एक था बुंदेलखंड

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हमारे पत्रकर, नेता और विचारक यह कहते नहीं थकते कि बुन्देलखण्ड के लोग घास की रोटी खाते हैं। यदि मान भी लें ऐसा है तो क्या करें बूुन्देलखंड के रहने वाले जब अनाज की पैदावार की कमी है। लेकिन ठहरिए, दुनिया में सिंगापुर जैसे तमाम देश हैं जहां खाद्यान्न कम या बिल्कुल पैदा नहीं होता फिर भी वे घास की रोटी नहीं खाते हैं। खेतों में फावड़ा चलाने के अलावा भी रोटी – रोजी के साधन हो सकते हैं जो पेट भरने के लिए अनाज दे सकेंगेें। बुन्देलखंड की समस्याओं के समाधान खोजते समय धान गेहूं के साथ ही वैकल्पिक साधनों पर भी विचार होना चाहिए 

चर्चा करते समय बुन्देलखंड की विशेष भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखना होगा। यह क्षेत्र उत्तर में गंगा यमुना के मैदान और दक्षिण में विंध्याचल पर्वत श्रंखला से घिरा है। विंध्य पर्वत श्रंखला की बंजर पथरीला ढलान उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड की ओर है जहां बीहड़ घाटियां और जंगल रहे हैं। वैसे इसका कुछ भाग उत्तर प्रदेश में और कुछ भाग मध्य प्रदेश में पड़ता है। उत्तर प्रदेश के जिले हैं झांसी, जालौन, बांदा, चित्रकूट, ललितपुर, महोबा और हमीरपुर। मध्य प्रदेश में पड़ने वाले जिले हैं पन्ना, दतिया, टीकमगढ़, सागर, छतरपुर और दमोह। 

मप्र का बुन्देलखंड थेाड़ा बेहतर हालत में है फिर भी दोनों के इतिहास और भूगोल में अनेक समानताएं हैं। शायद यही कारण है कि बुन्देलखंड मुक्ति मोर्चा नाम के संगठन ने यूपी और एमपी के सभी जिलों को मिलाकर फिल्मकार राजा बुन्देला की अगुवाई में एक अलग प्रदेश बनाने की मांग उठाई थी। मांग के पीछे राजनैतिक शक्ति न होने के कारण जोर नहीं पकड़ सकी। बाद में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2011 में उत्तर प्रदेश के 6 जिलों को प्रथक करके अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित कराकर यूपीए की केन्द्र सरकार को भेजा था। इस प्रस्ताव में उत्तर प्रदेश को चार भागों में विभाजित करने की बात थी: बुन्देलखंड, हरित प्रदेश, अवध और पूर्वांचल। इनके नाम कुछ भी हो सकते थे।

मायावती सरकार ने जब प्रस्ताव भेजा तो उसके पास अधिक समय नहीं बचा था, असेम्बली चुनाव होने वाले थे, और  वह प्रस्ताव जन समर्थन नही जुटा सका। इस बात से इंनकार नहीं किया जा सकता कि विकास के मामले में यूपी के अन्य भागों के लिए बनी योजनाएं बुन्देलखंड के लिए प्रासंगिक नहीं हो रही हैं। इस भूखंड को उप्र के बाकी भागों के बराबर लाने के लिए इसको अलग प्रदेश बनाना तर्कसंगत होगा। लेकिन यदि मध्यप्रदेश का बुन्देलखंड इसके साथ नहीं जोड़ा गया तो शायद यह आर्थिक रूप से स्वावलम्बी न हो पाए। उस हालत में दार्जिलिंग की तरह उप्र में ही एक स्वायत्त इकाई बनायी जा सकती है जो विकास की अपनी दिशा खोजेगी।

एक तरफ कम उपजाऊ जमीन और आवागमन के साधनों की कमी है दूसरी तरफ इस जमीन पर यहां की  70 प्रतिशत आबादी की जीविका निर्भर है जबकि शेष उत्तर प्रदेश में 60 प्रतिशत लोग ही खेती पर आश्रित हैं। कुछ विकास तो हुआ है क्योंकि  सत्तर के दशक में 15 प्रतिशत जमीन ही  सिंचित थी, अब 40 प्रतिशत के लगभग सिंचित भूमि है लेकिन अभी भी हमीरपुर और चित्रकूट में 30 प्रतिशत से भी कम सिंचित है। पूरे उत्तर प्रदेश में 70 प्रतिशत सिंचित भूमि है और केवल 60 प्रतिशत लोग ही खेती पर आश्रित हैं। इस क्षेत्र की कमियों को कोसने के बजाय इसकी विशेषताओं का लाभ उठाना होगा। 

यहां की नदियां बेतवा, केन, टोंस, धसाना और चम्बल सभी यमुना नदी की शाखाएं हैं जिनके पानी का सदुपयोग हो सकता है। इतना पानी नहीं है कि गेहूं की बौनी प्रजातियां उगाई जायं जो अधिक पानी मांगती हैं। लेकिन बुन्देलखंड की भूमि में दलहन और तिलहन की पैदावार की सम्भावनाएं हैं जिनका देश में  संकट बना हुआ है। बुन्देलखंड के लिए उपयुक्त इन फसलों पर रिसर्च करके प्रजातियां विकसित की जा सकती हैं। यहां का पान मशहूर है परन्तु इसकी सम्भावनाओं पर जितनी रिसर्च होनी चाहिए थी हुई नहीं, विशेषकर पान की उन प्रजातियों पर जो निर्यात योग्य हैं। इसी प्रकार बायोडीजल के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला जेट्रोफा भी अनुपजाऊ जमीन में उगाया जा सकता है लेकिन अभी तक इस दिशा में प्रयास नाकाफी है।

यहां किसानों के पास प्रान्तीय औसत से अधिक भूमि है लेकिन प्रति एकड़ पैदावार बहुत कम है। इस जमीन का खेती के अलावा दूसरे कामों में प्रयोग हो सकता है जैसे बागबानी, उद्योग लगाना, मछली पालन, पोल्ट्री आदि। लेकिन जो प्रारंभिक उद्योग थे उन्हें भी प्रोत्साहन नहीं मिला। केन्द्र की मोदी सरकार ने मनरेगा को खेती से जोड़ने की बात कही थी वह भी दिशा नहीं पकड़ सकी। जो चेक डैम बने हैं वे बरसात के बाद निष्प्रभावी हो जाते हैं। आने वाले दिनों में अच्छी वर्षा होने की संभावना है तब जल संचय के लिए मनरेगा का धन प्रयोग करके संचय क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए थी। 

बुन्देलखंड के जंगल एक सीमा तक जीविका का आधार हुआ करते थे जिनसे चिरौंजी, गोंद, खैर जैसी चीजें मिलती रही हैं। इनमें पाया जाने वाला महुआ शराब बनाने के काम आता था जिसका बेहतर उपयोग हो सकता है। महुआ के फल से तेल निकलता है जिसमें औषधीय गुण होते हैं जिनसे उचित मूल्य मिल सकता है। दमोह जिले में सत्तर के दशक में मैने चिरौंजी के बड़े – बड़े पेड़ देखे थे जो फलों से लदे रहते थे। इनके अलावा आय का महत्वपूर्ण श्रोत है तेंदू पत्ते जिनमें तम्बाकू लपेटकर बीड़ी बनती है। अब निर्वनीकरण के कारण आय के ये श्रोत भी समाप्त हो रहे हैं। अब केवल 10 प्रतिशत के लगभग ही फारेस्रट कवर बचा है। निर्वनीकरण से न केवल वन्यजीवों का घर उजड़ रहा है बल्कि वर्षा भी कम होने लगी है।

इन जंगलों में रहने वाले नामी – ग्रामी  डाकुओं का बोलबाला रहा है, कुछ नाम आसानी से जाने जा सकते हैं जैसे अम्बिका पटेल ‘‘ठोकिया‘‘, शिवकुमार पटेल ‘‘ददुआ‘‘, सुदेश पटेल ‘‘बलखरिया‘‘। इनमें से सभी का राजनीति में दखल रहता है और कहा जाता है कि चुनाव जिताने का पैसा मिलता है फिर बाद में विकास के पैसे में ‘कट‘ जाता है। कुछ तो प्रत्यक्ष राजनीति में भी आ चुके हैं जैसे फूलन देवी सांसद बनी थीं।

मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड में पूरनसिंह जिन्हें पूजा बब्बा के नाम से जाना जाता था और पड़ोस के दमोह जिले में मूरत सिंह जिसके नाम से लोग कांपते थे। बुन्देलखंड पिछड़ा है उसमें इनका भी योगदान है क्योंकि कोई भी अशान्त क्षेत्र में पूंजी निवेश नहीं करना चाहेगा। इन डाकुओं में तेंदू पत्तों को लेकर संघर्ष हुआ करता हैं जिससे बीड़ी व्यापार भी प्रभावित होता है।

काफी पहले सत्तर के दशक में डाकू मूरत सिंह के इलाके में दमोह जिले की तहसील हटा के चैरैया नामक गाँव में घने जंगल में  मैं और मेरे सहयोगी भूवैज्ञानिक सुरेश टंडन करीब 4 महीना रहे थे। वहां के लोग मूरत सिंह के बारे में धीरे से बात करने के पहले चारों और देख लेते थे। बाद में मूरत सिंह ने आत्म समर्पण कर दिया था और मेरे साथी सुरेश टंडन से उनकी भेंट हुई थी। मूरत सिंह ने टंडन को बताया था वह पहले हमारी गतिविधियों से चैकन्ना था और हमारे कैम्प में एक मजदूर को भर्ती करा रक्खा था जो रोज उन्हें खबर देता था। बाद में जब पता चला  हम लोग सरकारी नौकर तो हैं लेकिन पुलिस से कोई लेना देना नहीं तो हमारी खुफियागीरी छोड़ दी थी।  

ऐसा नहीं कि हमेशा से यह क्षेत्र इतना ही पिछड़ा था। अंग्रेजों के आने के पहले बुन्देलखंड में अनेक स्थानीय उद्योग थे, विशेषकर झांसी जिले में हैंडलूम का काम मशहूर था। अंग्रेजों ने सब समाप्त कर दिया। झांसी में 1970 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स की स्थापना हुई और 1980 में मप्र के दमोह में में बिरला सीमेन्ट की फैक्ट्री बनी। इनके अलावा रोजगार देने वाली कोई औद्योगिक इकाई नहीं स्थापित हुई। गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार के साधन है बीड़ी उद्योग, झांसी में हैंडलूम उद्योग और स्टोन इन्डस्ट्री में कुछ रोजगार। इसके विपरीत मप्र के बुन्देलखंड में अनेक रोजगार के प्रकल्प स्थापित हुए हैं।

मप्र की ही भांति उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड में भी खनिज सम्पदा की सम्भावनाएं हैं जिनके दोहन से लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है। टाइम्स आफ इंडिया के एक वेब पेज के अनुसार ललितपुर और सोनभद्र में सोना और प्लेटिनम की सम्भावना है, झांसी में ऐस्बेस्टस और सिलिका, चित्रकूट में पोटाश के डिपाजिट हैं। इनके अलावा इस क्षेत्र में डायस्पोर, चूना पत्थर,  डोलोमाइट, मैगनेसाइट भी पाए जाते हैं । इनका सर्वेक्षण उत्तर प्रदेश के भौमिकी एवं खनिकर्म विभाग द्वारा किया गया है। ये औद्योगिक उपयोग के खनिज हैं जिनका उपयोग उच्चतापरोधी सीमेन्ट और ईंटा (जो भट्टियां बनाने के काम आते हैं), पोटाश का उपयोग खाद बनाने और  विविध संयंत्रों में होता है।

टैल्क नाम का खनिज जो सबसे मुलायम होता है उससे टैल्कम पाउडर तथा अन्य साफ्ट घिसाई के सामान बनते हैं। इस खनिज की बेतरतीब खुदाई जिसे ‘‘रैट होल माइनिंग‘‘ कह सकते हैं उसके कारण अनेक दुर्घटनाएं होती हैं। आवश्यकता है खनिजों के वैज्ञानिक दोहन की जिससे सरकार को राॅयल्टी और लोगों को रोजगार मिल सके।  

पिछले वर्षों में औद्योगिक उत्पादन में बुन्देलखंड की भागीदारी बढ़ने के बजाय घटी है। वर्ष 2001-02 में झांसी के औद्योगिक उत्पाद उत्तर प्रदेश का 5 से 10 प्रतिशत हुआ करता था जो अब काफी कम है। इसी प्रकार यूपी बुन्देलखंड में प्रदेश का 2 प्रतिशत से भी कम पूंजी निवेश है जब कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यूपी का करीब 60 प्रतिशत का पूंजी निवेश है। यूपी के अन्य क्षेत्रों ने अपनी पहचान बनाई है जैसे नोएडा ने इलेक्ट्रॉनिक सामान में, आगरा ने चमड़े के सामान में और मेरठ ने खेलकूद के सामान बनाने में यदि सरकारी समर्थन मिला होता तो झांसी भी हैंडलूम में या इलेक्ट्रॉनिक समान में अपनी पहचान बना सकता था। 

देश मे क्षेत्रीय विकास का अनुभव रहा है कि छोटे प्रान्त तेजी से विकसित होते हैं। पंजाब, हरियाना और हिमाचल प्रदेश जब एक साथ थे तो हिमाचल बहुत पिछड़ा था लेकिन अलग होने के बाद तेजी से विकसित हुआ और फल उत्पादन में धाक जमा दी। उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड ने भी तेजी से विकास किया है। अलग राज्य बनने के बाद अपनी विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं के हिसाब से योजनाएं बनाएगा और उनकी प्राथमिकताएं निर्धारित करेगा। उदाहरण के लिए बुन्देलखंडं की जमीन तिलहन और दलहन के लिए उपयुक्त है इसलिए इन फसलों की खेती लाभकर हो सकती है जिस पर रिसर्च करनी होगी। गेहूं और धान बोए तो जाते हैं लेकिन पैदावार सन्तोषजनक नहीं रहती। 

पुराने समय में खरीफ की फसल में ज्वार, बाजरा, और कहीं कहीं मंडवा, सावां, कोदो, और काकुन बोई जाती थी जो घास जैसी होती हैं। रबी की फॅसल में तिलहन के साथ गेहूं और चना की मिश्रित खेती होती थी। पिछले सालों में सिचाई की सुधरी व्यवस्था के कारण अब गेहूं और दालों की पैदावार बढ़ी है। विकास के बावजूद यहां की आबादी का पालन पोषण खेती  नहीं कर सकती। वैकल्पिक व्यवस्थाएं करनी होंगी। 

आबादी के हिसाब से इस क्षेत्र में अन्य पिछड़ी जाति के लोगों की आबादी करीब 53 प्रतिशत, दलित 25 प्रतिशत आदिवासी 10 प्रतिशत हैं। इस प्रकार यह पिछड़े वर्गोे का इलाका है फिर भी पुराने समय में इसने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है जिनमें चित्रकूट के राजापुर में गोस्वामी तुलसीदास और चिरगांव जिला झांसी में जन्मे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और वृन्दावन लाल वर्मा का साहित्य में योगदान विख्यात है। स्वाभाविक है कि ऐसे लोग अशान्ति और दुर्भिक्ष में नहीं पैदा हुए होंगे। तब हालात बेहतर रहे होंगे।

पर्यटन के क्षेत्र में अनेक सम्भावनाएं हैं। पश्चिमी देशों में 500 साल से पुराना स्थान दर्शनीय हो जाता है, पर्यटन स्थल बन जाता है। यहां तो चन्देल राजाओं के बनवाए हुए दर्जनों किले और मन्दिर मौजूद हैं। लेकिन खजुराहो के मन्दिर  और ओरछाा किला के अलावा अन्य पर ध्यान हीं नहीं दिया गया है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने किले पर से घोड़े पर सवार होकर जिस जगह छलांग लगाई थी वह दर्शनीय स्थान है लेकिन वहां देखकर स्थान का महत्व पता नहीं चलता। ऐसी घटनाएं रोज नहीं होती हैं और ऐसी वीरांगनाएं रोज नहीं पैदा होतीं, पता नहीं हमारी सरकारों ने आजादी की ऐसी घटनाओं को पर्यटन स्थल क्यों नहीं बनाया। 

बुन्देलखंड का बड़ा ऐतिहासिक महत्व है जिसे पर्यटकों को बताया जाना चाहिए। इसका नाम बुन्देला राजपूतों के नाम पर पड़ा है जिन्होंने चन्देल राजाओं से राज्य प्राप्त किया था। जब यह भूभाग खंगार राजाओं के अधीन था तो इसे जुझौती यानी योद्धाओं का देश कहा जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि पथरीली और अनुपजाऊ जमीन के बावजूद यहां अनेक सम्भावनाएं हैं। संसाधनों और परिस्थितियों के हिसाब से योजनाएं बनाने की आवश्यकता है।

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