भारतीय किसान व खेती के मिथक

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शेखर गुप्ता

जब हम बेमतलब की बातें करते हैं, तो दिमाग की जांच कराने को कहा जाता है। कई बार तो आदमी आपको बिना जांच की बात कहे सीधे पागल करार दे देता है, खासकर तब, जब आप ये कहें कि देश की खेती बिना सरकारी सब्सिडी के जिंदा रह सकती है। शायद ज़रूरत दिमाग की नहीं, तथ्यों की जांच करवाने की है।

‘आर्गेनाईजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलेपमेंट’ (ओईसीडी) के आंकड़ों के अनुसार जापान की कुल आय का 56 प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है, यूरोप संघ की आय का 19 प्रतिशत और संयुक्तराष्ट्र अमेरिका की आय का महज़ 7.1 प्रतिशत है। ये बात मुद्दे से इतर है लेकिन हमें ये भी पता होना चाहिए कि जापान अपने किसानों की सुरक्षा के लिए चावल के आयात पर 778 प्रतिशत और गेहूं के आयात पर 252 प्रतिशत का शुल्क लगाता है। तो ये भी ना कहा जाए की अपने किसानों का संरक्षण बंद करना चाहिए। मुद्दा ये है कि क्या दुनिया की बाकी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भी किसान हमारे देश जितना ही भूखा-नंगा है।

देश में उर्वरकों पर देने वाली सब्सिडी या वित्तीय मदद 70,000 करोड़ रुपए के पार जा चुकी है। बिजली पर कुल सब्सिडी जो हमारे राज्यों से खेती के लिए दी जाती है वो भी लगभग 70,000 करोड़ है। अब इसमें प्रत्यक्षतौर पर लागत के लिए दी जाने वाली सब्सिडी, बीज, सामग्री, डीज़ल (कुछ समय पहले तक), मुफ्त पानी, अतिरिक्त लाभ इत्यादि जोड़ दीजिए और ये राशि आराम से दो लाख करोड़ पार कर जाती है। लेकिन किसान फिर भी तबाह है, इस पर भी खेती में सब्सिडी और ज्यादा बढ़ाने की मांग चल रही है।

हम किसानों की गरीबी जैसे एक सर्वमान्य मिथक को चुनौती दे रहे हैं। भारत को ज्यादा नहीं, समझदारी से दी जाने वाली सब्सिडी की आवश्यकता है। हर जगह ये माना जाता है कि ज्यादातर सब्सिडी बड़े किसानों के पास जाती है। हालांकि भारत में इसके इतर सब्सिडी बड़े उद्योगों की झोली में जाती है। देश का पूरा उर्वरक उद्योग इसी घोटाले पर आधारित है, जहां उर्वरक मंत्रालय, उर्वरक निर्माताओं को 70,000 करोड़ रुपए की सीधी सब्सिडी देकर पैसे उगलने वाली मशीन बनकर रह गई है। दूसरी ओर किसान उर्वरक के लिए भीख मांग रहे हैं। सब्सिडी के चलते यूरिया देश में कितनी सस्ती है फिर भी इसकी हमेशा इतनी कमी बनी रहती है, यहां तक दंगे होते हैं इसके लिए।

भारत में सब्सिडी से यूरिया को असल दाम से तीन गुना सस्ता कर दिया जाता है, इसलिए पड़ोसी देशों में इसकी तस्करी होती है, इसका प्रयोग दूसरे अन्य उद्योगों में कर लिया जाता है, साबुन से लेकर विस्फोटकों में और दूध में मिलावट के लिए भी। बाद में इसी यूरिया की घरेलू कमी पूरी करने को चीन जैसे देशों से आयात करते हैं, फिर दोबारा ऊंचे दामों पर उन्हे निर्यात करते हैं, और दोनों पक्ष सब्सिडी को आधा-आधा बांट लेती हैं।

इससे भी खराब ये है कि उर्वरक की देश में मौजूदा स्थिति, किसानों को केवल बहुत ज्यादा यूरिया या नाइट्रोजन इस्तेमाल करने पर मजबूर कर रही है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम (एनपीके) के मिश्रण में से बाकी के तत्व किसानों द्वारा नज़अंदाज कर दिए जा रहे हैं। इसके कारण देश की करोड़ों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन बर्बाद होती जा रही है। नरेन्द्र मोदी सरकार का किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड देने का इरादा तो नेक है। लेकिन यह योजना सब्सिडी की घटिया अर्थनीति से हार जाएगी। इस पूरी व्यवस्था में मुनाफा बनाने की माफियागीरी का भयानक हित छिपा है।

बिना सोचे-समझे दी जाने वाली सब्सिडी और बेकार खाद्य अर्थव्यवस्था मिलकर भारत की कृषि को बदहाल बनाती है। इसलिए जो दूसरा बड़ा मिथक हम तोडऩे जा रहे हैं वो है ‘नवीन-उदारवाद’। यह मिथक कहता है कि सरकार किसानों से बिना कोई कर वसूले, उनका अनाज कर देने वाले नागरिकों के रुपयों के ज़रिए महंगे दामों पर खरीदती है, जिससे खाद्य महंगाई बढ़ती है। इनमे से कुछ मुख्य मुद्दों को हाल ही में कृषि पर बनी शांता कुमार कमेटी ने गहराई से जांचा है।

भारत में धान का सरकारी खरीद मूल्य या न्यूनतम समर्थन मूल्य करीब 14,400 रुपए प्रति टन है। पाकिस्तान में ये 20,400 रुपए और चीन में 24,500 रुपए है। सच्चाई यह है कि हम जिन देशों से खुद की तुलना करते हैं उनमें से ज्यादातर ने अपनी खेती का ढर्रा पूरी तरह बदल डाला है, पर भारत ने नहीं बदला। पाकिस्तान और चीन दोनों ही अपनी आय में समर्थन के लिए खेती की सब्सिडी को सीधे तौर पर व्यवस्थित करते हैं।

दोनों देशों ने जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) ख़त्म कर दी है। वहीं दूसरी ओर हमारे यहां केवल छह प्रतिशत किसान ही एमएसपी के रूप में अनुदानित राशि पर सरकारी एजेंसियों को अपना उत्पाद बेचते हैं, उस अनुदानित अनाज को रिसने वाली ट्रेनों में लादते हैं और फिर भारी मात्रा में भण्डारित करते हैं ताकि पीडीएस के ज़रिए अनुदानित मूल्यों पर जनता में बांट सकें। पीडीएस यानी ‘जन वितरण प्रणाली’ को मैं ‘जन आपदा प्रणाली’ कहता हूँ। यानी हम लागत, खेत पर ही उत्पादों की बिक्री और खपत तीनों ही बिंदुओं पर खाद्य/कृषि के अर्थशास्त्र को बिगाड़ देते हैं। इस क्रय-विक्रय से हुए मुनाफे का बहुत बड़ा हिस्सा अपात्रों, बिचौलियों, इंस्पेक्टरों और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) नाम के भीमकाय समूह की जेब में जाता है।

अगला मिथक हमारी हिट लिस्ट में यह है कि खाद्य सुरक्षा के लिए भारत को और ज़्यादा अनाज चाहिए। शांता कुमार रिपोर्ट के अनुसार भारत को मात्र एक करोड़ टन अनाज के भण्डारण (सूखे की स्थिति में) की आवश्यकता है। इसमें से आधा भौतिक रूप से भंडारित किया जाए और बाकी वैश्विक वायदा और विकल्प बाज़ार के ज़रिए। लेकिन एक ऐसे देश में जहां सालाना उत्पादन के 15 से 20 प्रतिशत अनाज को भण्डारित करने का सदियों पुराना नियम चला आ रहा हो, वहां के लिए बहुत बड़ा बदलाव हो जाता है। भारत में सुझाई गई आवश्यकता अधिक से 3.2 करोड़ टन अनाज भण्डारित किया जाता है (वर्ष 2014-15 में 25 करोड़ टन और वर्ष 2013-14 में 26.50 करोड़ टन उत्पाद के हिसाब से)।

अगर खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जन वितरण प्रणाली के लिए ज़रूरी भण्डारण की सीमा को बहुत ज्यादा भी खींचे तब भी 4.2 करोड़ टन ही भण्डारण करना होगा। आज हमारे पास करीब छह करोड़ टन से ज्यादा का भण्डारण है। हम आसानी से एक करोड़ टन तक अनाज का निर्यात कर सकते हैं, बल्कि ऐसा करना दो वर्ष पहले तय भी हुआ था, लेकिन सीएजी, सीवीसी और सीबीआई के चक्कर में पड़कर यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई। इस अतिरिक्त अनाज की देखरेख में 45,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च होता है, जिससे किसी को कोई फायदा नहीं होता। जब एफसीआई किसानों को अनाज का भुगतान करती है तो 4.75 रुपए प्रति टन प्रति वर्ष अतिरिक्त खर्च केवल इस अनाज को लाने-ले जाने में खर्च करना पड़ता है, जो कुल खर्च में 7,500 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ जोड़ देता है।

यह हमारी खतरनाक खाद्य सुरक्षा से जुड़े अगले मिथक को ख़त्म करता है, यह इतनी प्रचलित है कि क्रिस्टोफे जैफ्रेलोट जैसे अकलमन्द और सावधान विद्वान भी इसे सच मान बैठे। हाल ही में एक अखबार में उन्होंने लिखा की, पिछले साल 80,000 टन गेहूँ का आयात भारत में अनाज की भारी कमी की ओर एक चेतावनी है। अगर गंगा-जमुनी सभ्यता के एक मुहावरे के इस्तेमाल से इसे बतलाया जाए तो हमारे पास पहले से भण्डारित चावल-गेहूँ के छह करोड़ टन अनाज के मुकाबले आयातित 80,000 टन ऊंट के मुंह में जीरा है।

इस आयात पर किए न्यायिक शोध से हमें पता चलता है कि ये आयात किसी मैगी या पास्ता जैसे ब्रांडेड उत्पाद निर्माता से अलग स्तर के ग्लूटेन और फाइबर की आवश्यकता के चलते मंगवाए गए छोटे पार्सल हैं। या फिर ये अनाज दक्षिण भारत की किसी आटा मिल ने मंगवाया होगा, जिसको कम भाड़े और कम अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के चलते ऑस्ट्रेलिया से अनाज मंगाना ज्यादा आसान और सस्ता पड़ता है बजाए उत्तर भारत के एफसीआई भण्डारों से अनाज मंगवाने के।

यदि आपको लगता है कि ये बिखरा हुआ अर्थशास्त्र बेमतलब है तो मैं आपको और जानकारी देता हूँ। पंजाब, हरियाणा राज्य, एफसीआई के लिए भण्डारण का बड़ा हिस्सा किसानों से खरीदते हैं, इसके लिए केंद्र से एमएसपी का 15 प्रतिशत हिस्सा उपकर के रूप में लेते हैं। यानी 15 प्रतिशत ज़रूरत से ज्यादा अनाज उपजाने के लिए इन राज्यों को केंद्र से मिलने वाला उपहार बन जाता है।

फिर आप शिकायत करते हैं कि हरित क्रांति के चलते किसान केवल गेहूं-धान के चक्र में फंस गया है। ये राज्य अपने किसानों को गोभी, भिंडी, ब्रॉकली आदि उगाने को क्यों प्रोत्साहित करेंगे, जब उन्हें गेहूं-धान की खेती के रूप में केंद्र से अतिरिक्त पैसे का बजट ऐंठने का ज़रिए मिला हुआ है?

यदि आप भारतीय खेती को सुधारना चाहते हैं तो पंजाब और हरियाणा को मक्का (समर्थन मूल्य के साथ) और बासमती जैसी नकदी फसलों की खेती शुरू करनी होगी, जिनके एक टन उत्पाद से साधारण चावल से तीन गुना ज्यादा कमाई होती है और जो साधारण चावल के मुकाबले दो-तिहाई कम पानी खाते हैं। साधारण चावल की खेती पूर्वी राज्यों में की जा सकती है, और गेहूँ के देश मध्य प्रदेश की ओर देख सकता है जहां के किसानों ने नर्मदा के पानी की ताकत से अपने उत्पादन में 20 गुना वृद्घि की है।

अगला मिथक जिसको हम भंग करने जा रहे हैं वो दरअसल एक घृणित तथ्य है कि यदि औद्योगिकरण और शहरीकरण के लिए ज़मीन अधिगृहीत की जाएगी तो भारत में खेती की ज़मीन की कमी हो जाएगी और खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। अब यदि तथ्यों की बात करें तो भारत में करीब 20 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है, जिसमें साल में दो बार फसल उगाने वाले खेत भी शामिल हैं। ये खेत करीब 26 करोड़ टन अनाज उत्पादित करते हैं। वहीं चीन 15.6 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन पर खेती करके 60 करोड़ टन जितना भारी मात्रा में अनाज उत्पादित करता है। क्यों? क्योंकि उनके पास सिंचाई के साधन हैं, और वे 63 प्रतिशत उन्नत संकर धान उगाते हैं, जबकि हमारा सिर्फ तीन प्रतिशत धान की उन्नत संकर धान है। क्यों? उनसे जाकर पूछिए जो जैविक खेती की रट लगाएं हैं। ये सारे आंकड़े मुझे कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी से मिले हैं।

कुछ छोटी-छोटी चीज़ों को अपनाकर इस बदहाल स्थिति से उबरा जा सकता है। पहला, सब्सिडी की कुल राशि को जोडि़ए और उसे सीधे किसानों को उनकी जोत के अनुपात में दे दीजिए। दूसरा, कृषि उत्पादों को बाज़ार में खुद ही उनका मूल्य तय करने दें। तीसरा, जब समर्थन मूल्य नकद के रूप में दिया जाए तो, बाकी की सामग्रियां, बिजली समेत, बाज़ार भाव पर दी जानी चाहिए। चौथा, सारी बचत और अतिरिक्त निवेश सिंचाई और तकनीकि के विकास, नए बीज और आनुवांशिक रूप से संवर्धित फसलों के शोध में होना चाहिए। सिंचाई संसाधनों का विकास कितना बदलाव ला सकता है, मध्य प्रदेश इसका उदाहरण है।

ये मत भूलिए की 81,206 करोड़ रुपए खर्च करके महाराष्ट्र ने वर्ष 2000-01 से 2010-11 के बीच कपास की सिंचाई क्षेत्र में महज़ 5.1 प्रतिशत का इज़ाफा किया, वहीं गुजरात ने इस राशि का आधा खर्च करके अपने सिंचाई क्षेत्र में 67 प्रतिशत की वृद्धि कर ली।

पांचवां, मान लीजिए अकाल व जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाली कठिन मौसमी परिस्थितियों को टाला नहीं जा सकता। पिछले सौ वर्षों के आंकड़ों से ये साफ ज़ाहिर है कि भारत में हर चौथे-पांचवे साल अकाल पड़ता है। इसलिए हमें बढिय़ा कृषि बीमा प्रणाली की आवश्यकता है।

भारत की सत्तर प्रतिशत खेती का बीमा करने के लिए 15,000 करोड़ रुपए सालाना चाहिए। इस खर्च का आधा हिस्सा तो आसानी से एफसीआई को अतिरिक्त अनाज भण्डारण के लिए दिए जा रहे 7,500 करोड़ खर्च को रोक कर निकल आएगा। अब बात यह की बीमा होगा कैसा? बहुत सारे प्रारूप हैं।

एक बहुत ही प्रभावशाली प्रारूप पीके मिश्रा (वर्तमान में पीएमओ में अतिरिक्त प्रधान सचिव) ने अपनी रिपोर्ट में सुझाया है। वही रिपोर्ट जो उन्होंने फसल बीमा के निरीक्षण के लिए बनाई गई कमेटी के प्रमुख के तौर पर तैयार की थी। अन्य विशेषज्ञ भी इस मुद्दे पर एक नवीन तरीके पर काम कर रहे हैं, ऐसा तरीका जिसमे स्मार्टफोन, जीपीएस और मानवरहित विमानों की मदद से नुकसान का पता लगा जल्दी सहायता राशि दी जा सकेगी। गुलाटी कहते हैं कि अगर केन्या देश इस प्रारूप को अपना सकता है तो हम क्यों नहीं? उसके पहले हमें इन सभी मिथकों को ख़त्म करना होगा जो हमारे किसानों को भिखारी बनाती हैं, हमें उनकी मदद के लिए दान देने का झूठा सुख देती है, असल में वो सारा धन धोखेबाजों की जेबों में जाता है, जो लालच से अभिप्रेरित हैं।

साभार : मीडिया स्केप
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं)

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