कहीं अतीत न बन जाए रेडियो

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रिपोर्टर – संजय दूबे

इलाहाबाद। रेडियो एक जमाने से लोगों की सेवा करता आ रहा है। गाँवों के बड़े-बूढ़े अपने ज़माने के एक दौर को याद कर भावुक हो जाते हैं, आज के टेलीविज़न, मोबाइल और इंटरनेट के ज़माने में रेडियो संग्रहालय की वस्तु बन गया है। रेडियो बाज़ारों से लगभग गुम हो गया है। इसके मेकैनिक अब नहीं रहे। काम नहीं मिलने से उन्होंने अब दूसरे कामों को अपना लिया है। हालाँकि गावों में अब भी इसका कुछ अस्तित्व है। पुराने लोग अब भी रेडियो सुनते हैं, लेकिन इनकी संख्या गिनती की है।

इलाहाबाद से 20 किमी दूर करछना तहसील क्षेत्र के मासिका-रेही गांव निवासी रामायण प्रसाद मिश्रा बताते हैं, ”मेरे पास एक बहुत पुराना रेडियो है। घर में सभी लोग टेलीविजन देखते हैं, सिर्फ मैं रेडियो सुनता हूँ। समाचार और विविध भारती के कार्यक्रम। कुछ दिन गिर जाने से रेडियो की बॉडी टूट गई। वॉल्यूम भी काम नहीं कर रहा है।”

आगे बताते हैं, ”पूरे नैनी बाजार में मरम्मत करने वाला कोई नहीं मिला।” एक टीवी विक्रेता ने बताया, ”कचहरी के पास एक टीवी का सर्विस सेंटर हैं वहां भले ही ठीक हो जाए।”

रामायण प्रसाद मिश्रा अकेले नहीं हैं जिनके साथ ऐसी समस्या है। शहर के सुल्तानपुर भावा के पंडित नवरंग तिवारी (79 वर्ष) पुरोहित हैं और काफी वृद्ध हो चले हैं। रेडियो के प्रति उनकी दीवानगी अभी कम नहीं हुई है। अब से 62 वर्ष पहले उनकी शादी हुई थी। ससुराल से उन्हें साइकिल, रेडियो (ट्रांजिस्टर) और घडी मिली थी। वो बड़े गर्व से बताते हैं, “1963 में मेरे भाई का आईएएस में सेलेक्शन हुआ था। पूरे देश में टॉप किया था। आकाशवाणी समाचार में यह सूचना प्रसारित हुई थी। इसी रेडियो में मैंने यह समाचार सुना था।ये रेडियो आज भी मेरे पास है।” आगे बताते हैं, ”मैं रेडियो पर बीबीसी की ख़बरें और हवा महल कार्यक्रम रोज सुनता हूँ। एक बार खाना खाना भूल सकते हूँ, पर रेडियो पर हवा महल और समाचार सुनना नहीं।”

बरामार गांव के छोटेलाल रिक्शा चालक हैं। वो बताते हैं, ”रेडियो के बिना मैं नहीं रह सकता। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद रात में विविध भारती के भूले-बिसरे गीत और छाया गीत सुन लेता हूँ, तो सारी थकान दूर हो जाती है। वैसे घर में टीवी है, लेकिन उसे बच्चे देखते हैं।

रेडियो के प्रति लगाव

करछना तहसील के चटकहना गाँव के जय प्रकाश द्विवेदी 75 वर्ष के हो गए हैं। रेडियो के प्रति लगाव अब भी बना हुआ है। अपने ज़माने को याद कर उनके चेहरे पर चमक आ जाती है। बताते हैं कि वह जमाना कितना अच्छा था। तब न कारें थीं, न ट्रक और बस। बड़े लोग बग्घी या तांगे से चलते थे। आम लोग पैदल या फिर साइकिल (जो कुछ लोगों के ही पास थी) से चलते थे। तब ना पर्यावरण प्रदूषण का संकट था और ना ही दुर्घटना होने का भय। सड़कों पर स्वच्छ और ताजी हवा चलती थी। लोग रेडियो सुनते हुए मीलों पैदल चल लेते थे। आज बहुत कुछ है लेकिन रेडियो नहीं है। रेडियो अतीत की चीज बन गया है। उस समय बड़े और संपन्न लोग शादियों में दामाद को रेडियो जरूर देते थे। अब लोग गाना भी सुनते हैं तो मोबाइल में। कुछ दिनों बाद नई पीढ़ी रेडियो को सिर्फ संग्रहालय में देखेगी।

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