हालांकि बैंक अधिकारी इसके पीछे अलग ही तर्क देते हैं। बुंदेलखंड के पांच जिलों समेत पूरे उत्तर प्रदेश के 9 जिलों में 650 ब्रांच वाले इलाहाबाद ग्रामीण बैंक के महाप्रबंधक आरएस सेंगर बताते हैं, “बुंदेलखंड में किसान बैंक के नहीं, साहूकारों के चक्कर में जान देते हैं। बैंक कभी किसान को कर्ज़ देने से मना नहीं करता। बैंक मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं, करोड़ों रुपये की वापसी नहीं हो रही है। मुश्किल से 10-5 फीसदी लोग पैसा चुकाते हैं। बावजूद इसके हम किसानों से कह रहे हैं कि आप आइए और अपने केसीसी को रिनुअल कराइए, जिस पर हम 10 फीसदी बढ़ाकर आपको पैसे दे देंगे, लेकिन जब किसानों ने पहले का कर्ज़ चुकाया नहीं है तो वो खुद आऩा नहीं चाहते। रही बात दलालों की तो वो बैंक के अंदर आ नहीं सकते हैं।”  सात लाख से ज्यादा किसान खाता धारकों वाले इस बैंक का किसानों पर करोड़ों रुपये का कर्ज़ का बकाया है।

भारतीय किसान यूनियन (भानु) बुंदेलखंड प्रमुख के शिव नारायण सिंह बताते हैं, “समस्या खेत से ही शुरू होती है। 70-80 फीसदी बुंदेलखंड के लोग खेती पर निर्भर है, सूखे ने उन्हें बर्बाद कर दिया है। रही-सही कसर बैंक के बाहर घूम रहे दलालों ने पूरी कर दी। पेट पालने, शादी करने, दवा कराने के लिए किसान इनके चक्कर में फंसते हैं और ये मोटा कमीशन लेकर किसान को कर्ज़ के दलदल में फंसा देते हैं।” वो आगे बताते हैं, “यहां के लोग आज भी ईमानदार गर्व से जीने वाले हैं, मुसीबत में अगर किसी बड़े आदमी से कर्ज़ ले लिया और वो आकर गाली-गलौच करता है तो वो शर्म से मर जाते हैं, कोई रास्ता न बचने पर इन्हीं से बचने के लिए ये जान देने पर मजबूर होते हैं।”

राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर संजय सिंह किसानों की आत्महत्या के पीछे सामाजिक सहारे की कमी बताते हैं। वो कहते हैं, “किसान खेत से तो परेशान तो हैं कि समाज में भी लोगों को सपोर्ट नहीं मिलता क्योंकि सब परेशान हैं। समाज का सहयोग न मिलने से मानसिक तौर पर वो अकेले पड़ गए हैं। सिविल सोसायटी का रोल भी यहां अपेक्षाकृत कम देखने को मिलता है। जब वो कहीं कमजोर पड़ते नजर आते हैं जान देना आखिरी विकल्प मानते हैं, लेकिन मनोदशा बदलनी होगी।”

बैंकों से जुड़े कई अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी और समाजशास्त्री मानते हैं बुंदेलखंड में किसानों पर बढ़ते कर्ज की वजह कर्जमाफी का चलन भी है। जिसने किसानों में कर्ज लौटाने की मानसिक ताकत को कम कर दिया है। इलाहाबाद ग्रामीण बैंक के महाप्रबंधक आरएस सेंगर भी इससे इत्तफाक रखते हैं। वो बताते हैं, “किसान कर्ज के दलदल में इस डूबा है क्योंकि किसान के खेत में जो उगता है उसका रेट बाजार से खरीदी जाने वाली दूसरी जीचों के तुलना में काफी कम बढ़े हैं। सरकारों को पैकेज की जगह किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने की व्यवस्थआ करना चाहिए समस्याए कुछ हद तक कम हो सकती है।” बात जाजय भी लगती है। वर्ष 1953 में गेहूं 25 पैसे प्रति किलो था। जबकि आज 1500 रुपये प्रटि कुंटल यानि 15 रुपये किलो। लेकिन 1953 में 100 रुपये तोला (12 ग्राम) मिलने वाला सोना आज करीब 30,000 का 10 ग्राम बिक रहा है। गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी करीब 80 फीसदी जबकि सोने में 375 गुना बढ़ोतरी हुई।

शिक्षाविद डॉ. एसबी मिश्र कहते हैं, “कर्जमाफी और सब्सिडी ने किसानों ने कर्ज चुकाने के संकल्प को कमजोर किया है। सरकारों को भारी-भरकम पैकेज की जगह उद्योग और खासकर कुटीर उद्योग देने चाहिए। साथ ही ऐसा सिस्टम बने जिससे किसानों की उपज के दाम बाजार की दूसरी चीजों के भावों के अऩुरूप होने चाहिए।

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