कहीं ‘रेगिस्तान’ न बन जाए बुंदेलखंड की धरती!

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बुंदेलखंड में महोबा जि़ले के थाना पखवारा गाँव के रहने वाले सुखराम (50 वर्ष) ने दो बीघे में गेहूं बोए थे, लेकिन उत्पादन एक कुंतल गेहूं का भी नहीं हुआ। सुखराम इसके लिए सिर्फ सिंचाई न होने को वजह मानते रहे लेकिन पानी के साथ उनके खेत की मिट्टी भी कम उत्पादन के लिए जिम्मेदार है। सुखराम जैसे बुंदेलखंड के करोड़ों किसानों की ज़मीन पर कार्बन तत्वों की कमी का खामोश खतरा बढ़ता जा रहा है लेकिन उन्हें ख़बर नहीं है।

बुदेलखंड की कृषि योग्य जमीन की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। क्योंकि खेतों में कार्बन तत्वों की कमी हो गई है। ज़मीन में पोषक तत्व कम हो गए हैं। उत्तर भारत में उपजाऊ मानी जाने वाली कृषि योग्य भूृमि में 0.8 फीसदी तक कार्बन तत्व पाये जाते हैं। वनों से घिरे उत्तराखंड और हिमाचल में यह तीन फीसदी तक होती है। लेकिन बुंदेलखंड के कई जिलों में कार्बन तत्वों की मात्रा न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। कृषि जानकारों के मुताबिक इसके बाद जमीन का बंजर होना बाकी है।

महोबा के कृषि अधिकारी केके सिंह बताते हैं, “उपज कम होने और किसानों के घाटे के पीछे की बड़ी वजह जमीन में जीवाश्म का कम होना भी है। पिछले दिनों मृदा परीक्षण के दौरान खेतों में कार्बन तत्वों की मात्रा न्यूनतम पाई गई। क्योंकि किसान खाद नहीं डालते। खाद के नाम पर घूर (सूखा गोबर और कूड़ा करकट) डालते हैं, जिससे वैक्टीरिया पनप ही नहीं पा रहे।”

यूपी और एमपी को मिलकार करीब 45,032197 हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन बुंदेलखंड में है, इसमें से 24,402,267 हेक्टेयर सिंचित है। सिंचाई के साधनों की कमी और किसानों की कृषि के बारे में कम जानकारी से उत्पादन काफी कम है।

बांदा के प्रगतिशील किसान और बड़ोखर खुर्द गाँव मे स्थित मानवीय शिक्षा केंद्र के निदेशक प्रेम सिंह (57 वर्ष) बताते हैं, “बुंदेलखंड की मिट्टी में कार्बन यानी ह्मयूस की मात्रा तेजी से कम हो रही है। एक उपजाऊ जमीन में 3 फीसदी कार्बन तत्व होने चाहिए लेकिन यहां कहीं-कहीं पर 0.3 तक पहुंच गए हैं। ये अल्टीमेटम है कि आगे इस जमीन पर कोई उत्पादन नहीं होगा। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग और वन अच्छादन कम होने से ये समस्या आई है।”

वो आगे बताते हैं, “जब तक जंगल रहे और पशु बांधे जाते रहे ये समस्या कभी नहीं हुई। अगर जमीन पर पेड़ पौधे नहीं है और 40 डिग्री के तामपान मे जमीन के कार्बन तत्व भी गैस (सीओटू) बन कर उड़ जाते हैं। इसका समाधान और सिर्फ पेड़ पौधे और पशु हैं। पशु पेड़-पौधों को खाक कर फिर उसे कार्बन तत्व बना देते हैं।”

प्रेम सिंह के दावों पर मुहर लगाते हुए सेंट्रल एग्रो फॉरेस्ट्री रिसर्च इंस्टीट्यूट झांसी के मृदा वैज्ञानिक डॉ. राजेंद्र प्रसाद बताते हैं, “घटते कार्बन तत्वों की समस्या पूरे देश में है। लेकिन बुंदेलखंड में गर्मी ज्यादा होती है इसलिए यहां स्थिति विकट होती जा रही है। गर्मी से जमीन में मौजूद कार्बन तत्वों का विघटन नहीं हो पाता, जो होता है वो तत्व हवा में मिल जाते हैं। साथ ही यहां की मिट्टी बहुत उथली है, मिट्टी के नीचे जो चट्टानें हैं वो टूटी हुई हैं, क्रेक्ड होने से पानी बह जाता है। तो नमी भी नहीं रह पाती। इसलिए हम लोग सलाह देते हैं कि रासायनिक खादों का प्रयोग कम गोबर और हरी खाद का इस्तेमाल ज्यादा करें।”

“जीवाश्म की कमी का सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है। वनों से घिरे क्षेत्र हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम में पेड़ पौधे गिर-गिर कर खाद बनाते रहते हैं, तो वहां जीवाश्म की मात्रा तीन फीसदी तक है। इन क्षेत्रों का किसान ऊपर से खाद नहीं भी डालता है तो उसे अच्छा उत्पादन मिलता है।” डॉ. प्रसाद आगे जोड़ते हैं।

ग्रामोउद्योग विश्वविद्यालय, चित्रकूट में भूगर्भशास्त्र के प्रोफेसर प्रो. शशीकांत त्रिपाठी- बताते हैं, “बुंदेलखंड में हर थोड़ी दूर पर मिट्टी बदल जाती है। पथरीली, गिट्टीदार मिट्टी है। कहीं काली तो कहीं लाल रेतीली है। बांदा, चित्रकूट के कुछ एरिया में आग्नेय चट्टानों के ऊपर अवसादी चट्टाने भी हैं। तो हमीरपुर और झांसी की मिट्टी अलग। जिसमें खाद-पांस उसकी जांच और आवश्यकता के अनुसार डालनी चाहिए लेकिन यहां का किसान उतना जागरुक नहीं है।”

किसानों का जागरुक करना सरकार की जिम्मेदारी है, इसके लिए बनाए गए कृषि विज्ञान केंद्र बुंदेलखंड में अपने काम में नाकाम रहे हैं। बांदा कृषि विश्वविद्यालय के निदेशक प्रसार प्रो. एनके बाजपेई बताते हैं, “कृषि में पिछड़ने और किसानों की समस्याओं के पीछे की मुख्य वजह सरकारी उदासीनता रही है। अब तक न तो इस क्षेत्र में कोई अनुसंधान हुआ है और न ही किसान उपयोगी तकनीकि का यहां स्थानांतरण किया गया है। सुनने में अजीब लगेगा, लेकिन लाखों की संख्या में जानवर होने के बावजूद यहां जमीन में कार्बन तत्वों की कमी है। अगर इन जानवरों को गोबर का सही तरीके से इस्तेमाल होता तो कहीं अच्छी पैदावार देती।”

जमीन की घटती उत्पादकता कुछ हद तक किसान या फिर कहें उनकी आर्थिक तंगी जिम्मेदार है। 2001 के बाद पड़े सूखे के बाद किसानों ने दलहनी फसलों की खेती छोड़कर गेहूं उगाना शुरू किया लेकिन उसके अनुपात में खेतों के लिए खाद का इंतजाम नहीं किया। ढैंचा जैसी हरी खादें किसानों के लिए दूर की कौड़ी हैं। महोबा में कबरई के निवासी पंकज सिंह बताते हैं, पहले बुंदेलखंड में खेत में मेढ़ और मेढ़ पर पेड़ का चलन था। अब वैसी मेढ़े ही नहीं रहीं। बारिश के दौरान खेत की उपजाउ मिट्टी बह जाती है। और पेड़ हैं नहीं तो खाद उनकी पत्तियां भी गिरकर खाद बनेगी इसका इंतजाम नहीं रहा।”

बांदा के जिला कृषि अधिकारी बाल गोविंद यादव बताते हैं, बांदा जिले में ही दो कुंटल ढैंचा बीज आया है लेकिन कोई लेने वाला नहीं मिल रहा है। एक तो किसान कोशिश नहीं कर रहा है जो कर रहे हैं उनके सामने पैसे की दिक्कत है। जिले में ढैंचा 26 रुपये किले हैं 13 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी है लेकिन वो बाद में आएगी तो किसान कहता है, अभी उसके पास पैसे नहीं है। डीबीटी जैसी स्कीमें आई हैं लेकिन वो कारगर नहीं है।”

‘डेढ़ सौ सालों से बदल रही है बुंदेलखंड की मिट्टी’

शेखर उपाध्याय

लखनऊ। बुंदेलखंड की उत्पादन और मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी को लेकर बांदा कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय में मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन में विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डॉ. देव कुमार से बात की गांव कनेक्शन ने।

प्रश्न- बुंदेलखंड में खेती की हालत कैसे है और अगर सिंचाई को छोड़ दें तो इनके और क्या कारण हैं? 

उत्तर- बुंदेलखंड की मिट्टी में निरंतर बदलाव पिछले 100-150 वर्षों से होता आ रहा है और इसके कई कारण हैं। इसका पहला कारण है अधिक तापमान और मिट्टी में लंबे समय से सूखेपन की वजह से उसके तत्व और संरचना में काफी बदलाव आया है, जिसकी वजह से उसकी उपज क्षमता में काफी गिरावट आयी है। दूसरी वजह है मृदा अपरदन, ऊपरी सतह में नमी न होने के कारण वह सूखकर  भुरभुरी हो गई है और नदी के तट पर नदियों द्वारा मिट्टी का कटान ने नदियों के आस-पास की जमीन को भी उपजाऊ नहीं छोड़ा है। तीसरी वजह है बुंदेलखंड में जमीन का समतल न होना।

प्रश्न- क्या किसानों के खेती के तौर तरीकों ने भी यहां की मिट्टी की उर्वरता घटाई है?

उत्तर- हां, किसानो का लंबे समय तक एक ही फसल को उगाना और फसल का चक्रिकरण न करना भी एक कारण है, लेकिन यहां की मिट्टी आज भी बहुत उपजाऊ है, क्योंकि बुंदेलखंड के किसानों ने रासायनिक उर्वरक का बहुत कम प्रयोग किया है। अगर सिंचाई की अच्छी व्यवस्था हो जाए तो आज भी यहां की मिट्टी में सोना देने का दम है।

प्रश्न- सरकार आजकल बुंदेलखंड में सोयाबीन की खेती के लिए बहुत जोर दे रही है और सोयाबीन के अलावा और कौन-कौन से चीजों की खेती की जा सकती हैं?

उत्तर- अभी वर्तमान समय में बुंदेलखंड की मिट्टी सोयाबीन के खेती के लिए बहुत अनुकूल है और सोयाबीन के अलावा अंगूर, नींबू की बागवानी के लिए भी यह मिट्टी बहुत उपयुक्त है। 

प्रश्न- सिंचाई के मद्देनज़र सरकार ने बुंदेलखंड के लिए अपनी महत्वकांक्षी नदी जोड़ो परियोजना के तहत केन और बेतवा नदी को जोड़ने शुरू किया है क्या इससे बुंदेलखंड की सूरत में कोई बदलाव आएगा?

उत्तर- इस परियोजना से लोगों को कुछ हद तक लाभ पहुंचेगा पर बहुत लंबे समय में क्योंकि अभी सिर्फ नदियों के मिलन का काम शुरू हुआ है और अगर इस परियोजना को सच में बुंदेलखंड के लिए जीवनदायी बनाना है तो सरकार को कई बड़ी-छोटी नहरों का निर्माण कर बुंदेलखंड के आतंरिक इलाकों तक पानी पहुंचाना होगा और ये काम इतना आसान नहीं होगा क्योंकि बुंदेलखंड पहाड़ी इलाका है वरना यह परियोजना बहुत सीमित रह जाएगी। इस परियोजना के अलावा जो हम कर सकते वो हैं जैसे पुराने तालाबों को पुनः जीवित कर और कुछ नए बड़े तालाब खुदवा कर इनको आपस में पारम्परिक रूप से जोड़ना जो की बुंदेलखंड जैसे पहाड़ी इलाकों के लिए आसान और अधिक लाभकारी है।

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