प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकास में गति लाने को जापान, चीन, मंगोलिया, दक्षिण कोरिया, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी, आस्ट्रेलिया सहित तमाम देशों सें भारत आकर उद्योग लगाने का न्योता दिया है और सकारात्मक जवाब भी मिला है। अब यदि भारत सरकार जमीन का अधिग्रहण करके उन्हें देती है और किसान अदालत जाता है तो उद्योगपति प्रतीक्षा नहीं करेगा। वहीं यदि जल्दबाजी में भूमि अधिग्रहण किया गया तो किसानों से अन्याय हो सकता है।
चीन में आजादी और विकास के बीच टकराव होने पर थियान मान चौक जैसे नरसंहार हो सकते हैं परन्तु भारत में जनआक्रोश के सामने टाटा को अपनी परियोजना समेट कर पश्चिमी बंगाल से गुजरात भागना पड़ता है। हमारे देश में टिहरी,नर्मदा बांधों के खिलाफ आन्दोलन होते हैं और आन्दोलन चलाने को पर्यावरण के नाम पर पैसा विदेशों से आता है। एक तरफ चीन की विकास दर से बराबरी करनी है तो दूसरी तरफ गांधी के भारत को अपनी आजादी भी बचानी है। दोनों ही स्थितियों के बीच कोई सामंजस्य होना ही चाहिए।
वैसे विदेशी निवेश के प्रति हमारा मोह नया नहीं है। विदेशी निवेश का एक उदाहरण है टेक्सास, अमेरिका की एनरान कम्पनी का जिसे नब्बे के दशक में बिजली उत्पादन करना था परन्तु भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना ने डटकर विरोध किया था। अन्तत: गैस से बिजली बनाने का दम भरने वाली इनरान की उत्तराधिकारी डभोल कम्पनी अपना वादा बिल्कुल पूरा नहीं कर पाई और उसके सहारे देश ने वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की। एनरान दिवालिया हो गई, अब रत्नागिरि पावर प्लान्ट से कितनी बिजली मिल रहीं है पता नहीं। विदेशी कम्पनियां अपनी सरकारों के माध्यम से दादागीरी करती हैं, यदि विदेशी निवेश हमारी शर्तों पर आया तो शायद ऐसा नहीं कर पाएंगी। पता नहीं किन शर्तों पर हस्ताक्षर हुए हैं। मूल प्रश्न है कि हमें विदेशी निवेष के लिए किन क्षेत्रों में और कितना आतुर होना चाहिए ।
इतना तो समझ में आता है कि प्रधानमंत्री मोदी भारत को कृषि प्रधान देश से बाहर निकाल कर उद्योग प्रधान देश बनाना चाहते हैं। किसान इसे जबरदस्ती स्वीकार नहीं करेगा परन्तु यह प्रक्रिया अन्तत: धीमी गति से ही सही चल तो रहीं है। पचास के दशक में ग्रामीण आबादी 80 प्रतिशत थी जो अब 68 प्रतिशत बची है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि विकसित देशों में किसानों की आबादी 25 से 50 प्रतिशत के बीच है और सिंगापुर जैसे देशों में और भी कम। लेकिन भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत किसानों को प्रत्यक्ष रूप से बेहतर विकल्प देना होगा और उन्हें सन्तुष्ट भी करना होगा। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज का मार्ग छोड़ साइंस-टेक्नालोजी का रास्ता पकड़ा था। परिणाम अच्छा नहीं रहा। अब यदि भारत को अध्यात्मवादी मार्ग छोड़ कर शुद्ध भौतिकवादी रास्ता पकडऩा है तो यह या तो प्रजातंत्र की सीमा में करना होगा अन्यथा उसकी कीमत पर होगा। इन्दिरा गांधी का उदाहरण हमारे सामने है यदि मौका मिला तो भारतवासी आजादी की कीमत पर कुछ नहीं स्वीकार करेंगे।
इस सन्दर्भ में यदि हम भूमि अधिग्रहण बिल को देखें तो भारत के लोग धरती को माँ समान समझते हैं और शहरों में अच्छी नौकरी मिल जाने पर भी पुश्तैनी जमीन आमतौर से बेचते नहीं हैं। मोदी सरकार किसानों की बिना सहमति के जमीन लेना चाहती है, उन्हें अदालत में गुहार लगाने का मौका भी नहीं देना चाहती, वांछित उपयोग ना भी हो पाए फिर भी अपने पास जमीन रखना चाहती है। सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि चार गुना कीमत देने भर से किसान की सन्तुष्टि नहीं होगी क्योंकि जमीन बेचने और दूसरों से अधिग्रहीत करने में अन्तर है।
भू-अधिग्रहण के मामले में नरेन्द्र मोदी का गुजरात मॉडल ठीक रहा था और माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी उसे ठीक माना था। अब क्या हो गया पता नहीं। उचित यह है कि यदि अधिग्रहण के बाद पांच साल तक भी उद्योग नहीं लगाया जाता है और इस बीच जमीन के दाम चार गुना से अधिक बढ़ जाते हैं तब किसान के साथ पांच साल के लिए दुबारा समझौता करना चाहिए। आशा है सरकार व्यावहारिक रवैया अपनाएगी।sbmisra@gaonconnection.com