बाबा बर्फानी यानी बाबा अमरनाथ लाखों हिन्दुओं की श्रद्धा के केन्द्र रहे हैं और भारत में श्रद्धा पर सवाल खड़े करना बेहद खतरनाक है लेकिन इन दिनों मैं बाबा अमरनाथ की यात्रा को बड़े गौर से देख रहा हूं। 2 जुलाई को जिस दिन यात्रा की शुरुआत हुई थी, नौ हज़ार यात्री थे और श्रद्धालुओं की यह संख्या दूसरे ही दिन बढ़कर सोलह हजार हो गई। जम्मू-कश्मीर के जिस हिस्से में बाबा अमरनाथ की पवित्र गुफा है, उसे पारिस्थितिकी के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील माना जाता है। लोगों की बढ़ती तादाद से उस इलाके में, उस ऊंचाई पर सामान्य तापमान में बढ़ोत्तरी हो जाती है और बर्फ से बनने वाला शिवलिंग कई दफा पूरा नहीं बन पाता।
इस इलाके में हरियाली बहुत तेजी से कम हो रही है और यात्रा के लिए नए रास्ते बनाए जा रहे हैं। रास्ते में अधबनी सड़कों की वजह से धूल के बगूले उठते हैं। असल में, बाबा अमरनाथ तक जाने के दो रास्ते हैं, एक है पारंपरिक पहलगाम-चंदनबाड़ी होकर जाने का रास्ता। इस रास्ते की लंबाई अधिक है, करीब 38 किलोमीटर का सफ़र तय करना होता है लेकिन पारंपरिक रास्ता तो यही है।
इसी रास्ते पर आतंकवादी हमले का खतरा भी अधिक होता है लेकिन दूसरा रास्ता भी बना लिया गया है। हालांकि, लोग बताते हैं कि इस रास्ते का उपयोग 18वीं सदी से होता आया है लेकिन पिछले 15-16 साल में बालटाल होकर जाने वाला रास्ता अधिक लोकप्रिय हुआ है। बालटाल के रास्ते बाबा अमरनाथ की पवित्र गुफा तक जाने में सिर्फ 14 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। सो, फटाफट पुण्य कमाने वालों के लिए यह रास्ता अधिक मुफीद साबित हो रहा है।
बालटाल से हेलिकॉप्टर भी उड़ते हैं तो अमीर लोगों के लिए बाबा बर्फानी का दर्शन ज्यादा आसानी से उपलब्ध हो गया है लेकिन यात्रा शुरू होने से पहले मेरी नज़र उन कूड़ों पर पड़ ही गई जो पिछले साल के यात्रियों ने यहां छोड़ दिए थे। उनकी सफाई नहीं हो पाई थी। अब इस साल का कूड़ा उस ढेर को और बड़ा कर देगा और इस कूड़े में प्लास्टिक-पॉलीथीन की थैलियां बहुतायत में हैं। आखिर पर्यावरण की चिंता किसे है? श्रीनगर से बालटाल जाने के रास्ते में, आपको कंगन के बाद से ही दोनों तरफ ग्लेशियर दिखने लगते हैं। आपको इन ग्लेशियरों को देखकर स्वर्गीय आनंद आएगा और आपको इस बात का इल्म भी नहीं होगा कि साल भर जमने वाली इस बर्फ की नदी (ग्लेशियर) में से तीन हमेशा के लिए खत्म हो चुके हैं। बालटाल पहुंचकर हजारों गाड़ियां पार्किंग में लगी दिखती हैं। इनके डीज़ल के जलने से निकला धुआं, और अधजले कार्बन से इस साफ-सुथरी हवा में ज़हर घुल रहा है। कनाते और तंबू लगे हैं। बेस कैंप में 16 सौ तंबू हैं और हर तंबू में औसतन छह बिस्तर हैं लेकिन पीने के पानी का सिर्फ एक नल।
शौचालय के नाम पर सिर्फ एक ढांचा है जिनमें पांच कमोड हैं। पांच में से एक कमोड टूटा-फूटा है, बाकी इतने गंदे हैं कि शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ऐसे में यात्री कितना साफ-सुथरा होकर दर्शन के लिए आगे बढ़ेगा, यह कहना मुश्किल है।
यात्रियों में ऐसे लोगों की गिनती ज्यादा लग रही है मुझे जो पुण्य कमाने कम और पिकनिक मनाने आए लगते हैं। बेस कैंप में थोड़ा और आगे बढ़ें तो भारत की महान धार्मिक परंपरा का एक और उदाहरण मिलता है – लंगर। यात्री, मीडियावाले कोई भी यहां आकर मुफ्त खा सकता है। जी नहीं, रुकिए, अगर आप दूर-दराज से आए ड्राइवर हैं तो आपका प्रवेश निषेध है। फिर यह भी पता चला कि यह लंगर उन चंदों पर चलाकर पुण्य कमाए जाते हैं, जो पंजाब-हरियाणा के विभिन्न शहरों में पुण्य के अभिलाषी लोगों से जुटाए जाते हैं। तो यह लंगर भी एक तरह से घोटाला ही है। चंदे की रकम में से बाकी किधर जाती है, यह तो बगल में बहती झेलम ही बता पाए।
यह लूट-खसोट तो हर तरफ है, लेकिन बाबा अमरनाथ तक जाकर पुण्य बटोरने से पहले यह ध्यान रख लिया जाता कि उससे इस इलाके के पर्यावरण, नदियों और हिमनदियों को कितना नुकसान हो रहा है तो अधिक पुण्य के भागीदार होते। हम सब।
(यह लेख, लेखक के ब्लॉग गुस्ताख से लिया गया है।)