किस काम का ये बैलट ?

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लखनऊ। डिजिटल इंडिया के सपने दिखाए जा रहे हैं। इंटरनेट गाँव-गाँव पहुंच रहा है, शहरों से ज्य़ादा मोबाइल गाँवों में हैं। लेकिन पंचायत चुनावों में मतदाता अपना मुखिया दशकों से चले आ रहे उसी बैलट पेपर व्यवस्था से प्रधान चुनेंगे, जिस पर उम्मीदवारों के नाम तक नहीं होते। 

देश के सबसे बड़े चुनावों में आज भी दशकों पुरानी व्यवस्था लागू है। इनमें आज भी बैलट पेपर पर चुनाव चिन्ह छापे जाते हैं, प्रत्याशियों के नाम नहीं। इससे मतदाताओं को असुविधा भी होती है। 

हरदोई जिले के भरावन ब्लॉक के पड़रिया गाँव की मिथिलेश शुक्ला (55 वर्ष) बताती हैं, ”बैलट पेपर में नाम नहीं था तो गलत प्रत्याशी को वोट दे दिया। मेरे ही गाँव के तीन लोग खड़े थे। मैंने गलत मुहर लगा दी।”

उत्तर प्रदेश में ग्राम प्रधान व पंचायत सदस्यों के चुनाव का बिगुल बज चुका है। प्रदेश की 59 हज़ार से अधिक पंचायतों के लिए लाखों लाखों प्रत्याशी अपना भाग्य आजमाएंगे। 

पंचायत चुनावों में बैलट पेपर पर प्रत्याशियों के नाम न छपने और केवल चुनाव चिन्ह होने के बारे में, उत्तर प्रदेश निर्वाचन आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ”पंचायत चुनाव में लाखों प्रत्याशी मैदान में होते हैं। नाम वापसी की आखिरी तारीख और मतदान में सिर्फ  5-6 दिन का ही समय होता है। ऐसे में इतने कम समय में 60-65 करोड़ बैलट पेपर छपना मुश्किल होगा। इसीलिए बैलट पेपर पर सिर्फ चुनाव चिन्ह होते हैं। बैलट पेपर पर अलग-अलग नाम छापना लगभग असंभव सा है।”

वहीं, उत्तर प्रदेश के पंचायती राज निदेशक उदयवीर सिंह यादव कहते हैं, ”चुनाव चिन्ह कॉमन होते हैं। एक जैसे बैलेट पेपर भी होते हैं। प्रत्याशियों की गिनती के हिसाब से बैलेट काटे जाते हैं। बहुत बड़ी मात्रा में बैलेट छपवाने होते हैं। इतने कम वक्त में यह संभव नहीं है।”

उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर तेजी से बढ़ी है। 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी की साक्षरता दर 69.72 प्रतिशत है, यानि करीब एक तिहाई लोग पढ़े-लिखे हैं। फिर पंचायत चुनाव का तरीका दशकों पुराना क्यों?

पंचायत चुनावों को कम अहमियात मिलने और बैलेट पेपर में नाम न छापने पर शिक्षाविद डॉ. एसबी मिश्र कहते हैं, ”पिछले साठ बरस में गाँव बदल चुके हैं। डिटिजल भारत बन रहा है। उसी के अनुसार गाँवों की चुनाव प्रणाली भी होनी चाहिए। पंचायत चुनाव में बैलेट पेपर के ऊपर प्रत्याशियों का नाम न लिखा जाना ग्रामीणों का अपमान है।”

हालांकि, देश की चुनावी प्रक्रिया पर नज़र रखने वाली संस्थाएं और राजनीतिक विश्लेषक इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते। नई दिल्ली स्थित सीएसडीएस के राजनीतिक विश्लेषक प्रवीण राय फोन पर कहते हैं, ”पंचायतों को अधिकार और बजट तो बढ़ा दिया गया है लेकिन इन चुनावों को उतना महत्व नहीं दिया जाता। न इन पर कोई रिसर्च होती है, न ही लोकसभा और विधानसभा की तरह मीडिया कवरेज करता है।”

लखनऊ जिले की कुम्हरावां ग्राम पंचायत के निवर्तमान प्रधान सुजीत मिश्रा बताते हैं, ”हमारे गाँव की साक्षरता दर 100 फीसदी है। ऐसे में अगर बैलेट पेपर पर प्रत्याशी का नाम हो तो बेहतर रहेगा।”

देश में चुनावों पर शोध करने वाली गैर सरकारी संस्था पीएसआर लेजिस्लेटिव रिसर्च (विधायक शोध) के हेड ऑफ आउट, चक्षु राय बताते हैं, ”पंचायत के चुनाव में भी संसदीय प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, जो लोकसभा-विधानसभा में होती है। गाँव के विकास के लिए सही आदमी का चुना जाना बहुत जरूरी है। उसके लिए पूरी पारदर्शिता और मतदाता को अपने उम्मीदवार के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए।”

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